वह झील जहां सपनों की छाया होती थी
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“वह झील जहाँ सपनों की छाया होती थी” इस शीर्षक कविता सहित 48 भाव-प्रवण कविताओं का संकलन है जिसमें एक युवा कवि-मन की मिश्रित भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति हुई है। इस संकलन की प्राय: सभी कविताएं कवि ने 18-25 की आयु-अवधि के बीच लिखी थी। अत: उनमें बुद्धि और तर्क के निरर्थक प्रलाप की जगह भावुकता का सहज संप्रेषण और प्रवाह है। मूल स्वर रोमांटिक, प्रकृतिवादी और सौन्दर्यवादी है किन्तु उसमें मानवतावाद, युवा मन के विद्रोह, दिव्य चेतना के अनुभव और प्रेम की उदात्तता जैसे तत्वों की भी अनुभूति होती है। आधुनिक कविता के छंदहीन, अनुशासनहीन और विकृत मनोविकार से कहीं दूर ...... कविता के नैसर्गिक मधुर लोक में विचरण कराने वाला एक अत्यंत पठनीय काव्य-संकलन।
Suniti Chandra Mishra
Suniti Chandra Mishra has been involved in writing poems, novels, stories and other useful books since his early youth. After graduating from Mithila University (India), he adopted his career as a language teacher and served at several schools. He further served as Office Secretary of the Continental Board of Bahá’í Counsellors in Asia (Gwalior office) and, during the same time, on the Translation & Review Committee of the National Spiritual Assembly of the Bahá’ís of India. He has translated a number of books including the ‘Most Holy Book’ of the Bahá’í Faith (by Bahá’u’lláh), ‘Covenant’ (by Lowell Johnson), and ‘The Bab: The Herald of the Day of Days’ (by H.M. Balyuji) among others.He also served as Feature Editor (Madhya Pradesh & Chhattisgarh) at the Times of India, Response Team, Bhopal, and is presently collaborating with a number of reputed translation agencies of India and abroad as a freelance writer & translator. He has served scores of reputed international clients and companies of Australia, Canada, India, UK and USA. His books “Did I Exist Before and Will I Be Born Again?” published by Pustak Mahal (www.pustakmahal.com) and “A Writer’s Manual” published by V&S Publishers (www.vspublishers.com), New Delhi, are carving out a niche in the market. In addition, several of his e-books are published at www.smashwords.com.
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वह झील जहां सपनों की छाया होती थी - Suniti Chandra Mishra
वह झील जहाँ सपनों की छाया होती थी
स्वतःस्फूर्त कविताओं का हृदयग्राही संकलन
सुनीति चन्द्र मिश्र
स्वत्वाधिकार © सुनीति चंद्र मिश्र
Copyright: Suniti Chandra Mishra
All rights reserved
ISBN-13: 9781476490557
Published by S.C. Mishra at Smashwords, Inc.
सर्वाधिकार लेखकाधीन। लेखक की पूर्व लिखित अनुमति के बिना इस पुस्तक को, इलेक्ट्रॉनिक या यांत्रिक अथवा अन्य किसी भी रूप में, पूर्ण या आंशिक रूप से, पुनर्प्रस्तुत या वितरित करने या किसी भी भाषा में इसका अनुवाद करने का निषेध है।
भूमिका
"वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान
उमड़कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।"
मेरी समझ से कविता जीवन के विशाल और गहन परिदृश्य का वर्णन है। यह आत्मा का गीत है जिसे दूसरों के लिए नहीं गाया जाता। अत्यंत करुणा या सुखानुभूति की अवस्था में बाल्मीकि के "मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समाः ...." की तरह जो अभिव्यक्ति अनायास होती है उसे ही कविता कहते हैं।
मेरे लिए कविता ‘स्वांत:सुखाय’ की अभिव्यंजना है। यह दूसरी बात है कि हम सबके हृदय एक वृहत्तर ‘हृदय’ से, हम सबकी आत्माएँ एक ‘परम आत्मा’ से, संयुक्त होने के कारण एक का दर्द दूसरे को भी वही अनुभूति देता है और एक का अलौकिक सुख अनेक की आत्मा का आस्वाद बन जाता है।
इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ मैंने 15-25 वर्ष की उम्र में लिखे थे – अपने जीवन की अपार उथल-पुथल के दौर में। इसलिए इन कविताओं में एक स्वाभाविकता है, वेदना भी है और उल्लास भी, प्रेम भी है और प्रेम से ऊपर किसी तत्व की तलाश भी।
आज के दौर में जबकि तथाकथित ’बौद्धिक कविताओं’ के आग्रह के साथ मुक्तक और अतुकांत कविताओं का चलन जोरों पर है, पता नहीं मेरी कविताओं का मूल्यांकन कैसे किया जाएगा! लेकिन मुझे इससे क्या? ’दिनकर’ के शब्दों में:
चाहे जो भी फसल उगा ले, तू जलधार बहाता चल
जिसका भी घर चमक उठे, तू मुक्त प्रकाश लुटाता चल
रोक नहीं अपने अंतर का वेग किसी आशंका से
मन में उठें भाव जो उनको गीत बनाकर गाता चल।
ग्वालियर, अगस्त 2012
1. गौरव-गान
(प्रभुदूत बहाउल्लाह द्वारा प्रकटित एक प्रार्थना का भावानुवाद)
गौरव-गान तुम्हारा हो, प्रभु!
आदिस्रोत तुम भव्य निधान
तुम हो मूल चरम सत्ता के,
गरिमामय सम्राट महान।
तुम प्रताप हो, शक्ति, सुयश हो,
तुम हो विस्तृत सिंधु अपार,
अपनी करुणामय अभिलाषा
से उतारते सबको पार।
आदिपुरुष तुम, जान सकेगा
केवल तुमको वह नर धन्य,
जिसे प्राप्त है तेरी इच्छित
करुणा का वरदान अनन्य।
इस समस्त ब्रह्मांड लोक में
तेरी इच्छा पर प्रतिबंध
डाल सके, वह भला कौन है?
परम नियामक तुम स्वच्छंद।
परम पुरातन सृष्टि-नियंता,
आदि-अंत से परे, महान,
एक तुम्हीं सर्वोच्च शक्ति हो,
परम विवेकी, आभावान!
ज्योतित कर दो, हे परमेश्वर!
दृग में भर दो दिव्य प्रकाश,
अपने दासों के मानस में
भर दो अति पावन उद्भास।
दो विवेक उनको ऐसा, वे
जान सकें तेरा विस्तार
तेरे महिमामय पुत्रों में
निरखें तेरी छवि साकार।
निश्चय ही तुम सब लोकों के
एक नियामक ईश महान
तुम अदम्य बल, सर्व समुज्ज्वल,
परम आत्मा प्रतिभावान।
**
2. समर्पण
(श्रद्धेया माँ स्व इंदुमुखी मिश्रा के प्रति)
इस समाधि की पुण्य रेणु में
मेरे विगत दिनों की यादें
है असंख्य मनुहार छिपी औ'
अंकित हैं अगणित फ़रियादें।
इस समाधि की नीरवता में
कुछ क्रंदन, उपहास छिपे हैं
दर्द भरी छोटी-सी दुनिया
के अनगिन संत्रास छिपे हैं।
इस समाधि पर बुझती जैसी
कँप जो दीवाली जलती है
उसमें बीते हुए दिनों की
एक व्यथाशाला पलती है।
इस समाधि में बरस रही हैं
गुपचुप जिसकी