Devi Chaudharani - (देवी चौधरानी)
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वे ऐतिहासिक उपन्यास लिखने में सिद्धहस्त थे। वे भारत के एलेक्जेंडर ड्यूमा माने जाते हैं।
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Devi Chaudharani - (देवी चौधरानी) - Bankim Chandra Chatterjee
से)
देवी चौधरानी
प्रथम खण्ड
प्रथम परिच्छेद
प्रफुल्ल, अरी ओ प्रफुल्ल! अरी मुंहजली।
आई मां!
मां ने आवाज दी और बेटी आ गई!
क्या मां?
वह बोली।
जा घोष के घर से एक बैंगन ले आ।
मां ने कहा।
मैं नहीं लाऊंगी मां! मुझे शर्म आती है भीख मांगने में।
तब खायेगी क्या? घर में आज कुछ भी नहीं।
केवल भात ही खा लूंगी! भला रोज-रोज मैं क्यों मांगने जाऊं।
तो फिर ऐसा ही भाग्य लेकर जन्मी होती। भला गरीबों को मांगने में कैसी शर्म!
प्रफुल्ल कुछ नहीं बोली। तब तू भात चढ़ा दे, मैं तब तक जरा तरकारी का प्रबंध कर लूं।
प्रफुल्ल ने कहा-‘भीख मांगने मत जाना, तुम्हें मेरी सौगंध है। घर में चावल है, नमक है, पौधे पर कच्ची मिर्च लगी है, और क्या चाहिए औरतों को।"
प्रफुल्ल की मां खुश हो गयी। भात का पानी चढ़ा दिया था, मां चावल धोने चली गयी।
चावल की हांडी देखकर मां ने माथा पकड़ लिया, बोली-चावल कहां है?
प्रफुल्ल को दिखलाया-केवल आधी मुट्ठी चावल था, इतने में तो एक व्यक्ति का पेट भी नहीं भरता?
मां हांडी लेकर बाहर आयी। प्रफुल्ल ने कहा, कहां जा रही हो?
मां-कुछ चावल उधार ले आऊं, नहीं तो कोरा भात भी नसीब नहीं होगा।
प्रफुल्ल-हम लोगों ने कितना चावल उधार ले लिया, परन्तु अभी तक लौटाया नहीं। अब और उधार मत लाओ।
मां-अरे अभागन, खाएगी क्या? घर में एक भी पैसा नहीं है।
प्रफुल्ल-व्रत कर लूंगी।
मां-कितने दिन तक रखेगी व्रत? कैसे जिएगी?
प्रफुल्ल-तो मर जाऊंगी।
मां-मेरे मर जाने पर जो मन में आये सो करना। पर तू व्रत करके मरेगी, यह मैं देख नहीं सकती। कैसे भी हो, तुझे भीख मांगकर भी खिलाऊंगी।
प्रफुल्ल-कोई जरूरी है क्या भीख मांगना? आदमी एक दिन उपवास रखने से मरता नहीं। आओ-मां! मां-बेटी मिलकर यज्ञोपवीत बनायें। कल बेचकर पैसों की व्यवस्था कर लेंगी।
मां-सूत कहां है?
प्रफुल्ल-चरखा तो है।
मां-लेकिन रूई कहां है।
प्रफुल्ल नीचे मुंह करके रोने लगी। मां हांडी लेकर फिर चावल उधार लेने चली गयी। प्रफुल्ल ने मां के हाथ से हांडी दूर रख दी।
मां मैं भीख मांगकर, उधार मांगकर क्यों खाऊं? मेरे पास तो सब कुछ है।
प्रफुल्ल बोली। मां आंसू पोंछकर बोली, बेटी, सब तो है पर भाग्य कहां है।
प्रफुल्ल-भाग्य क्यों नहीं होता मां! क्या गुनाह किया था मैंने, जो ससुर के पास अन्न होते हुए भी नहीं खा पाऊं।
मां-इस अभागिन की कोख से जन्मी-यह गुनाह और तेरी किस्मत।
प्रफुल्ल-सुनो, मैंने अब फैसला कर लिया है मां-भाग्य में ससुर का अन्न है तो खाऊंगी, नहीं तो न खाऊंगी। तुम जैसे भी भीख मांगकर खा लो चाहे, पर मुझे मेरी ससुराल पहुंचा दो।
मां-यह क्या बेटी, भला ऐसा भी हो सकता है!
प्रफुल्ल-क्यों नहीं हो सकता मां।
मां-बिन बुलाये क्या ससुराल जाया जाता है।
प्रफुल्ल-दूसरे लोगों से मांगकर खाया जा सकता है और बिन बुलाये अपनी ससुराल नहीं जाया जा सकता क्या?
मां-वो लोग तो भूलकर भी तुम्हारा नाम नहीं लेते।
प्रफुल्ल-मत लें। इसमें मेरा अपमान नहीं है। जिस पर मेरे भरण-पोषण की जिम्मेदारी है, उससे अन्न की भीख मांगने में मुझे शर्म नहीं आती-अपना ही धन तो मांगकर खाऊंगी, इसमें शर्म की क्या बात है।
मां धीरे-धीरे रोने लगी। प्रफुल्ल ने,कहा-तुम्हें अकेली छोड़कर जाने का मेरा मन नहीं होता, लेकिन मेरा दु:ख दूर होने पर ही तो तुम्हारा दु:ख घटेगा। इसी आशा से जाना चाहती हूं।
काफी देर तक मां-बेटी में बातचीत हुई। मां ने सोचा-बेटी का कहना उचित है। मां ने जो चावल था बनाया, परन्तु बेटी ने किसी भी तरह खाना मंजूर नहीं किया। अतः मां ने भी नहीं खाया। प्रफुल्ल बोली-रास्ता बहुत लंबा है, समय खराब करने से क्या लाभ।
मां ने कहा-आ, तेरे बाल बांध दूं।
प्रफुल्ल बोली-रहने दो।
मां ने सोचा-मेरी बेटी को सजाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
और बेटी ने सोचा सज-संवरकर क्या किसी को लुभाने जाऊं? छिः।"
गंदे कपड़े पहने ही दोनों घर से निकलीं।
द्वितीय परिच्छेद
बरेन्द्रभूम में भूतनाथ नाम का एक गांव है। प्रफुल्लमुखी की वहां ससुराल है। प्रफुल्ल की स्थिति चाहे कैसी भी हो पर उसके ससुर हरबल्लभ बाबू ऊंचे आदमी हैं। उनकी बहुत सारी जमींदारी है। दो मंजिला मकान है, दफ्तर है, चहार-दीवारी से घिरा बगीचा और तालाब है। यह जगह प्रफुल्ल के मायके से छह कोस की दूरी पर थी। मां-बेटी बिना कुछ खाये-पीये छह कोस चलकर लगभग तीसरे पहर उस अमीर के घर में पहुंचीं।
घर में प्रवेश करने के लिए मां के कदम नहीं उठ रहे थे। प्रफुल्ल को गरीब लड़की समझकर हरबल्लभ बाबू नफरत करते हों, ऐसी बात नहीं थी। शादी के बाद एक घपला हुआ था। हरबल्लभ ने तो गरीब देखकर ही अपने बेटे का विवाह किया था। लड़की बड़ी सुन्दर थी, ऐसी कन्या उन्हें दूसरी जगह कहीं भी नहीं मिली इसीलिए वहां शादी की थी। इधर प्रफुल्ल की मां ने भी बेटी के ऊंचे घर में जाने से प्रसन्न होकर अपना सब कुछ खर्च कर दिया था। विवाह में उसके पास जो कुछ था, सब स्वाहा हो गया। तब से ही उन्हें अन्न की कमी हो गई थी। लेकिन किस्मत का खेल, इतनी आशा से किया गया कि ब्याह भी उलटा ही परिणाम देने लगा। सर्वस्व खत्म करके भी उस बेचारी के पास सर्वस्व क्या था-बेचारी विधवा सारी मांगें पूरी न कर सकी। उसने बारातियों को तो अच्छा भोजन कराया, पर कन्या-पक्षवालों को सिर्फ दही-चिउड़ा ही दे पायी। कन्या-पक्षवाले पड़ोसियों ने इसे अपना अपमान समझा और वे बिना खाए-पिये ही उठ गये। इस कारण प्रफुल्ल की मां और पड़ोसियों में परस्पर मतभेद पैदा हो गया था। प्रफुल्ल की मां ने उन्हें गालियां दीं। पड़ोसियों ने चिढ़ कर एक भयानक बदला ले लिया। |
भोज रस्म के दिन हरबल्लभ बाबू ने सारे पड़ोसियों को आमंत्रित किया था। लेकिन उनमें से गया कोई नहीं। कहलवा दिया-कुलटा और जाति से बहिष्कृत के साथ हरबल्लभ बाबू ने रिश्ता किया है तो करें-ऊंचे लोगों को सब शोभा देता है लेकिन हम गरीबों की तो जाति ही सब कुछ है, हम लोग जातभ्रष्ट लड़की के हाथ का पानी नहीं पी सकते। प्रफुल्ल की विधवा मां बेचारी बेटी के साथ घर में रहती थी। ज्यादा उम्र भी नहीं थी, इसलिए बात असंभव नहीं लगी। हरबल्लभ ने सोचा-पड़ोसियों ने ब्याह के दिन भी प्रफुल्ल के यहां खाना नहीं खाया था। फिर पड़ोसी झूठ क्यों बोलेंगे। हरबल्लभ ने यकीन कर लिया, सभा में बैठे लोगों ने भी विश्वास कर लिया। आमंत्रित सभी लोगों ने खाना तो खाया, परन्तु दुल्हन का हाथ स्पर्श किया हुआ नहीं। दूसरे दिन ही हरबल्लभ ने दुल्हन को उसके मायके भेज दिया। तभी से प्रफुल्ल की मां का उनसे संबंध टूटा हुआ था। उन्होंने तभी से न कोई खोज-खबर ली और न ही अपने बेटे को लेने दी। बेटे की दूसरी शादी कर दी। प्रफुल्ल की मां ने एक-दो बार कुछ चीजें भिजवाई थीं, परन्तु हरबल्लभ बाबू ने वह वापिस ही भिजवा दी थीं। इसलिए उस घर में आज प्रविष्ट होते समय प्रफुल्ल की मां के पैर कंपन कर रहे थे।
किन्तु अब वापिस लौटा भी नहीं जा सकता था। हिम्मत करके बेटी ने घर में प्रवेश किया। गृहस्वामी हरम में दोपहर की निद्रा का सुख ले रहे थे। प्रफुल्ल की सास अपने पके हुए बाल चुगवा रही थी। उसी समय प्रफुल्ल और उसकी मां पहुंची। प्रफुल्ल ने हाथ भर लंबा घूंघट निकाल लिया था। इस समय उसकी उम्र अठारह वर्ष की थी।
तुम कौन हो?
गृहस्वामिनी ने उन्हें देखकर पूछा।
क्या कहकर अपना परिचय दूं......!
प्रफुल्ल- की मां ने लंबी सांस भरी।
गृहस्वामिनी-परिचय देने में बहुत कुछ बताना पड़ता है।
प्रफुल्ल की मां-हम आपके रिश्तेदार हैं।
गृहस्वामिनी-रिश्तेदार? कैसा रिश्तेदार?
एक नौकरानी वहां काम करती थी, तारा की मां नाम की। वह एक-दो बार प्रफुल्ल के घर हो आयी थी। विवाह के बाद भी एक बार गयी थी। वह बोली-अरे पहचाना-कौन, समधिन?
गृहस्वामिनी-समधिन? कौन समधिन?
तारा की मां-दुर्गापुर वाली समधिन-तुम्हारे बड़े वाले बेटे की बड़ी सास।
गृहस्वामिनी की समझ में आया। थोड़ा अप्रसन्न हुई और बोली-बैठो....।
समधिन बैठ गई, प्रफुल्ल खड़ी रही। गृहस्वामिनी ने पूछा, यह लड़की कौन है?
तुम्हारी बड़ी पुत्रवधु?
प्रफुल्ल की मां ने कहा।
गृहस्वामिनी अचंभित सी कुछ देर चुप रहीं। फिर कहा-तुम लोग कहां आयी थीं?
तुम्हारे घर ही आई हैं।
प्रफुल्ल की मां ने कहा।
क्यों?
गृहस्वामिनी बोली।
क्यों क्या? मेरी बेटी अपनी ससुराल नहीं आती?
गृहस्वामिनी-"आती क्यों नहीं-। सास-ससुर जब बुलावे तब, यूं भले घर के लड़के-लड़की क्या जबरदस्ती ससुराल आते हैं?
प्रफुल्ल की मां-सास-ससुर अगर सात जन्म भी न बुलावें तब?
गृहस्वामिनी-तो न आवे?
प्रफुल्ल की मां-फिर खिलाये कौन? मैं बेसहारा, विधवा-तुम्हारे बेटे की औरत को कैसे खिलाऊं?
गृहस्वमिनी-नहीं खिला सकतीं तो जन्म क्यों दिया था?
प्रफुल्ल की मां-तुम खाने-पीने का हिसाब बिठाकर अपने लड़के को पेट में लायी थीं? तो उसी के साथ लड़के की बहू के खाने-पहनने का भी हिसाब क्यों नहीं कर लिया?
गृहस्वामिनी-अरे बाप रे! यह औरत तो घर से ही कलह करने को तैयार होकर आई है।
प्रफुल्ल की मां-नहीं, कलह करने नहीं आई हूं-तुम्हारी बहू को छोड़ने आई हूं-अकेली नहीं आ सकती थी, मैं अब चलती हूं।
प्रफुल्ल की मां इतना कहकर चली गई। अभागन बेटी ने तब भी कुछ नहीं खाया था। मां के चले जाने के बाद प्रफुल्ल अचल घूंघट निकाले खड़ी रही। तुम्हारी मां गई-तुम भी चली जाओ।
सास ने कहा।
प्रफुल्ल चुप रही। हिली भी नहीं।
गृहस्वामिनी-अरे हिलती क्यों नहीं।
प्रफुल्ल फिर भी अडिग खड़ी थी।
गृहस्वामिनी क्या समस्या है? क्या तुम्हें दुबारा पहुंचाने के लिए आदमी भेजना पड़ेगा?
प्रफुल्ल ने अब घूंघट उठाया। चेहरा चांद की तरह खुला, नयनों में अश्रु धारा बह रही थी। सास ने सोचा-आह! चांद जैसी बहू पाकर भी मैं घर नहीं चला पाई।
मन थोड़ा नरम हुआ।
मैं जाने के लिए नहीं आयी हूं।
प्रफुल्ल ने अस्फुट स्वर में कहा।
बेटी, मैं क्या करूं? मेरी इच्छा होती है कि तुम्हें लेकर गृहस्थी चलाऊं। लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं-जात बाहर होने का डर है, इसलिए तुम्हें छोड़ना पड़ा है।
प्रफुल्ल-मां, क्या जाति बहिष्कृत हो जाने के डर से कोई अपनी औलाद को त्याग देता है? क्या मैं तुम्हारी संतान नहीं हूँ?
मैं क्या करूं बेटी?
सास का मन कुछ और नरम हुआ।
अच्छा मैं जातिच्युत सही। तुम्हारे यहां शूद्र दासियां कितनी हैं-मैं भी दासी बनकर रह लूंगी तो क्या आपत्ति है?
प्रफुल्ल- ने फिर अस्फुट स्वर में कहा।
गृहस्वामिनी आगे और कुछ न कह सकी, बोली-लड़की तो लक्ष्मी है-रंग रूप में और बातों में भी। गृहस्वामी से जाकर पूछूं, क्या कहते हैं।
बेटी तुम यहां बैठो। प्रफुल्ल बैठ गई। उसी समय चौदह वर्षीया एक सुन्दर कन्या ने दरवाजे की ओट में घूंघट निकाले झांका, उसने हाथ से इशारा करके प्रफुल्ल को बुलाया। यह कौन है? सोचकर प्रफुल्ल उठकर कन्या के पास गई।
तृतीय परिच्छेद
गृहस्वामिनी इठलाती हुई गृहस्वामी के कमरे में प्रविष्ट हुई। गृहस्वामी जाग चुके थे। अपना हाथ-मुंह पोंछ रहे थे। गृहस्वामिनी ने उसे प्रसन्न करने के लिए कहा-तुम्हें किसने जगा दिया? मैं कितनी बार मना कर चुकी हूं फिर भी कोई सुनता ही नहीं है.......।
गृहस्वामी ने मन में सोचा-जगाने की जल्दी तुम्हें ही रही है-आज लगता है कोई काम है। वे बोले-जगाया किसी ने नहीं-बहुत नींद आई। क्या बात है?
आज एक घटना हुई है, वही बताने आई हूं।
गृहस्वामिनी ने हंसते हुए कहा। इस तरह भूमिका बनाकर अपने कंगना और नथ हिलाकर उसने प्रफुल्ल और उसकी मां के आने का सारा वृतान्त कह सुनाया। अपनी तरफ से भी बहू की सुन्दरता का बखान करके बहुत कुछ कहा। परन्तु गृहस्वामिनी का एक भी तंत्र-मंत्र सफल नहीं हुआ।
इतनी हिम्मत। यह बाग्दी (बंगाल की एक नीची जाति) की लड़की मेरे घर में आ गई। झाडू मारकर अभी बाहर निकाल दो।
गृहस्वामी ने गुस्से में कहा।
गृहस्वामिनी-छि:-छि:! चाहे कुछ भी हो, आखिर है तो अपने लड़के की बहू। ऐसी बात कोई कहता है। और बाग्दी की लड़की क्या लोगों के कहने से हो गई?
गृहस्वामिनी ने काफी दांव-पेंच लगाये पर सफल नहीं हुई। झाडू मारकर बाग्दी की लड़की को बाहर निकाल दो
-गृहस्वामिनी ने फिर आदेश दिया। अंत में गृहस्वामिनी गुस्से में बोली-"मैं इस मामले में आड़े नहीं आऊंगी।