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Jharkhand Ke Amar Krantikari : Birsa Munda Evam Sidhu-Kanhu (झारखण्ड के अमर क्रांतिकारी : बिरसा मुंडा एवं सिधु-कान्हू)
Jharkhand Ke Amar Krantikari : Birsa Munda Evam Sidhu-Kanhu (झारखण्ड के अमर क्रांतिकारी : बिरसा मुंडा एवं सिधु-कान्हू)
Jharkhand Ke Amar Krantikari : Birsa Munda Evam Sidhu-Kanhu (झारखण्ड के अमर क्रांतिकारी : बिरसा मुंडा एवं सिधु-कान्हू)
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Jharkhand Ke Amar Krantikari : Birsa Munda Evam Sidhu-Kanhu (झारखण्ड के अमर क्रांतिकारी : बिरसा मुंडा एवं सिधु-कान्हू)

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आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से आज तक चला आ रहा है। 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के गदर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे। सन् 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला। आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे। 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ी थी। उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान किया। ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे। यह मात्र विद्रोह नहीं था, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए महासंग्राम था।.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789390504398
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    Jharkhand Ke Amar Krantikari - Dr. Susmita Pandey

    पहाड़

    प्रथम अध्याय

    बिरसा से बिरसा भगवान

    आज हम गौरव के साथ अपने को स्वतंत्र देश का स्वतंत्र नागरिक कहकर गौरवान्वित होते हैं लेकिन यह गौरव जो सन् 1947 के 15 अगस्त को प्राप्त हुआ और जिसकी पचासवीं वर्षगांठ इस वर्ष हम मना रहे हैं-इसे प्राप्त करने के लिए कितने ज्ञात और अज्ञात नौनिहालों ने, युवकों ने अपना सर्वस्वार्पण माँ भारती के चरणों में किया। झारखंड के छोटानागपुर और संताल परगना के क्षेत्र में निवास करने वाले उन वीर, शहीदों की गाथाएँ इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों से अंकित हैं। हमारे देश के कोने-कोने में कहीं पहाड़ों पर, कहीं घने जंगलों में, कहीं खुले मैदानों में, कहीं झुलसते रेत के टीलों के किनारों पर वनवासी (आदिवासी) लोग सदियों से आबाद हैं। एक जमाना था जब यही लोग इस देश के मालिक थे। इस देश के अनेक भागों में इनकी हुकूमत थी। भील और मीणाओं का राजस्थान में राज्य था और मध्यप्रदेश में गोंड राजाओं की हुकूमत थी। कहीं नागाओं का देश था और कहीं संताल और मुण्डाओं की अपनी सत्ता। इस प्रकार प्राचीन भारत में यही लोग इस देश के विभिन्न इलाकों में राज करते थे। इन्होंने ही इस देश की महान संस्कृति को मोहन-जोदड़ो-हड़प्पा काल से आज तक सँभाल कर रखा है, जिस पर इस देश के नेताओं को नाज है और सारे संसार में इस महान संस्कृति का ढिंढोरा पीटते फिरते हैं, परंतु कभी भी उनके जीवन के उन झरोखों में झाँककर नहीं देखा गया, जहाँ वे आज गरीबी, भूखमरी, बेकारी और शोषण के शिकार हैं।

    उनके जंगलों पर गैरों ने कब्जा कर लिया। उनकी जमीन जिसे उन्होंने सदियों। से अपने खूनों से सींचा था, उनसे छीन ली। उनके जंगलों के फलों और पैदावारों से उन्हें वंचित कर दिया। उनके घरों और गाँवों को उजाड़ दिया जिसके कारण चारों ओर वनवासियों में फैली निराशा, आक्रोश और बगावत है। झारखंड के वनवासी वर्षों से शोषण और जुल्म के खिलाफ लड़ते आ रहे थे। कहा जाता है कि ये लोग किसी जमाने में गंगाघाट और उनके मैदानी इलाके में रहते थे, आर्यों व अन्य बाहरी लोगों के बार-बार हमलों से तंग होकर ये लोग इस इलाके को छोड़ कर बिहार के घने जंगलों में जा बसे। इन जंगलों को साफ किया और वहाँ के अन्य इलाकों जैसे छोटानागपुर, संताल परगना आदि में बस गए और अमन चैन से रहने लगे। इन्होंने अपना धर्म, अपनी संस्कृति और सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को आज तक सँभाल कर रखा है।

    सदियों से ये वनवासी लोग जंगलों के मालिक थे। जमीन इनकी थीं, जंगलों की ऊपज के यही हकदार थे। जीवन खुशियों से भरपूर मस्ती में झूमता गाता था। इनकी पायल की झंकार और इनके ढोल-नगाड़े और मांदर की धुन से सारे जंगल में मंगल हो उठता था। परंतु अंग्रेजों का शासन आते ही उन्होंने इनके जंगलों पर अपना कब्जा करने के लिए नित नए कानून बनाने शुरू कर दिए। जमींदारी व्यवस्था शुरू हो गई जिसके तहत इन जंगलों में जमींदार, ठेकेदार और सूदखोर घुस गए और इन सीधे-सादे वनवासियों का शोषण करना शुरू कर दिया, उनकी जमीनों और जंगलों पर कब्जा करने लगे और दूसरी ओर पादरियों ने धर्म परिवर्तन का चक्र भी जोर-शोर से चला दिया जिससे वनवासियों में हल-चल मच गई। विद्रोह की चिनगारियाँ सारे वनवासी क्षेत्र में फूट पड़ीं। लेकिन जहाँ कहीं भी वनवासियों ने विद्रोह किया अंग्रेजों ने उसे अपनी फौजी ताकत से पूरी तरह दबा दिया। उन्होंने जमींदारों की नए कानूनों द्वारा रक्षा की जिससे वनवासियों पर अत्याचार, दमन और शोषण का चक्र ज्यादा तेज हो गया। जागीरदारों का जमीनों और जंगलों पर कब्जा बढ़ता गया और सूदखोरों ने उनकी तमाम खुशियाँ छीन कर रख लीं और उन्हें बंधुआ मजदूर और गुलाम बना लिया।

    इन्हीं सभी कारणों से वनवासियों ने इसका विरोध किया। बिरसा मुण्डा ने भी इस जुल्म और शोषण के खिलाफ आवाज बुलन्द की। वीर बिरसा मुण्डा जिन्हें पूरे देश के लोग श्रद्धापूर्वक बिरसा भगवान के रूप में जानते हैं, उन्होंने जमींदारों एवं विदेशी शासकों, ईसाई मिशनरियों के जुल्म से अपने देशवासियों को बचाने की निष्काम, निर्भीक एवं वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी। उन्होंने वनवासी बंधुओं को अपने धर्म का अभेद कवच देकर एक नयी जीवन शक्ति एवं स्वच्छ चरित्र का पाठ पढ़ाया। बिरसा भगवान ने न केवल राजनीतिक लड़ाई लड़ी, बल्कि अपनी सांस्कृतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए नया पंथ चलाया, जिसमें मूलत: प्रकृति पूजा तथा नैसर्गिक जीवन जीने के ध्येय को प्रमुखता दी गई। स्वाभाविक ही यह प्रयास ईसाई मिशनरियों को रास न आया और उन्होंने इन लोगों का विरोध किया। जब पूरे देश के लोग अंग्रेजी सभ्यता के सामने घुटने टेक कर रविवार को अवकाश मानते हैं तब छोटानागपुर के वनवासी किसान आज भी गुरूवार को हलबंदी तथा अवकाश रखते हैं। बिरसा भगवान ने एक नए वनवासी जीवन पद्धति की नींव डाली। ऐसा माना जाता है कि ईश्वर ने उन्हें अद्भुत शक्ति दी थी जिसके चमत्कार से बीमार लोग स्वस्थ हो जाते थे। लोग इनके धर्म-पन्थ में शामिल होने लगे और इन्हें बिरसा भगवान या धरती आबा कहकर पुकारने लगे। आज भी इस पन्थ के लोग ‘बिरसैत’ मत के रूप में मानते हैं। बिरसा भगवान ने बिरसैत पंथ के निम्न सिद्धान्त बताए:‒

    सिंगबोंगा (ईश्वर) एक है जो दिव्य प्रकाश का स्रोत, सर्वव्यापक कल्याणकारी, जगत् का निर्माता तथा विध्वंसक तथा समस्त प्राणियों एवं जड़ पदार्थों का स्वामी व संरक्षक है।

    विविध बोंगाओं (देवी) की पूजा करने के स्थान पर सिंगबोंगा की पूजा करनी चाहिए। भूत-प्रेतों को मत मानो।

    बलि मत चढ़ाओ। अरवा चावल और पाई से पूजा करो।

    गोमाता की सेवा करो, उसे कभी कष्ट मत पहुँचाओ।

    मांस-मछली से परहेज करो।

    मदिरा का त्याग करो।

    स्वच्छता (सफाई) से रहो। सादा रहो। घर में तुलसी का पौधा लगाओ और उपासना करो। सफेद ध्वज फहराओ। न झूठ बोलो, न चोरी करो।

    एकजुट रहो। आपस में झगड़ा मत करो।

    सप्ताह में बृहस्पतिवार को छुट्टी मनाओ, ध्यान-जप में समय व्यतीत करो।

    पवित्र यज्ञोपवीत अवश्य धारण करो, स्नान के बाद भोजन करो।

    अशुद्ध भोजन मत करो। कुसंग से बचो। ईसाई लड़के-लड़कियों से विवाह मत करो।

    इन्होंने केवल एक नया मत ही नहीं चलाया अपितु वनवासियों को संगठित करके अंग्रेज शासकों, जागीरदारों और सूदखोरों के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ कर दिया। परंतु अंग्रेजी शासकों ने अन्त में इन्हें बन्दी बना लिया और कारागार (जेल) में विष देकर मार दिया। एक वीर सेनानी वनवासियों की स्वतंत्रता के लिए बलिदान हो गया। जीवन भर वह ब्रिटिश शासकों और जमींदारों, जागीरदारों, सूदखोरों के अत्याचार, दमन और शोषण के विरुद्ध लड़ते रहे और अन्त में अपने जीवन की आहुति चढ़ा दी। उनका यह बलिदान इस देश के शहीदों के साथ सदा याद रखा जाएगा। आज भी उनकी वीरगाथा लोक-कथाओं, लोकगीतों में गाई जाती है। बिरसा शहीद होकर अमर हो गए।

    मुण्डाओं का इतिहास:-

    मुण्डाओं की प्राचीन परम्पराएँ जो उनकी धर्मगाथाओं, अवदानों, लोककथाओं एंव लोकगीतों में अनुस्यूत हैं, उनके उद्भव और विकास पर अपने ढंग से प्रकाश डालती हैं। यद्यपि कथाएँ कमोबेश परिवर्तन के साथ समस्त मुण्डा समाज में प्रचलित हैं किन्तु इनकी विषयवस्तु या कथानक की प्रामाणिकता पूरी तरह असंदिग्ध नहीं है। इनकी विषयवस्तु पर वेदों एवं पुराणों का प्रभाव भी लक्षित होता है। मुण्डा धर्मगाथा में महाप्रलय की कथा (मनोवा कोव: दोवड़ा जन्म) मनु की कथा का ही रूपान्तर है। यहाँ भी मनु ही हैं जो लोटे के पानी में तैरती मछली को नदी में सुरक्षित छोड़ते हैं और वह मछली महाप्रलय आने पर मनु की नाव सुरक्षित बचा लेती है और इस प्रकार मनु से क्रमश: मुण्डा, रोड़ा, ननका तथा सोदतो का जन्म होता है और इस पृथ्वी पर पुन: मानवजीवन का प्रादुर्भाव होता है।

    मुण्डा लोग भारत के किसी बाहर की धरती पर जन्मे, विकसित हुए तथा खानाबदोश की स्थिति में घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करते हुए भारत पहुँचे‒ऐसा कोई उल्लेख गाथाओं में नहीं मिलता। ए. टोपनो द्वारा संकलित कथाओं में लुटकुम हरम का उल्लेख आया है जो मुण्डाओं का पूर्वज माना गया था तथा जिसका मूल स्थान कहीं मध्य एशिया में था। इस कथा को ए.सी.राय ने भी उद्धृत किया है, जिसके अनुसार लुटकुम हड़म, होरोको (मुण्डाओं) के प्रथम पूर्वज थे। लुटकुम का पुत्र हेम्बो, हेम्बो का कुस और कुस का मोरिह पुत्र था। मोरिह ने अपनी जन्मभूमि मध्य एशिया से पशु-पक्षियों के साथ तिब्बत मार्ग से होते हुए पूर्वोत्तर भारत में प्रवेश किया और क्रमश: बुन्देलखंड, होशंगाबाद से नर्मदा के तट तक अर्थात् पूरे उत्तर भारत में फैल गया।

    पर अधिकांश विद्वान दक्षिण-चीन को इनका मूल स्थान मानते हैं और वहाँ से चलकर ये जातियाँ तिब्बत-मंगोलिया सीमा क्षेत्र में कुछ समय रहने के उपरान्त छोटे-छोटे समूहों में (क) नेपाल होते हुए तथा (ख) हिमाचल प्रदेश होते हुए भारत में प्रविष्ट हुई हैं। छोटानागपुर में निर्वासित मुण्डा जन-जाति, जिस जन-जाति में उत्पन्न हुए वीर बिरसा, जिन्हें यहाँ के वासी आदर और श्रद्धा के साथ भगवान मानते हैं, उनके पूर्वज किस प्रकार इस भू-भाग में पहुँचे, हजारों वर्षों के विभाजन-प्रतिविभाजन के फलस्वरूप वर्तमान रूप में ये जन-जातियाँ वर्तमान रूप में पहुँची हैं।

    अंग्रेजों का आगमन:-

    भारतीय इतिहास में 1757 का वर्ष अंग्रेजी शासन के लिए मील का पत्थर प्रमाणित हुआ है। 10 अप्रैल, 1756 को अलीवर्दी खाँ की मृत्यु के उपरान्त पूर्वी भारत पर मुगलों का आधिपत्य सदा के लिए समाप्त हो गया। 1757 ई. में प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की विजय के साथ भारत में नए युग का आरम्भ होता है। इस युग को बक्सर (अक्टूबर 1764) की विजय ने सशक्त आधार प्रदान किया और भारत पूरी तरह अंग्रेजों के शिकंजे में आ गया। 12 अगस्त, 1765 ई. को शाह आलम ने बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंप दी। इस प्रकार भारत में अपना राज्य स्थापित करने का अंग्रेजों का मार्ग प्रशस्त हो गया। बिहार के साथ छोटानागपुर का क्षेत्र भी अंग्रेजों की अधिकार सीमा में घिसट आया। सर्वप्रथम कैप्टन जैकब केमेक नामक अंग्रेज ने 1769 ई. में अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ छोटानागपुर में प्रवेश किया। स्थानीय राजाओं के झगड़े निपटाने, उनकी सहायता कर विद्रोहियों को दबाने तथा उनसे मालगुजारी वसूलने के कार्यक्रमों के अन्तर्गत अंग्रेजों की सैनिक टुकड़ियाँ छोटानागपुर की प्रमुख छावनियों में रखी जाने लगीं तथा अंग्रेज मिलिट्री अफसर प्रशासनिक एवं अन्य क्रिया-कलापों में राजाओं को निर्देश देने लगे। अंग्रेजों के पदार्पण से छोटानागपुर का न केवल राजनैतिक एवं आर्थिक जीवन प्रभावित हुआ अपितु इसका प्रभाव सामाजिक एवं धार्मिक जीवन पर भी पड़ा। इन परिवर्तनों ने क्षेत्र की प्रमुख जन-जातियों मुण्डा एवं उराँव के धार्मिक जीवन को भी गहराई से प्रभावित किया।

    अंग्रेजों के प्रवेश के साथ आदिवासी बहुल क्षेत्र छोटानागपुर में ईसाई धर्म प्रचारकों को, ईसाई धर्म फैलाने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। ईसाई धर्म के प्रचार का अभियान सबसे पहले गोस्सनर ईवजैलिक लूथर मिशन (जी.ई.एल.) ने उठाया। 1844 ई. में बर्लिन के वेस्टन जौन ईवेजेलिस्ट ने चार मिशनरियों को भेजा। प्रारम्भिक कतिपय कठिनाइयों के उपरान्त ईसाई धर्म में यहाँ के गरीब आदिवासियों के धर्मान्तरण की गति काफी तीव्र रही। इस दिशा में अन्य मिशनों की अपेक्षा सर्वदा के केथलिक मिशन की भूमिका अत्यन्त प्रभावी थी। उराँवों की अपेक्षा मुण्डाओं पर मिशनरियों का जादू ज्यादा सफल रहा।

    राँची के दक्षिण-पूर्वी भाग तथा सिंहभूम के सीमा प्रदेश में मुण्डाओं की आबादी काफी गहन है। श्री चैतन्य चरितामृत से ज्ञात होता है कि चैतन्य महाप्रभु नीलांचल से मथुरा जाते हुए झारखंड से होकर गुजरे थे, फलस्वरूप अनेक आदिवासी इनसे प्रभावित होकर वैष्णव धर्मावलम्बी हो गए थे। राम एवं कृष्ण के चरित्र पर मुण्डारी, सदानी एवं पंच परगनियाँ भाषाओं में अनेक काव्य-कृतियाँ उपलब्ध हैं। हिन्दू धर्म मुण्डाओं के धार्मिक विश्वासों को दिशा देने में सर्वाधिक सफल रहा है। मुण्डाओं ने हिन्दू देवता शिव को महादेव बोंगा और पार्वती को चण्डी बोंगा के नाम से अंगीकार किया है।

    भारत में मुण्डाओं के प्रवेश से लेकर रोहतासगढ़ तक के भटकाव क्रम में मुण्डा जनजाति विभिन्न उपजातियाँ बनाती हुई विभिन्न क्षेत्रों में बसती गईं। यह प्रक्रिया मुण्डाओं के रोहतासगढ़ से पलायन और छोटानागपुर में प्रवेश के उपरांत भी चलती रही। वनों को काट कर मुण्डाओं ने कृषि योग्य भूमि बनाई, रहने के लिए स्थान बनाए, जिसे हातु कहा गया। हातु का तात्पर्य गाँव या पुर से है। मुण्डाओं के किसी एक परिवार द्वारा जंगल काट कर जो भूमि तथा क्षेत्र तैयार किया गया था उसे खुटकट्टी हातु अर्थात् आदिम निवासी का गाँव कहा गया। खुटकट्टी हातु की सीमा में आई हुई सम्पूर्ण सम्पत्ति (भूमि के ऊपर या भू-गर्भित) पर उस पूरा परिवार का अधिकार माना जाता था। इस प्रकार अनेक मूल परिवारों ने जंगल साफ कर अपना खुटकट्टी हातु बना लिया था, जिनकी सीमा निर्धारित थी। खुटकट्टी हातु की सीमा को, सीमाओं की चार दिशाओं के कोने पर अग्नि प्रज्वलित कर इन कोनों को मिलाने वाली रेखाओं से निर्धारित किया जाता था। इन सीमाओं का अतिक्रमण किसी अन्य हातु का मुण्डा या मुण्डा परिवार नहीं करता था, क्योंकि वे इन सीमाओं को पवित्र मानते थे। उनका विश्वास था कि इन सीमा-रेखाओं की सुरक्षा सीमा-बोंगा अर्थात् गाँव की सीमा के देवता करते हैं।

    आधुनिक काल एवं मुण्डा धर्म:‒

    10 अप्रैल, 1756 को अलीवर्दी खाँ की मृत्यु, 1757 ई. प्लासी युद्ध में अंग्रेजों की विजय तथा अक्टूबर, 1764 में बक्सर के पतन के उपरान्त 12 अगस्त, 1765 को बंगाल, बिहार, उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को हस्तान्तरित होने के साथ-साथ छोटानागपुर सहित पूर्वी भारत पूरी तरह अंग्रेजों के शिकंजे में आ गया था। अब तक मुगलों ने यद्यपि छोटानागपुर के राजाओं एवं घटवारों से मालगुजारी वसूली थी, किन्तु उन्होंने इनके आन्तरिक प्रशासन में कोई दखलअन्दाजी नहीं की थी और न ही यहाँ के वन-जातीय जीवन को, इनकी पारम्परिक संस्कृति एवं धार्मिक विश्वासों को खण्डित करने का प्रयास किया था। किन्तु अंग्रेजों की नीति, मुगलों से पूरी तरह भिन्न थी। अंग्रेजों के छोटानागपुर में प्रवेश का उद्देश्य छोटानागपुर को पूरी तरह अपने अधिकार में करना था, यहाँ के राजा तथा यहाँ की जनता को येन-केन-प्रकारेण अपने पक्ष में तथा उड़ीसा के मराठों के विरुद्ध करना था। मराठे, ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा कलकत्ता में प्रेसीडेन्सी के लिए आतंक हो गए थे। छोटानागपुर के कुछ राजाओं के साथ तथा वन-प्रान्तों में फैली यहाँ की आदिम जातियों के साथ उड़ीसा के मराठों का सौहार्द विकसित हो चुका था। मराठे छोटानागपुर के जंगल-पहाड़ों के मार्ग से होते हुए बंगाल एवं कलकत्ता पर धावा बोलते थे और लूटपाट कर इसी रास्ते उड़ीसा पहुँच जाते थे। मराठों को यहाँ की जनता का सहयोग प्राप्त था। अत: मराठों के विरुद्ध मुख्य रूप से यहाँ की आदिम जातियों को अपने पक्ष में करना आवश्यक था। मराठों से सुरक्षा सुनिश्चित होने पर ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा उससे सम्बद्ध व्यापारियों को मध्य भारत एवं दक्षिण से व्यापार करने में छोटानागपुर से होकर सुगम मार्ग मिल जाता था। अंग्रेजों के इस उद्देश्य का पता अप्रैल, 1832 में हुई मीटिंग के मिनट से चलता है।

    अंग्रेजों द्वारा अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए अनेक प्रयास किए गए। पादरियों द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार तथा जन-जातियों का ईसाई धर्म में धर्मान्तरण भी एक ऐसा प्रयास था जो अंग्रेजों के पक्ष में जाता था। धर्म का भाईचारा एक ऐसा सम्बन्ध-सूत्र था जिसके द्वारा अंग्रेज सरकार इन भूमिपुत्रों से जुड़ सकती थी, जो मराठों के पक्ष में थे अर्थात् धर्मान्तरण के माध्यम से ईसाईयों की संख्या बढ़ा कर छोटानागपुर की मूल जनता के कुछ भाग को अपने पक्ष में किया जा सकता था। अंग्रेज अधिकारियों का विचार था कि यदि मिशनरी लोग आंशिक सफलता भी पाते हैं तथा आदिम जातियों के बीच घुलमिल कर उनकी भाषा तथा रीति-रिवाजों से प्रचलित हो जाते हैं तो मराठों को तोड़ने तथा छोटानागपुर पर प्रशासनिक पकड़ सुदृढ़ करने में अच्छी तरह सहायता मिल सकेगी। मिशनरियों ने उक्त दायित्व का कुछ सीमा तक निर्वाह भी किया। उन्होंने धर्म-प्रचार क्रम में मुण्डाओं के रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने, भूत-प्रेतों एवं डायनों के प्रति उनके अंधविश्वास को समाप्त करने तथा हड़िया से दूर रहने की आदत डालने का भी प्रयास किया। यद्यपि सरदारी लड़ाई के प्रश्न को लेकर सरकार एवं मिशनरियों में गहरी नोक-झोंक हुई थी और उनके धर्मान्तरित मुण्डा ईसाई धर्म त्याग कर पादरियों को धोखेबाज कहने लगे थे, जिनका बुरा प्रभाव ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार पर पड़ा था, तथा 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन एवं प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों तथा जर्मनों के बीच की शत्रुता का कुप्रभाव भी छोटानागपुर की मिशनरियों पर पड़ा था फिर भी इन मिशनरियों ने यहाँ की धरती में ईसाइयत का बीज इतनी गहराई से आरोपित कर दिया था कि बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से उन्हें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हो गई थी। ईसाइयों के प्रतिकार स्वरूप आर्य-समाजियों द्वारा चलाया गया शुद्धिकरण आन्दोलन तथा बिरसा धर्म का अभ्युदय भी तत्कालीन सरना मुण्डाओं की धार्मिक गतिविधियों को प्रभावित करने में सक्षम रहा। मुण्डा धर्म की संरचना और इस संरचना में होने वाली विकास (क्रांति या परिवर्तन जिसे समाजशास्त्रियों द्वारा विकास की भाषा दी जाती है) की दिशा आधुनिक काल के मुण्डा धर्म के इतिहास का मेरुदंड है। मुण्डा धर्म की संरचना एवं प्रकार्य के निर्धारण में जिन प्रमुख कारणों का उल्लेख किया जा सकता है उनमें धर्मगाथा, अवदानों एवं पारम्परिक गाथाओं के साथ-साथ रीति-रिवाज, संस्कार, संस्थाएँ, गोत्र, टोटम, पर्व एवं देवकुुल आदि की गणना की जा सकती है।

    मुण्डाओं के देवता:‒

    मुण्डा धर्म का इतिहास मुण्डाओं के देवताओं के आविर्भाव के इतिहास के साथ-साथ देवताओं के चरित्र एवं उनके धार्मिक महत्त्व के इतिहास तथा समय के अन्तराल के अनुसार उनके महत्त्व में गिरावट एवं क्रमश: ऊँचे स्तर पर स्थान ग्रहण करने के इतिहास से जुड़ा हुआ है। मिशनरियों के आगमन के उपरान्त मुण्डाओं के देवताओं के चरित्र एवं शक्ति पर गहरी चोट हुई है।

    मुण्डाओं के पर्व:‒

    मुण्डा जनजाति के धार्मिक विश्वासों एवं सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति, इनके पर्वों में स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। मुण्डा लोगों के अधिकांश पर्व वन एवं कृषि से सम्बन्धित हैं। अच्छी कृषि के लिए ईश्वर से प्रार्थना तथा फसल कट जाने के उपरान्त उसके प्रति आभार प्रदर्शन स्वरूप प्रकृति के आनन्दमय मनोरम पृष्ठभूमि में पर्वों का आयोजन लगभग वर्ष भर चलता रहता है। मुण्डा जाति जो प्रकृति के रम्य वातावरण में नृत्य एवं संगीत का भरपूर आनन्द उठाती है, स्वभाव से ही उल्लासपूर्ण जीवन जीने की आदी है। मुण्डा समाज में वर्ष भर पर्वों का जो अनवरत चक्र चलता रहता है उनमें प्रमुख पर्व निम्नलिखित हैं‒

    मागे

    फागु

    बा या सरहुल

    होन् बा

    बतौली

    करमा

    दसई

    कोलोम सिंडबोंगा

    जोमनामा

    सोहराई

    सौ-सौ बोंगा

    किली या गोत्र एवं टोटम:‒

    जिस प्रकार एक गोत्र के सदस्य किसी एक ऋषि की संतान माने जाते हैं, ठीक उसी प्रकार एक किली के मुण्डा किसी एक पूर्वज की संतान माने जाते हैं। समाज में एक किली के सदस्यों के बीच विवाह सम्बन्ध निषिद्ध है। छोटानागपुर का समस्त मुण्डा समाज छोटे-बड़े विभिन्न किली में विभक्त है। किली प्रथा के उद्भव पर ऐतिहासिक एवं धार्मिक दोनों दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। अनेक ऐसी किली हैं जो अपने उद्भव की किसी एक घटना या कहानी से जुड़ी हुई हैं, जहाँ उन्होंने किसी टोटम को अपनाया है।

    मुण्डा समाज में प्रचलित एक पारम्परिक गाथा के अनुसार इनके प्रथम पूर्वज लुटकुम हड़म एवं लुटकुम बुढ़ी थे। इनके पुत्र हेम्बो, हेम्बो से कुस और कुस से मोरिह पैदा हुए। मोरिह की मृत्यु के पश्चात् इनके नेता सेतो मुण्डा हुए जिन्होंने युद्ध में मिसौर के राजा सिसिरोम को मार भगाया। अन्त में अनेक वर्षों के पश्चात् रिसा मुण्डा का युद्ध रोहतासगढ़ में माधोदास के साथ हुआ‒जिसमें रिसा मुण्डा माधोदास से पराजित हुए और अपने देवता सिंडबोंगा से स्वप्न में निर्देश पाकर सोना लेकम दिसुम् (अर्थात् सुनहले देश की खोज) छोटानागपुर क्षेत्र में अपने इक्कीस हजार परिजनों के साथ स्थायी निवास के लिए सहरघटिया दर्रा पार करते हुए प्रविष्ट हुए। यहाँ पहुँच कर रिसा मुण्डा ने समस्त देश की व्यवस्था के लिए सुतिया मुण्डा को नियुक्त किया। सुतिया ने सात पूर्त्तियों के आधार पर समस्त देश को सात गढ़ों में विभक्त कर दिया और इक्कीस हजार परिजनों की विशाल आबादी को देखते हुए इनको इक्कीस परगनों में

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