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Pyaar Ke Indradhanush
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Ebook133 pages1 hour

Pyaar Ke Indradhanush

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उपन्यास ''प्यार के इन्द्रधनुष'' बहुत ही रोचक एवं सामाजिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जो प्रकाशित होने जा रहा है। इससे पूर्व इनके तीन उपन्यास हिन्दी साहित्य में बहुत ही च£चत रहे हैं - 'कौन दिलों की जाने!', 'पल जो यँू गुजरे', 'पूर्णता की चाहत'। लाजपत राय गर्ग विशेषरूप से उपन्यास की खाली होती जमीन को भरने का प्रयास कर रहे हैं और साहित्य जगत् में इनकी पैठ कायम हो रही है। लाजपत राय गर्ग हिन्दी उपन्यास साहित्य में बहुत तेजी से छा जाने वाला एक ऐसा नाम है

LanguageEnglish
Release dateSep 29, 2021
ISBN9789391186494
Pyaar Ke Indradhanush

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    Pyaar Ke Indradhanush - INDIA NETBOOKS indianetbooks

    लाजपतराय गर्ग

    हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा

    ‘विशेष साहित्य सेवी सम्मान’ तथा

    ‘बाल मुकुन्द गुप्त साहित्य सम्मान’ से विभूषित

    प्रतिष्ठित एवं वरिष्ठ साहित्यकार, समीक्षक एवं

    लघुकथा व लघुकविता के सशक्त हस्ताक्षर

    मेरे शिक्षा-गुरु परम आदरणीय

    प्रोपफेसर श्री रूप देवगुण जी को

    - लाजपत राय गर्ग

    ¬

    अपनी बात

    पूर्णावतार भगवान् श्री कृष्ण की क्रीड़ा-स्थली - वृन्दावन धाम जाने का प्रथम अवसर प्राप्त हुआ था दिसम्बर 1968 के शीतकालीन अवकाश के दौरान। हर जगह ‘राधे-राधे’ का जयघोष सुनकर मन रोमांचित हो उठा था। श्री बाँके बिहारी जी, श्री राधावल्लभ मन्दिरों व निधिवन, सेवाकँुज देखते तथा वहाँ की विशेषताएँ सुनते हुए राधा-कृष्ण के अलौकिक प्रेम को गहराई से समझने के लिए मन में जिज्ञासा उत्पÂ हुई थी। कालान्तर में श्रीमद् भागवत कथा श्रवण करने, पढ़ने तथा सत्संग के पफलस्वरूप राधारानी और श्री कृष्ण के अनूठे, अलौकिक एवं दिव्य प्रेम को जाना-समझा। भौतिक रूप में राधारानी से अलग होने तथा सांसारिक धर्म-निर्वहन हेतु विवाह करने के उपरान्त भी राधारानी द्वारकाधीश श्री कृष्ण के मन की अधिष्ठात्राी बनी रहीं और सदैव बनी रहेंगी। मन में ख्याल आया कि क्या ऐसा केवल आख्यानों में ही सम्भव है या यथार्थ में भी घटित हो सकता है। सम्भवतः यही विचार मन के किसी कोने में सक्रिय था जो प्रस्तुत कृति के प्रणयन के समय कार्यरत था।

    स्त्राी-पुरुष के सम्बन्धों के अनेक स्तर होते हैं - कहीं सम्बन्ध प्रेम से आरम्भ होता है तो कहीं सम्बन्ध बनने के पश्चात् प्रेम पनपता है। यह एक वास्तविकता है कि प्रेम व्यक्तित्व के किसी गुण विशेष के आकर्षण से भी अंकुरित हो सकता है। और ऐसा प्रेम उफध्र्वमुखी होकर प्रेमी-प्रेमिका को अनन्त उँफचाइयों तक ले जाता है। यह स्त्राी-पुरुष की वैयक्तिक मानसिक अवस्था पर निर्भर करता है कि उन्हें किस प्रकार का प्रेम काम्य है। आजकल प्रेम का एक स्तर ‘लिव-इन रिलेशन’ के रूप में प्रचलित हो रहा है, जो विशु( बाजारवादी सोच से संचालित होता है तथा मांसलता ही जिसका आधार होती है। ऐसी परिस्थितियों में इस उपन्यास की नायिका डाॅ. वृंदा वर्मा का मनमोहन के प्रति प्रेम इस अवधारणा का द्योतक है कि प्रेम प्रतिदान नहीं माँगता। वरिष्ठ कवयित्राी कमल कपूर का एक ताँका स्मरण हो रहा है-

    सिपर्फ प्रेम है

    हासिल-ए-जिन्दगी

    शेष सब तो

    जल-बुलबुले हैं

    आये और चले हैं।

    इस उपन्यास की लेखन-अवधि के दौरान प्रतिष्ठित कवि एवं समीक्षक श्री ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’, बालमुकुन्द गुप्त साहित्य सम्मान से विभूषित वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. राजकुमार निजात, हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा ‘आजीवन साहित्य साधना सम्मान’ से अलंकृत वरिष्ठ साहित्यकार एवं ¯चतक श्री माधव कौशिक, ‘महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान’ से विभूषित प्रतिष्ठित साहित्यकार डाॅ. मधुकांत तथा डाॅ. पान ¯सह, प्रतिष्ठित कवि व आलोचक एवं विभागाध्यक्ष, हिन्दी, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला, का इनके सक्रिय एव रचनात्मक सहयोग के लिए हृदय से आभारी हँू।

    अन्तिम किन्तु किसी भी सूरत में कम नहीं, हा£दक आभार एवं धन्यवाद फ्इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेडय् का जिनके प्रशंसनीय सहयोग से यह उपन्यास पुस्तकाकार ले पाया है।

    आत्मीय पाठक! यह उपन्यास आपको कैसा लगा? अवगत कराएंगे तो मुझे प्रसन्नता होगी।

    लाजपत राय गर्ग

    ––––––––

    मैं कुछ कहना चाहता हूँ.....

    प्रान्तीय सिविल स£वसेज से सेवानिवृत्त और साहित्य साधना में संलग्न हरियाणा से संबंध रखने वाले उपन्यासकार लाजपत राय गर्ग साहित्य और समाज के लिए उदाहरण हैं। इनका चैथा उपन्यास ‘‘प्यार के इन्द्रधनुष’’ बहुत ही रोचक एवं सामाजिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जो प्रकाशित होने जा रहा है। इससे पूर्व इनके तीन उपन्यास हिन्दी साहित्य में बहुत ही च£चत रहे हैं - ‘कौन दिलों की जाने!’, ‘पल जो यँू गुजरे’, ‘पूर्णता की चाहत’। लाजपत राय गर्ग विशेषरूप से उपन्यास की खाली होती जमीन को भरने का प्रयास कर रहे हैं और साहित्य जगत् में इनकी पैठ कायम हो रही है। लाजपत राय गर्ग हिन्दी उपन्यास साहित्य में बहुत तेजी से छा जाने वाला एक ऐसा नाम है, जिनके पाठकों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो एक रचनाकार के लिए हर्ष एवं मान-सम्मान का विषय है। असल में, रचना और रचनाकार की सार्थकता पाठकों पर निर्भर करती है, न कि पुरस्कारों पर। पाठकों की सराहना, आलोचकों की टिप्पणियाँ ही एक रचनाकार का वास्तविक पुरस्कार है, जो लाजपत राय गर्ग को बखूबी मिल रहा है। आलोचकों की टिप्पणियाँ, पाठकों की प्रशंसा एवं स्नेह रचनाकार को तब मिलता है, जब उसकी रचना समाज के लिए उपयोगी हो, जन-सामान्य के अनुरूप हो, जागरूकता एवं चेतना का साधन बनती हो, देश, समाज, परिवेश और जन का मार्ग प्रशस्त करती हो। यह स्नेह एवं प्रशंसा तब मिलती है, जब कोई रचना समय, समाज की परिस्थितियों, प्रवृत्तियों, मानव-मूल्यों एवं सन्दर्भों को उद्घाटित करती हो, सर्वसाधारण अपनी रुचि की अभिव्यक्ति उसमें पाता हो, उसकी संवेदना उससे जुड़ी हो। जब-जब कोई रचनाकार हमारी व्यष्टि को समष्टि में बदलने की संभावना रखता है, तब-तब साहित्य जन-साहित्य बन जाता है, तब ऐसा साहित्य पाठकों और आलोचकों के गले का हार बन जाता है।

    लाजपत राय गर्ग की इमेजरी बहुत ही अद्भुत है। वे अपने आसपास के सच को जिस तरह से बयान करते हैं और जिस तरह से जन-संवेदनाओं से जोड़ते हैं, पाठक अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। वे अपने कथाक्रम को अपने परिवेश, अपने समाज के बीच से उठाते हैं और अपने जीवनानुभव को इस प्रकार उसमें झोंकते हैं कि उनका जीवनानुभव उनका दर्शन बन जाता है। एक मौलिक दर्शन, जहाँ हम मानवीय भावों की नई एवं मौलिक परिभाषाएँ पाते हैं। उनके सृजन में उनके अन्दर का रचनाकार इस तरह डूब जाता है कि उन्हें स्वयं भी हैरत होती है कि क्या यह उनका ही लिखा हुआ साहित्य है, कथासूत्रा है? वे अपने पात्रों के प्रति बड़े सजग हैं। उनके भावों, भाषा, वेशभूषा, उनके मान-सम्मान, उनकी किसी हरकत को नजरअंदाज नहीं करते, बल्कि उसी तरह उभारते हैं जैसा कि वह हो सकता है, जिसमें पाठक या आलोचक को बनावटीपन या अलग-थलग कुछ नहीं लगता।

    लाजपत राय गर्ग के उपन्यासकार की यह बहुत बड़ी खासियत है कि वह कहीं भी यह महसूस नहीं होने देता कि यथार्थ के साथ कल्पना का कितना संयोग है। यह उनकी चतुराई है, एक कला है, अद्भुत शिल्प है। यह उनकी रचनाध£मता और जनध£मता है कि वे अपनी कथा में खो जाते हैं, जहाँ उनकी कल्पना यथार्थ में मूर्तमान हो जाती है। ऐसे स्थलों पर उनके बिम्ब और प्रतीक साकार हो उठते हैं। उनके पात्रा बोलने लगते हैं। पाठक को अपने पीछे लगा लेते है, जहाँ इनके पात्रों का व्यवहार, आचार-विचार पाठकों को आक£षत कर एक निश्चित प्रभाव डालता है। वे अपने पात्रों के माध्यम से घटनाक्रम का एक ऐसा संजाल बुनते हैं कि पाठक निकल ही नहीं

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