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कविता में भावों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम होता है 'शब्द'। तीसरा सप्तक की भूमिका में श्री अज्ञेय जी ने यह उल्लेख किया था कि'शब्द अपने आप में सम्पूर्ण या आत्यन्तिक नहीं है' 'प्रत्येक शब्द के अपने वाच्यार्थ अलग अलग लक्षणायें एवं व्यंजनायें होती हैµअलग अलग संस्कार और अलग अलग घ्वनियाँ भी। 'किसी शब्द का कोई स्वयंभूत अर्थ नहीं है। अर्थ उसे दिया गया है, वह संकेत है जिसमें अर्थ की प्रतिपत्ति की गयी है।' एकमात्र उपयुक्त शब्द की खोज करते समय हमें शब्दों की तदर्थता नहीं भूलनी होगीऋ वह एकमात्रा इसी अर्थ में है कि हमने ;प्रेक्षण को स्पष्ट, सम्यक और निभ्र्रम बनाने के लियेद्ध नियत कर दिया है, कि शब्द रुपी अमुक एक संकेत का एकमात्रा अभिप्रेत क्या होगा।'

 

 

 

'वर्णिका' वर्णों के प्रयोग से भावों को अभिव्यंजना देने का छोटा सा प्रयास है। जो काव्य मनीषियों एवं सुध्ी पाठकों को एतद्वारा समर्पित हैं। वर्णिका 2016 से 2017 के मध्य लिखी गई हैं।

कविता में भावों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम होता है 'शब्द'। तीसरा सप्तक की भूमिका में श्री अज्ञेय जी ने यह उल्लेख किया था कि'शब्द अपने आप में सम्पूर्ण या आत्यन्तिक नहीं है'

'यहाँ यह मान ले कि शब्द के प्रति यह नयी, और कह लीजिये मानवरूपी दृष्ब् िहै, क्योंकि जो व्यक्ति शब्द का व्यवहार करके शब्द से यह प्रार्थना कर सकता था कि अनजाने ही शब्द में बसे देवता के प्रति कोई अपराध् हो गया हो तो देवता क्षमा करें, वह इस निरुपण को स्वीकार नहीं कर सकताµनहीं मान सकता कि शब्द में बसने वाला देवता कोई दूसरा नहीं है, स्वयं मानव ही है जिसने उसका अर्थ निश्चित किया है यह ठीक है कि शब्द को जो संस्कार इतिहास की गति में मिल गये हैं, उन्हें मानव के दिये हुये कहना इस अर्थ में सही नहीं है कि उनमें मानव का संकल्प नहीं था। पिफर भी वे मानव द्वारा व्यवहार के प्रसंग में ही शब्द को मिले हैं और मानव से अलग अस्तित्व नहीं रख या पा सकते थे।

उन्होंने यह भी कहा कि 'भले ही एकमात्रा सही नाम वाली स्थापना को इस तरह मर्यादित करने का यह अर्थ नहीं है कि किसी भी शब्द का सर्वत्रा सर्वदा सभी के द्वारा ठीक एक ही रुप में व्यवहार होता हैµबल्कि यह तो तभी होता है जबकि वास्तव में एक चीज का एक ही नाम होता और काम भी एक ही होती। प्रत्येक शब्द को प्रत्येक समर्थ उपभोक्ता उसे नया संस्कार देता है। इसी के द्वारा पुराना शब्द नया होता हैµयही उसका कल्प होता है। इसी प्रकार शब्द वैयक्तिक प्रयोग भी होता है और प्रेक्षण का माध्यम भी बना रहता है, दुरुह भी होता है और बोध्गम्य भी, पुराना परिचित भी रहता है और स्पूर्तिप्रद अप्रत्याशित भी।

'गंुजन से शाब्दिका' तक शब्दों के प्रयोग को हमने भिन्न-भिन्न विषयवस्तु, भिन्न-भिन्न भाषा, भिन्न-भिन्न अर्थ एवं भिन्न-भिन्न शैलियों में भावों की अभिव्यक्ति का प्रयास किया है और जो भी सुझाव या आलोचना या प्रशंसा के शब्द मनीषियों से प्राप्त हुये वह विभूति की तरह सँभाले है मैंने और हर बार एक कदम और चलने का प्रयास किया है।

शब्दों के परिप्रेक्ष्य में उनके बीजों का महत्व भुलाया नहीं जा सकता। किसी भी भाषा के सीखने में वर्ण-परिचय पहला कदम होता है। 'जानसन' ने यह भी कहा है कि 'किसी भी शब्द में प्रत्येक वर्ण का अपना स्थान है किन्तु प्रथम एवं अन्तिम वर्ण अध्कि महत्वपूर्ण हो जाता क्योंकि वही शब्द की ध्वन्यात्मकता स्पष्ट करते है या यँू कहें कि अध्कि संप्रषेणीयता प्रदान करते है।'

वैदिक साहित्य में वर्ण बीजों को भिन्न-भिन्न मंत्रों के प्रतिपादन में प्रयोग किया जाता रहा है। तो इससे यह कहना उचित ही होगा कि शब्द तो महत्वपूर्ण है, पर जिन वर्णों से मिलकर कोई शब्द बनता है उन वर्णों के द्वारा ही भाव की वास्तविक संप्रेषणीयता प्राप्त होती है।

अतः भावों की अभिव्यक्ति के लिये शक्ति वर्ण ही प्रदान करते हैं जो शब्दों के रूप में संयुक्त होकर एवं भाषा का रूप गढ़ते हें। वर्ण एक संकेत है जो विभिन्न भाषाओं में भिन्न रूपों में लेखित होते है। वर्ण सर्वाध्कि महत्वपूर्ण हैं, और शायद इसीलिये उनको अक्षर भी कहना उचित होगा।

'वर्णिका' वर्णों के प्रयोग से भावों को अभिव्यंजना देने का छोटा सा प्रयास है। जो काव्य मनीषियों एवं सुध्ी पाठकों को एतद्वारा समर्पित हैं। वर्णिका 2016 से 2017 के मध्य लिखी गई हैं।

LanguageEnglish
Release dateOct 18, 2021
ISBN9788193414675
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    कविता में भावों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम होता है ‘शब्द’। तीसरा सप्तक की भूमिका में श्री अज्ञेय जी ने यह उल्लेख किया था कि‘शब्द अपने आप में सम्पूर्ण या आत्यन्तिक नहीं है’ ‘प्रत्येक शब्द के अपने वाच्यार्थ अलग अलग लक्षणायें एवं व्यंजनायें होती हैµअलग अलग संस्कार और अलग अलग घ्वनियाँ भी। ‘किसी शब्द का कोई स्वयंभूत अर्थ नहीं है। अर्थ उसे दिया गया है, वह संकेत है जिसमें अर्थ की प्रतिपत्ति की गयी है।’ एकमात्र उपयुक्त शब्द की खोज करते समय हमें शब्दों की तदर्थता नहीं भूलनी होगीऋ वह एकमात्रा इसी अर्थ में है कि हमने ;प्रेक्षण को स्पष्ट, सम्यक और निभ्र्रम बनाने के लियेद्ध नियत कर दिया है, कि शब्द रुपी अमुक एक संकेत का एकमात्रा अभिप्रेत क्या होगा।’

    ‘यहाँ यह मान ले कि शब्द के प्रति यह नयी, और कह लीजिये मानवरूपी दृष्ब् िहै, क्योंकि जो व्यक्ति शब्द का व्यवहार करके शब्द से यह प्रार्थना कर सकता था कि अनजाने ही शब्द में बसे देवता के प्रति कोई अपराध् हो गया हो तो देवता क्षमा करें, वह इस निरुपण को स्वीकार नहीं कर सकताµनहीं मान सकता कि शब्द में बसने वाला देवता कोई दूसरा नहीं है, स्वयं मानव ही है जिसने उसका अर्थ निश्चित किया है यह ठीक है कि शब्द को जो संस्कार इतिहास की गति में मिल गये हैं, उन्हें मानव के दिये हुये कहना इस अर्थ में सही नहीं है कि उनमें मानव का संकल्प नहीं था। पिफर भी वे मानव द्वारा व्यवहार के प्रसंग में ही शब्द को मिले हैं और मानव से अलग अस्तित्व नहीं रख या पा सकते थे।

    उन्होंने यह भी कहा कि ‘भले ही एकमात्रा सही नाम वाली स्थापना को इस तरह मर्यादित करने का यह अर्थ नहीं है कि किसी भी शब्द का सर्वत्रा सर्वदा सभी के द्वारा ठीक एक ही रुप में व्यवहार होता हैµबल्कि यह तो तभी होता है जबकि वास्तव में एक चीज का एक ही नाम होता और काम भी

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