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Atal Udgar
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Atal Udgar

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अटलजी 11 भाषाओं के जानकार और संसारभर के तमाम विषयों के मर्मज्ञ है। उनकी सराहना पंडित जवाहरलाल नेहरु से लेकर आज तक के सभी जन नायकों ने की है। इस पुस्तक में मूलतः अटलजी के आरंभिक भाषणों से लेकर प्रमुख भाषणों को प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। इसमें विभिन्न परिस्थितियों पर उनके कुल 72 भाषण हैं। इन भाषणों को प्रस्तुत करते समय यह ध्यान रखा गया है कि सभी प्रमुख मुद्दों पर उनके विचारों से पाठक अवगत हो सकें। अब तक अटलजी पर प्रकाशित किसी भी पुस्तक में एक साथ इतनी दुर्लभ सामग्री एक साथ नहीं मिलेगी।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 7, 2021
ISBN9788128822629
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    Book preview

    Atal Udgar - Rakesh Gupta

    1.

    जन-जन के प्रिय नेता

    संवेदनशील कवि अटल जी

    पूरी दुनिया को अध्यात्म् का संदेश देने वाले विश्वगुरु भारत के लोकतंत्र के सजग प्रहरी, ‘अनमोल रत्न’ ग्वालियर का गौरव, संवेदनशील कवि, श्रेष्ठ पत्रकार, प्रखर वक्ता, दलगत राजनीति से परे सर्वजन प्रिय अटल बिहारी वाजपेयी जी राजनीति की पटल पर एक ऐसे मसीहा हैं, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भी सम्मान से याद किया जाता है।

    प्रख्यात चिंतक अटल जी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को ग्वालियर में हुआ था। उनकी माता का नाम कृष्णा एवं पिता का नाम कृष्ण बिहारी वाजपेयी है। वाजपेयी जी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद के गुण विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे।

    बचपन से ही अटल जी की सार्वजनिक कार्यों में विशेष रुचि थी। उन दिनों ग्वालियर रियासत दोहरी गुलामी में थी। राजतंत्र के प्रति जनमानस में आक्रोश था। सत्ता के विरुद्ध आंदोलन चलते रहते थे। सन् 1942 में जब गांधी जी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया तो ग्वालियर भी अगस्त क्रांति की लपटों में आ गया। छात्र वर्ग आंदोलन की अगुवाई कर रहा था। अटल जी तो सबसे आगे ही रहते थे। पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी चूंकि सरकारी नौकरी में थे तो वे अटल जी को ऐसे कार्यक्रमों से दूर रहने की हिदायत देते थे, किन्तु देशप्रेम का जज़्बा उन्हें सदैव आगे बढ़ने को प्रेरित करता था। इस कार्य में उनकी बड़ी बहन का सहयोग उन्हें हमेशा मिलता रहा। ‘राष्ट्रधर्म’, ‘पांचजन्य’ और ‘वीर अर्जुन’ आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन करने के अलावा उन्होंने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के प्रचारक का दायित्व सफलतापूर्वक निभाया।

    अटल जी भारत के ऐसे प्रथम राजनेता थे, जिन्होंने संसद व संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा की वार्षिक बैठकों सहित कई सम्मेलनों में महत्त्वपूर्ण विषयों पर हिन्दी में भाषण देकर देश ही नहीं, अपितु राष्ट्रभाषा हिन्दी को भी गौरवान्वित किया। अटल जी ने संसद में अपना प्रथम भाषण हिन्दी में दिया। जिससे उनका राष्ट्रभाषा प्रेम स्वतः ही उजागर हो जाता है।

    तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष अनन्त शयनम आयंगर ने कहा था कि, ‘अटल जी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ वक्ता हैं। वे बहुत कम बोलते हैं, परन्तु जो बोलते हैं वह हृदयस्पर्शी होता है। अन्तर को छूने वाला होता है।’

    बहुत कम लोग हुए हैं भारतीय राजनीति में, जिन्हें जनसभा हो या लोकसभा हर जगह पिनड्रॉप साइलेंस यानी निःशब्द होकर सुना जाए, अटल बिहारी वाजपेयी उन गिनती के लोगों में शुमार होते हैं। प्रधानमंत्री के पद पर रहे हों या नेता प्रतिपक्ष, बेशक देश की बात हो या क्रान्तिकारियों की या फिर उनकी अपनी ही कविताओं की, नपी-तुली और बेबाक टिप्पणी करने में अटल जी कभी नहीं चूके। देशहित में विपक्ष द्वारा किये गये कार्यों की भी निश्छल भाव से तारीफ करते थे। उनकी दूरदृष्टि के सभी कायल हैं। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व- लालबहादुर शास्त्री जी द्वारा दिया नारा ‘जय जवान, जय किसान’ के आगे एक शब्द ‘जय विज्ञान’ और जोड़कर राजनीतिक श्रेष्ठता का अि?श्7कतीय उदाहरण दिया। ‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान’ की भावना से ओतप्रोत अटल जी की दूरदर्शिता का ही परिणाम है, वैज्ञानिक ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को भारत के राष्ट्रपति पद के सम्मान से सम्मानित करना।

    अपने प्रधानमंत्री काल में दलगत राजनीति से परे, जिन विशिष्ट नेताओं एवं सामाजिक कार्यकर्त्ताओं से अटल जी की व्यक्तिगत घनिष्ठता रही, उनमें नरसिम्हा राव, ज्योति बसु, सोमनाथ चटर्जी, इन्द्रकुमार गुजराल, करुणानिधि, शरद पवार के नाम प्रमुख हैं। नरसिम्हा राव उनके गुणों से सदैव प्रभावित थे, उन्होंने 1993 के जेनेवा में हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के बेहद महत्त्वपूर्ण सम्मेलन में उस समय के नेता विपक्ष अटल जी को भारतीय प्रतिनिधिमंडल का अध्यक्ष नियुक्त कर भारतीय लोकतंत्र में एक स्वस्थ परम्परा का आरम्भ किया था। श्री अटल बिहारी वाजपेयी 16-31 मई, 1996 और दूसरी बार 19 मार्च, 1998-13 मई, 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। अटल जी 11वीं लोकसभा में लखनऊ से सांसद के रूप में विजयी हुए और भारतीय लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बने। राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें 16 मई, 1996 को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई, किंतु उन्होंने विपरीत परिस्थितियों के कारण 28 मई, 1996 को स्वयं त्यागपत्र दे दिया। सन् 1998 के चुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। चुनावों के पूर्व उसने देश की अन्य कई पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़े थे। भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को राष्ट्रपति महोदय ने सरकार बनाने के लिए उपयुक्त पाया और अटल जी को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। अटल जी ने 19 मार्च, 1998 को दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और इस सरकार ने अपना पांच वर्षों का कार्यकाल पूरा किया।

    अटल जी के संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियां, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेल-जीवन आदि अनेकों आयामों को उनकी कविता में देखा जा सकता है।

    इमरजेंसी के दौरान तबीयत खराब होने पर बेंगलूर जेल से लाकर अटल जी को ऑल इण्डिया इंस्टीट्यूट में दूसरी या तीसरी मंजिल पर रखा गया था। जहां रोज सुबह रोने की आवाज उनको विचलित कर देती। अपनी उसी वेदना को कवि अटल जी ने इस तरह व्यक्त किया।

    दूर कहीं कोई रोता है,

    तन पर कंपन भटक रहा मन,

    साथी है केवल सूनापन,

    बिछुड़ गया क्या स्वजन किसी का,

    क्रंदन सदा करुण होता है।

    इमरजेंसी का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उस वक्त स्वतंत्रता का अपहरण हुआ था। इमरजेंसी के एक वर्ष बाद अपनी भावनाओं को निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया।

    एक बरस बीत गया,

    झुलसाता जेठ मास,

    शरद चांदनी उदास,

    सिसकी भरते सावन का,

    अंतर्घट रीत गया,

    एक बरस बीत गया।

    इमरजेंसी के बाद जनता ने ‘जनता पार्टी’ पर विश्वास किया था। जयप्रकाश जी के नेतृत्व में राजघाट पर शपथ ली गई थी कि सब मिलकर साथ चलेंगे और देशहित के लिये मिलकर कार्य करेंगे, किन्तु वो शपथ पूरी न हो सकी। ‘जनता पार्टी’ टूट गई, अपनी इसी विरह वेदना को कवि अटल जी ने इस तरह अभिव्यक्त किया।

    क्षमा करो बापू! तुम हमको,

    वचन भंग के हम अपराधी,

    राजघाट को किया अपावन,

    मंजिल भूले, यात्रा आधी।

    जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,

    टूटे सपनों को जोड़ेंगे।

    चिताभस्म की चिंगारी से,

    अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।

    जिंदगी के शोर और राजनीति की आपाधापी में शब्दों के रंगों से रंगी कवि अटल जी की कविताएं सभी संवेदनशील इंसानों की कविताएं हैं।

    हार नहीं मानूंगा

    रार नई ठानूंगा

    काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं

    गीत नया गाता हूं---

    ये महज कविता की पंक्तियां नहीं, बल्कि एक ऐसे जीवट आदमी की जीवन गाथा को व्यक्त करती है जिसने भारतीय राजनीति के फलक पर ऐसी इबारतें लिख दी, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। भारतीय राजनीति क्या, विश्व राजनीति में भी अगर कोई एक नाम बिना किसी विवाद के कभी लिया जाएगा तो वह नाम होगा अटल बिहारी वाजपेयी जी का। यह एक ऐसा नाम है, जिसके पीछे काम तो कई जुड़े हुए हैं, पर विवाद शून्य हैं।

    प्रखर राष्ट्रवादी भारतमाता के सपूत पं. अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्म दिवस ‘25 दिसंबर’ को भारतीय जनता पार्टी ने ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

    अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे ही इकलौते विनम्र राजनीतिज्ञ हैं, क्योंकि उनके जीवन का मूल-मंत्र है:-

    मेरे प्रभु!

    मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना

    गैरों को गले न लगा सकूं,

    इतनी रुखाई

    कभी मत देना।

    ‘भारत को लेकर अटल जी का दृष्टिकोण- ‘ऐसा भारत जो भूख, भय, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो।’

    ऐसे ही खुशहाल भारत बनाने की शपथ लेकर, अभिमान, स्वाभिमान और स्नेहशील ‘सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम्’ के प्रतिरूप अटल बिहारी वाजपेयी जी के जन्मदिन पर उनका वंदन एवं अभिनंदन करते हैं तथा ईश्वर से उनके शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना करते हैं।

    2.

    21 फरवरी, 1958 को दो कटौती प्रस्तावों

    पर बहस के दौरान अटल जी का भाषण

    संवाद कौशल एवं अपनी भाषण कला के लिए अटल जी विख्यात हैं एवं श्रोताओं में अति लोकप्रिय हैं। विषयों का गहन विवेचन या प्रतिपादन, जैसी सर्वजन-सुलभ सरल शब्दावली में करके अर्थशास्त्र से अनभिज्ञ श्रोताओं को भी वे सारी बात जितनी अच्छी तरह से समझा देते हैं, वह योग्यता अर्थशास्त्र के पंडितों के लिए भी कठिन है। सहज भाषा के बावजूद अपने कथ्य को कितने स्पष्ट रूप से अटल जी समझाते हैं, यह संसद में विदेश मंत्रालय की पूरक अनुदान मांगों के अवसर पर लोकसभा में 21 फरवरी, 1958 को दो कटौती प्रस्तावों पर बहस के दौरान उनके भाषण से स्पष्ट होता है। प्रस्तुत उदाहरण में श्री वाजपेयी विदेशों से आने वाले मेहमानों के सत्कार पर व्यय होने वाली राशि और तौर-तरीके के संबंध में, संसद में चर्चा में भाग ले रहे हैं।

    अटल जी कहते हैं- ‘मैं यह जानना चाहता हूं क्या यह आवश्यक है कि दिल्ली की नगरपालिका प्रत्येक विदेशी मेहमान को मानपत्र भेंट देकर ही स्वागत करें? जब भी कोई मेहमान आते हैं, हम उनका स्वागत करें, यह स्वाभाविक है। अतिथि-सत्कार की हमारी पुरानी परम्परा है।’

    परिवहन तथा संचार राज्य मंत्री- ‘स्वाभाविक ही नहीं, बल्कि आवश्यक भी है।’

    श्री वाजपेयी- ‘आवश्यकता से स्वभाव अधिक बलवान होता है। जो स्वाभाविक चीज होती है वह स्वभाववश अपने आप अन्दर से आ जाती है और प्रकट हो जाती है, जबकि आवश्यकता में एक बाहर से लाने की भावना प्रकट होती है। अपने मेहमानों का स्वागत करना यह हम भारतीयों के स्वभाव में है।’

    श्री दी.चं. शर्मा- ‘आप उसको अपोज कर रहे हैं।’

    श्री वाजपेयी- ‘मैं उसको अपोज नहीं कर रहा हूं। जरा ध्यान से सुनिये। मैं यह निवेदन कर रहा हूं कि स्वागत का हमारा एक स्तर होना चाहिए। जो हमारी आज की स्थिति और पुरानी परम्पराओं के अनुकूल हो। दिल्ली नगरपालिका मानपत्र भेंट करें और उसी से स्वागत हो या दिल्ली दरवाजे पर बिजलियां जगमगाकर और आसफ अली पार्क के एक-एक पत्ते पर एक-एक लट्टू लगाकर अगर हम समझते हैं कि स्वागत-सत्कार का हमारा कर्त्तव्य पूरा हो गया तो यह ठीक नहीं है और मैं उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हूं। आज का हमारा स्वागत भी, पंचवर्षीय योजना की सफलता के लिए हम देश में त्याग और बलिदान का जो वातावरण उत्पन्न करना चाहते हैं, उसके अनुकूल होना चाहिए। अगर उससे शान और शौकत टपकती है और आम आदमी को ऐसा अनुभव होता है कि इन स्वागतों के बिना भी हम अपने अतिथि के प्रति प्रेम प्रकट कर सकते हैं, तो मैं समझता हूं कि इन स्वागतों के ढांचे में और तौर-तरीकों में कुछ परिवर्तन होना चाहिए।’

    3.

    1 मार्च, 1963 को राज्यसभा में डॉ. राजेन्द्र

    प्रसाद के निधन पर श्रद्धांजलि देते हुए

    डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के निधन पर श्री वाजपेयी ने डॉ. प्रसाद के प्रति जिस भाषा में श्रद्धांजलि अर्पित की, वह अपने में अनूठी थी। उनके श्रद्धांजलि भाषण का एक अंश नीचे दिया जा रहा है-

    ‘चिंतन-मनन् में, भाव में, भाषा में, खान-पान में, चाल-ढाल में, रूप-रंग में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत की सनातन संस्कृति के नित्य नूतन प्रतिनिधि थे। विद्वता के साथ विनय, शासन के साथ सौजन्य, वज्र के समान कठोर, किन्तु कुसुम के समान मृदुल उनका जीवन भावी संतति के लिए सदैव प्रेरणा देता रहेगा।’

    4.

    27 मई, 1964 को प्रधानमंत्री

    पं. जवाहरलाल नेहरू को श्रद्धांजलि देते हुए

    राज्यसभा में पं. नेहरू को श्रद्धांजलि अर्पित करने वालों में अटल जी भी थे। इस अवसर पर उन्होंने जो उद्गार व्यक्त किया, वह राज्यसभा के रिकॉर्ड में स्वर्णांकित हो चुका है-

    ‘एक सपना था, जो अधूरा रह गया। एक गीत था, जो गूंगा हो गया। एक लौ थी, जो अनंत में विलीन हो गयी। सपना था एक संसार का, जिसमें गीता की गूंज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की, जो रात-भर जलता रहा, हर अंधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।

    मृत्यु ध्रुव है, शरीर नश्वर है। कल, कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ाकर आये, उसका नाश निश्चित था, लेकिन क्या वह ज़रूरी था कि मौत इतने चोरी-छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे, हमारे जीवन की अमूल्य निधि लुट गयी।

    भारतमाता आज शोकमग्न है, उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता आज खिन्नवदना है, उसका पुजारी आज सो गया। शांति आज अशांत है, उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन-जन की आंख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अंतर्धान हो गया।’

    5.

    29 जून, 1977 को लोकसभा में विदेश

    नीति को स्पष्ट करते हुए विदेश मंत्री के रूप में भाषण

    अटल जी विदेशों में जहां भी गए, अपनी बात पर अटल रहे और विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने खूब यात्राएं कीं। भारत के अभी तक हुए विदेश मंत्रियों में उन्हें शीर्ष स्थान प्राप्त है। अपनी विदेश नीति को स्पष्ट करते हुए लोकसभा में उन्होंने 29 जून, 1977 को अपने प्रथम भाषण में ये शब्द कहे थे :-

    ‘इस अवसर पर जब कि मैं विदेश नीति पर पहली बार बोल रहा हूं, मैं भारत माता के लाखों पुत्रों और पुत्रियों को शुभकामना संदेश भेजता हूं, जो विश्व के विभिन्न भागों में वहां की सरकारों के अधीन या व्यक्तिगत नागरिक के रूप में काम कर रहे हैं या रह रहे हैं। इनमें हर एक अपने-अपने ढंग से भारत का दूत है और हमारी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक है। उन्होंने भले ही विदेश जाकर रहने या रोजी कमाने का रास्ता चुना हो, उन्हें हम कभी भी पराया नहीं समझेंगे और न मातृभूमि की संस्कृति और धर्म के प्रति उनकी निष्ठा को स्वीकार करने में कभी संकोच करेंगे। वे जहां कहीं भी हैं, भारत की विरासत को लेकर चल रहे हैं, यद्यपि उन्हें हम यह अवश्य सलाह देंगे कि वे अपने पूर्वजों के देश की सहिष्णुता और समन्वय की परंपरा के योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध हों। उनका अपना हित इस बात में है और भारत की प्रतिष्ठा के अनुकूल भी यही होगा कि जब वे अपने लाभ के लिए भी काम करें तो जिस देश में वे निवास करते हैं, उसके उदात्त हितों के साथ अपने को एक रूप, एकरस बनाएं और जैसा कि जरूरी है उस देश के कानूनों का पालन करें।’

    6.

    4 अक्टूबर, 1977 में संयुक्त राष्ट्र

    संघ में पहली बार हिन्दी में भाषण

    अटल जी न्यूयॉर्क में 1977 में भारत के विदेश मंत्री थे, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सभा में पहली बार हिन्दी में भाषण देकर सबको आश्चर्य में डाल दिया था। उस समय पूरा विदेश मंत्रालय इस पक्ष में था कि विदेश में हिन्दी में भाषण नहीं दिया जाना चाहिए। उनके व्याख्यान के बाद 12 देशों के राजनयिक उनके कक्ष में पहुंचे और उन्होंने कहा कि आपने जो कहा तो ऐसा लग रहा था कि भारत की जनता और भारत की संस्कृति बोल रही है। उन्होंने अपने भाषण में कहा-

    ‘अध्यक्ष महोदय, प्रतिनिधिगण,

    भारतवर्ष में हाल ही में एक ऐतिहासिक और अहिंसात्मक क्रांति हुई है। गत मार्च में हुए चुनावों में भारतीय जनता ने मानव की दुर्दम्य आत्मशक्ति का परिचय दिया और एक स्वतंत्र और उन्मुक्त समाज में अपनी आस्था की पुष्टि की। उन्होंने लोकतंत्र को नष्ट करने के तामसी तथा निरंकुश शक्तियों के धूर्ततापूर्ण प्रयत्नों को निर्णायक रूप से पराजित कर दिया। हमारे देश की 60 करोड़ जनता के लिए मार्च की यह क्रांति स्पष्ट तथा दूरगामी महत्त्व रखती है, साथ ही समस्त संसार के स्वतंत्रता प्रेमी लोगों के लिए भी यह उतनी ही महत्त्वपूर्ण है।

    हमारी जनता ने निर्भीक होकर उन मूल सिद्धांतों, जीवनमूल्यों तथा आकांक्षाओं को परिपुष्ट किया, जिन पर लगभग 30 वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की आधारशिला रखी गई थी। भारत के लोगों ने अपनी खोई हुई स्वतंत्रता और मूलभूत मानव अधिकार पुनः प्राप्त कर लिए हैं। मैं भारत की जनता की ओर से राष्ट्र संघ के लिए शुभकामनाओं का संदेश लाया हूं। महासभा के 32वें अधिवेशन के अवसर पर मैं राष्ट्र संघ में भारत की जड़ आस्था को पुनः व्यक्त करना चाहता हूं। जनता सरकार की बागडोर संभाले केवल छः महीने हुए हैं, फिर भी इतने अल्प समय में हमारी उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं। भारत में मूलभूत मानवाधिकार पुनः प्रतिष्ठित हो गए हैं। जिस भय और आतंक के वातावरण ने हमारे लोगों को घेर लिया था, वह अब दूर हो गया है। ऐसे संवैधानिक कदम उठाए जा रहे हैं, जिनसे यह सुनिश्चित हो जाए कि लोकतंत्र और बुनियादी आजादी का अब फिर कभी हनन नहीं होगा।

    अध्यक्ष महोदय, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की परिकल्पना बहुत पुरानी है। भारत में सदा से हमारा इस धारणा में विश्वास रहा है कि सारा संसार एक परिवार है। अनेकानेक प्रयत्नों और कष्टों के बाद संयुक्त राष्ट्र के रूप में इस स्वप्न के साकार होने की संभावना है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता लगभग विश्वव्यापी हो गई है और वह 400 करोड़ लोगों का, जो विभिन्न जातियों, रंगों और समुदायों के हैं, प्रतिनिधित्व करता है। फिर भी आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र संघ केवल सरकारी प्रतिनिधिमंडलों का मिलन मंच मात्र न रहे। हमें इस लक्ष्य को ध्यान में रखना चाहिए कि किस प्रकार राष्ट्रों की यह महासभा मानवता के सामूहिक विवेक और इच्छा शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाली मानव की संसद का रूप ले सकें।

    हमारी सदा से मान्यता रही है कि ईश्वर के अनेक रूप हो सकते हैं। हर भारतवासी को, भले ही वह कहीं जन्मा हो या कोई आस्था रखता है, अपने उद्धार और मुक्ति का मार्ग ढूंढ़ने की स्वतंत्रता रही है। साथ ही हमारे मनीषियों ने वैदिक युग से लेकर अब तक सदा ही हमें अपनी वाणी से मानवों के प्रति करुणा और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया है। गांधी जी ने इस तत्त्व का सार अपने प्रिय शब्द ‘अंत्योदय’ में व्यक्त किया है। अंत्योदय का अभिप्राय है : निम्नतम और निर्धनतम वर्गों के हितों की रक्षा और कल्याण, जिसके लिए प्रत्येक समाज को सन्नद्ध रहना चाहिए।

    मेरा विश्वास है कि हमारी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में निरंतर सर्वोच्च स्थान मनुष्य, उसके सुख और कल्याण तथा मानव की आधारभूत एकता को मिलना चाहिए। मेरा अभिप्राय किसी आकृतिविहीन मानव से नहीं है, जो अतीत काल से निरंकुशता को थोपने का बहाना रहा है, मेरा मतलब जीते-जागते मानव से है। उसकी संवेदनाएं और अपेक्षाएं, उसका सुख और दुःख हमारे प्रयासों का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए। सदा से ही हमारी धार्मिक और दार्शनिक विचारधारा का केन्द्र बिन्दु व्यक्ति रहा है। हमारे धर्मग्रंथों और महाकाव्यों में सदैव यह संदेश निहित रहा है कि समस्त ब्रह्माण्ड और सृष्टि का मूल-व्यक्ति और उसका संपूर्ण विकास है।

    जब भारत ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्राम छेड़ा, तब से विश्व एक लंबा रास्ता तय कर चुका है। एक एशियाई देश होने के नाते हमने वियतनाम के बहादुर लोगों द्वारा स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान झेले गए अपार कष्टों और अनगिनत बलिदानों को बड़ी संवेदना के साथ देखा। उनकी अंततः सफलता मानव की आत्मशक्ति की ज्वलंत परिचायक तथा दासता के विरुद्ध अदम्य प्रतिरोध के प्रति श्रद्धांजलि है।

    भारत ने सदा ही राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अनावश्यक रक्तपात और हिंसा का विरोध किया है। हम अहिंसा में आस्था रखते हैं और चाहते हैं कि विश्व के संघर्षों का समाधान शांति और समझौते के मार्ग से हो। पराधीनता के अंधकार पूर्णकाल में भी भारत कतिपय आधारभूत सिद्धांतों पर दृढ़ था। वे सिद्धांत थे-औपनिवेशिक दमन का तीव्र विरोध और रंगभेद के प्रत्येक रूप तथा मानव अधिकारों के प्रत्येक हनन की पूर्ण अस्वीकृति। इन सिद्धांतों के प्रति स्वतंत्र भारत की श्रद्धा आज और भी गहरी हो गई है।

    यहां मैं राष्ट्रों की सत्ता और महत्ता के बारे में नहीं सोच रहा हूं। आम आदमी की प्रतिष्ठा और प्रगति मेरे लिए कहीं अधिक महत्त्व रखती है। अंततः हमारी सफलताएं और असफलताएं केवल एक ही मापदंड से मापी जानी चाहिए कि क्या हम पूरे मानव समाज, वस्तुतः हर नर, नारी और बालक के लिए न्याय और गरिमा की आश्वस्ति देने में प्रयत्नशील हैं। अफ्रीका में चुनौती स्पष्ट है, प्रश्न ये है कि किसी जनता को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ रहने का अनन्यपरायण अधिकार है या रंगभेद में विश्वास रखने वाला अल्पमत और किसी विशाल बहुमत पर हमेशा अन्याय और दमन करता रहेगा। निःसंदेह रंगभेद के सभी रूपों का उन्मूलन होना चाहिए। हाल में इजराइल ने वेस्ट बैंक को गाजा में नई बस्तियां बसाकर अधिकृत क्षेत्रों में जनसंख्या परिवर्तन करने का जो प्रयत्न किया है, संयुक्त राष्ट्र को उसे पूरी तरह अस्वीकार और रद्द कर देना चाहिए। यदि इन समस्याओं का संतोषजनक और शीघ्र ही समाधान नहीं होता तो इसके दुष्परिणाम इस क्षेत्र के बाहर भी फैल सकते हैं। यह अति आवश्यक है कि जेनेवा सम्मेलन का शीघ्र ही पुनः आयोजन किया जाए और उसमें पीएलओ को प्रतिनिधित्व दिया जाए।

    अध्यक्ष महोदय, भारत सब देशों से मैत्री चाहता है और किसी पर प्रभुत्व स्थापित नहीं करना चाहता। भारत न तो आणविक शस्त्र शक्ति है और न बनना चाहता है। नई सरकार ने अपने असंदिग्ध शब्दों में इस बात की पुनर्घोषणा की है। हमारी कार्यसूची का एक सर्वस्पर्शी विषय, जो आगामी अनेक वर्षों और दशकों में बना रहेगा-वह है मानव का भविष्य। मैं भारत की ओर से इस महासभा को आश्वासन देना चाहता हूं कि हम एक विश्व के आदर्शों की प्राप्ति और मानव के कल्याण तथा उसके गौरव के लिए त्याग और बलिदान की बेला में कभी पीछे नहीं रहेंगे।’

    जय जगत!

    7.

    26 जुलाई, 1977 को लोकसभा

    में अपनी नेपाल यात्रा पर अटल जी का भाषण

    इस भाषण का एक अंश अभिलेखों के आधार पर यहां प्रस्तुत है, जो स्पष्ट करता है कि श्री वाजपेयी की नेपाल यात्रा बहुत सफल हुई।

    ‘नेपाल के विदेश मंत्री जी के साथ हुई बातचीत तथा नेपाल की सरकार के वाणिज्य और उद्योग मंत्री के साथ अलग से हुई एक बैठक में भारत और नेपाल के बीच नयी संधि का प्रश्न भी विचार-विमर्श के लिए उठा था, जो कि अगस्त 1976 से स्थगित था। व्यापार और पारगमन के संबंध में जब तक एक नया करार नहीं हो जाता, तब तक के लिए उसी व्यापार एवं पारगमन संधि की व्यवस्था को जारी रखा गया, जो अगस्त 1976 में समाप्त हो गयी थी। हमारा अनुभव यह बताता है कि अपना व्यापार बढ़ाने अथवा अपने माल के लिए नयी मंडियां खोजने की दिशा में यह संधि नेपाल की महत्त्वाकांक्षा में आड़े नहीं आयी है।’

    8.

    1980 मुंबई में भारतीय जनता पार्टी के पहले

    अधिवेशन के दौरान दिया गया अटल जी का भाषण

    दिसंबर 1980 में भारतीय जनता पार्टी का पहला अधिवेशन मुंबई में हुआ। जिसकी अध्यक्षता करते हुए अटल जी ने इसके धर्मनिरपेक्षता स्वरूप पर प्रकाश डाला। इसी अधिवेशन में भारतीय जनता पार्टी ने ‘कमल’ को अपना चुनाव चिन्ह घोषित किया ।

    ‘अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा’

    भारतीय जनता पार्टी का प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन है, मुझे निर्विरोध इस अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया है, इसके लिए भी मैं सबका आभारी हूं। परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है कि मुझे जिम्मेदारी को निभाने की शक्ति और विवेक दे। भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष पद ये अलंकार की वस्तु नहीं है, ये पद नहीं दायित्व है, प्रतिष्ठा नहीं परीक्षण है, ये सम्मान नहीं चुनौती है। मुझे भरोसा है कि आपके सहयोग से देश की जनता के समर्थन से, मैं जिम्मेदारी को ठीक तरह से निभा सकूंगा, जिन परिस्थितियों में भारतीय जनता पार्टी का निर्माण हुआ, मैं उनमें जाना नहीं चाहता। देश की राजनीति को अगर नैतिक मूल्यों पर चलाने का संकल्प अगर किसी ने किया है और जो लोग उस संकल्प को कार्य में परिणित करने की शक्ति रखते हैं, वो भारतीय जनता पार्टी मंच पर इकट्ठा हो गए हैं। भारतीय जनता पार्टी जयप्रकाश के सपनों को पूरा करने के लिए बनी है, जनता पार्टी टूट गयी, मगर हम जयप्रकाश के सपनों को टूटने नहीं देंगे। जयप्रकाश किसी व्यक्ति का नाम नहीं है, जयप्रकाश आदर्शों का नाम है, मूल्यों का नाम है। जयप्रकाश जी का पूरा जीवन, उनकी साधना, उनके संघर्ष मूल्यों के साथ उनकी प्रतिभा है, ये हमारी विरासत के अंग हैं। मैंने जयप्रकाश जी के अधूरे कामों को पूरा करने का प्रयत्न किया, मैंने आपसे निवेदन किया कि हम राजनीति को कुछ मूल्यों पर आधारित करना चाहते हैं। राजनीति केवल कुर्सी का खेल नहीं रहना चाहिए, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से कपास पैदा करने वाले किसान परेशान हैं, मगर कपड़े की कीमत तीन गुना बढ़ी है, दूध का दाम सरकार ने ऐसा तय किया है, जो पैदावार की लागत से भी कम है। सरकार दाम तय करती है, मगर खरीदने का इंतजाम नहीं करती। छोटे किसान को जल्दी बेचना पड़ता है, वो घर में रख नहीं सकता, इसलिए औने-पौने दामों पर बेचता है। शोषण का शिकार होता है, इसलिए किसान बिगड़ रहे हैं। केवल महाराष्ट्र में नहीं नासिक में, गुजरात में, आन्ध्र में, मध्य प्रदेश में न्याय पाने के लिए लड़ रहे हैं। मैं सरकार को चेतावनी देना चाहता हूं-दमन के तरीके छोड़ दीजिए, डराने की कोशिश मत कीजिए। किसान डरने वाला नहीं है। हम किसानों के आन्दोलन का दलीय राजनीति के लिए उपयोग करना नहीं चाहते, लेकिन हम किसानों की उचित मांग का समर्थन करते हैं और अगर सरकार दमन करेगी, कानून का दुरुपयोग करेगी, शांतिपूर्ण आन्दोलन को दबाने की कोशिश करेगी तो किसानों के संघर्ष में कूदने में हम संकोच नहीं करेंगे। हम उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़े रहेंगे। भारतीय जनता पार्टी मुठभेड़ की राजनीति नहीं चाहती, पॉलिटिक्स ऑफ कम्पीटिशन अगर मुठभेड़ हमारे ऊपर थोप दी गयी तो हम कतराएंगे नहीं। चुनाव हुए, श्रीमती इंदिरा गांधी को लोकसभा और विधानसभा में बहुमत मिला, लेकिन अल्पमत के आधार पर मिला है, लेकिन हमारे चुनाव की प्रणाली ऐसी है वोट कम सीटें ज्यादा, भारतीय जनता पार्टी को भी इसका फ़ायदा हुआ, मगर भारतीय जनता पार्टी अपनी सीमाएं समझती थी।

    पूंजीवाद और मार्क्सवाद को अस्वीकार करते हैं। सचमुच में ये दोनों जुड़वां भाई हैं, एक भाई समानता को समाप्त करता है, दूसरा स्वतंत्रता को, मगर दोनों केन्द्रीकरण को बढ़ावा देते हैं। परिस्थिति को हमें बदलना पड़ेगा। अखबारों में खबर आ रही है, मगर उनमें कोई सच्चाई नहीं है। भारतीय जनता पार्टी में गांधीवादी समाजवाद को लेकर कोई मतभेद नहीं है, हमारी लोकतांत्रिक पार्टी है। हम आंख मूंदकर कोई बात स्वीकार नहीं करते, बहस करते हैं, अपना मत प्रकट करते हैं और जो बहुमत का फैसला होता है, उसको स्वीकार करते हैं।

    मैंने गांधीवादी समाजवाद को एक निष्ठा के रूप में स्वीकार किया, इसके आधार पर हम भावी भारत का निर्माण करना चाहते हैं। जो राष्ट्रपति की पद्धति लाना चाहते हैं, उनकी लोकतंत्र में निष्ठा नहीं है। उनके इरादे कुछ और हैं, जीवन भर राष्ट्रपति बनाने की बात करते हैं। हमें उनसे सावधान रहना है, इस साजिश का भंडाफोड़ करना है। हमें उनके प्रयत्नों को कामयाब नहीं होने देना है। हमें देश में कानून का राज रखना है। जंगल का कानून देश में चले हम इस बात की इजाज़त नहीं दे सकते। मैं कहता हूं कि देश तकदीर के तिराहे पर खड़ा है, हमारे सामने जो संकट है हम उसको समझ लें। सवाल केवल नए प्रधानमंत्री को लाने का नहीं है, सवाल केवल सरकार को बदलने का भी नहीं है, नारे लगते हैं कि प्रधानमंत्री कौन होगा?

    मैंने सवेरे भी इसका उल्लेख किया था, ऐसे नारे नहीं लगने चाहिए। जिस दिन इंदिरा गांधी दोबारा प्रधानमंत्री हो गयीं- अट्ठारह महीने में ब्याज उतर जायेगा-। एक व्यक्ति का चढ़ता हुआ जादू इस देश के संकट को नहीं उबार सकता, एक पार्टी का चढ़ता हुआ प्रभाव हमारे बुनियादी प्रश्नों को हल नहीं कर सकता। किसी सरकार का लहूलुहान दबदबा हमें वर्तमान मुसीबतों से नहीं निकाल सकता है। सवाल केवल व्यक्ति का नहीं है, दल का नहीं है, केवल सरकार का भी नहीं है, संकट व्यापक है, संकट गहरा है, संकट व्यवस्था का है। सरकार पिछले बारह महीने में हर स्थिति को सुधारने में क्यों विफल रही है, इस पर गहराई से सोचा जाना चाहिए। स्थापित संस्थाएं हैं जो टूट रही हैं, केवल राजनैतिक क्षेत्र में नहीं, आर्थिक क्षेत्र में भी हरिजनों पर अत्याचार क्यों बढ़ रहे हैं? बहनों को बलात्कार का शिकार क्यों ज्यादा बनाया जाता है? भारतीय लोकतंत्र के प्राण 65 करोड़ लोगों की समानता की उत्कट आकांक्षा और शोषण से मुक्ति की तीव्र आतुरता में बसते हैं। जो लोकतंत्र से खिलवाड़ करना चाहते हैं, उन्हें इतिहास लोक चेतना की तूफानी धारा में बहाकर ले जायेगा। आवश्यकता इस बात की है कि गणतंत्र की रक्षा और नैतिक मूल्यों की पुनः स्थापना के संघर्ष में हम किसानों, मजदूरों, दस्तकारों, महिलाओं, छात्रों, युवकों को भागीदार बनाएं और उनमें ये विश्वास जगायें कि अपनी स्थिति को सुधारने का प्रयत्न यथास्थिति को एकजुट होकर बदलने से पूर्ण होगा। भारतीय जनता पार्टी राजनीति में, राजनैतिक दलों में, राजनेताओं में जनता के खोये हुए विश्वास को पुनः स्थापित करने के लिए जमीन से जुड़ी हुई राजनीति करेगी, जोड़-तोड़ की राजनीति का अब कोई भविष्य नहीं है। पैसा और प्रतिष्ठा के पीछे पागल होने वालों के लिए हमारे यहां कोई जगह नहीं है। हम तो एक हाथ में भारत का संविधान और दूसरे में समता का निशान लेकर मैदान में कूदेंगे और जूझेंगे। हम छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन और संघर्ष से प्रेरणा लेंगे। सामाजिक समता का बिगुल बजाने वाले महात्मा फुले हमारे पथ प्रदर्शक होंगे।

    राजनीति के कीचड़ में हमें कमल के समान ऊपर उठना होगा। कमल जैसा मुख, कमल जैसी आंखें, कमल जैसे हाथ, कमल जैसे पांव, कमल जैसी नाभि। शायद ही किसी अन्य पुष्प को यह सम्मान तथा महत्त्व मिला हो, जैसा कमल को मिला है। शायद ही किसी भाषा या साहित्य में किसी पुष्प का ऐसा गुणगान हुआ हो, जैसा कमल का भारतीय भाषाओं के साहित्य में हुआ है। मंदिरों, महलों, बागों सभी स्थानों पर समान रूप से, अध्यात्म से लेकर भौतिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सर्वत्र कमल शोभायमान है। वस्तुतः कमल शाश्वत सांस्कृतिक और संस्कृति का प्रतीक भी है।

    कमल से मेरा परिचय बचपन से है। पिता की उंगली पकड़कर जब कभी शाम को मंदिर में दर्शन के लिए जाने का अवसर मिलता, मार्ग में पहाड़ी पर बने तालाब में यदा-कदा कमल के दर्शन हो जाते। पिताजी कमल के बारे में विस्तार से बताते। जो बात समझ में आती, वह इतनी थी कि पूरे तालाब में गोलाकार पत्ते पर बड़ी शान से खड़ा कमल अवश्य ही फूलों का राजा होगा। बाद में कुछ बड़ा हुआ और प्रभु रामचन्द्र जी की आरती में ‘नवकंज लोचन, कंज मुख कर कंज, पद कंजारुणम’ के गायन में शामिल होने लगा तो कमल के नए रूप सामने आए।

    देवता की मूर्ति पर चढ़ने वाले पुष्पों में कमल के दर्शन शायद ही कभी हुए हों। सिंहन के लहड़े नहीं, हंसन की नहिं पात। कमल की खेती नहीं होती। वह क्यारियों की शोभा नहीं बढ़ाता। उसके लिए सरोवर चाहिए। सरोवर भी सूखा नहीं, जल से परिपूर्ण। जल भी शांत स्थिर। कहते हैं जल में कीचड़ भी जरूरी है। कमल कीचड़ में जन्म लेता है, इसलिए उसे पंकज कहते हैं। किंतु कीचड़ दिखाई नहीं देती। वह कीचड़ से ऊपर उठकर अपने अस्तित्व की घोषणा करता है और इस सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि जन्म से कोई हेय या नीचा नहीं होता। वस्तु तथा व्यक्ति का मूल्यांकन उसके चरित्र और गुण के कारण होना चाहिए। भारत के पश्चिमी घाट को मंडित करने वाले महासागर के किनारे खड़े होकर भविष्यवाणी करने का साहस करता हूं-अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा।’

    9.

    1984 में स्वर्ण मंदिर में सेना की मौजूदगी

    और पंजाब में सेंसर के खिलाफ केन्द्र सरकार की आलोचना

    ‘आजादी के 36 साल बाद, देश के बंटवारे के 36 साल बाद भी आज देश की एकता के ऊपर फिर से प्रश्नचिन्ह लग जाए, यह शासन चलाने वालों के लिए कोई अच्छी बात नहीं है। हम अभी तक एक राष्ट्र नहीं बने, यह कोई अच्छी बात नहीं है। मज़हब के आधार पर पाकिस्तान बना, वह बंट गया। हमने मजहब को अपना आधार नहीं बनाया, हमने कहा कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष, सेक्यूलर होगा। यह सभी धर्मों के मानने वालों के लिए होगा। फिर भी भारत बंटने के कगार पर आ गया है। क्या इसके लिए अकाली दल जिम्मेदार है और प्रधानमंत्री (श्रीमती इंदिरा गांधी) दूध की धुली हुई हैं?

    प्रधानमंत्री जी कहती हैं कि वे जहर पीने के लिए तैयार हैं। उनके हिस्से में तो अमृत आया है, जहर तो बाकी लोग पियेंगे, लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि परमात्मा के लिए देश की एकता को राजनीति का मुद्दा मत बनाइए, जो कुछ हो गया, उसको भूल जाएं और नए अध्याय का श्रीगणेश करें। आखिर स्वर्ण मंदिर में सेना कब तक रहेगी? पंजाब में सेंसर कब तक चलेगा? आप किसी भी हिस्से के चप्पे-चप्पे पर फौज नहीं खड़ी कर सकते। देश एक रहेगा तो किसी एक पार्टी की वजह से एक नहीं रहेगा, किसी एक व्यक्तित्व की वजह से एक नहीं रहेगा, किसी एक व्यक्ति की वजह से नहीं रहेगा, किसी एक परिवार की वजह से नहीं रहेगा, देश एक रहेगा तो देश की 70 करोड़ जनता की देशभक्ति की वजह से रहेगा।

    पंजाब में आतंकवाद का उन्मूलन करने के लिए जन-अभियान के अलावा सरकार के पास कौन-सा ठोस कदम है? प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि वे संविधान में संशोधन करेंगे। उन्होंने पहले भी संविधान में संशोधन किया, मगर जो 249 के अंतर्गत था, उस पर अमल नहीं किया। अब क्या संविधान में फिर संशोधन होगा? सर्वप्रथम सरकार को पंजाब के निर्दोष लोगों की हत्या रोकनी चाहिए, अन्यथा जन-अभियान को जितनी सफलता मिलनी चाहिए, उतनी सफलता नहीं मिलेगी।’

    10.

    1984 में इंदिरा गांधी की

    हत्या के बाद अटल जी का भाषण

    पंजाब में आतंकवाद के चलते 31 अक्टूबर, 1984 को निजी सुरक्षाकर्मियों ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी। अटल जी ने इसे लोकतंत्र के लिए भीषण खतरा बताते हुए इंदिरा गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने कहा-

    ‘आतंकवादियों ने दिल्ली में अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं। दिल्ली में उन्होंने सामूहिक हत्याएं की, उन्होंने चुन-चुनकर लोगों को मारा, लेकिन वे अभी तक पकड़े नहीं गए। किसी को नजरबंद भी नहीं किया गया। आतंकवादी हरियाणा को लपेट में ले आए हैं। गंगानगर में दो पुलिसकर्मियों की हत्या हुई है। आतंकवादी अपनी गतिविधियों का विस्तार करने में समर्थ हो रहे हैं और सरकार के पास अध्यादेश के अलावा कोई हथियार नहीं है। क्या सरकार के शस्त्रगार में कमी है? अगर नहीं है तो स्पष्ट विचार नहीं है, राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है और दूरदर्शिता के आधार पर, नीति के आधार पर, पंजाब की समस्या को हल करने का संकल्प नहीं है।’

    दिल्ली के दंगों में जिनके हाथ खून से रंगे हुए हैं, वे पंजाब की समस्या का सफलतापूर्वक समाधान कर सकेंगे, इस बारे में मुझे संदेह है। दिल्ली के दंगों के लिए किसी को दोष लेना पड़ेगा। किसी को सज़ा भुगतनी पड़ेगी।

    जब कभी हम पंजाब में आते हैं और हिन्दू-सिक्ख भाईचारे की बात करते हैं तो हमारे मुंह पर कुछ सवाल मारे जाते हैं। यह पूछा जाता है कि इंदिरा जी की हत्या के बाद जब सैकड़ों सिक्ख वहां मारे जा रहे थे, तब आप कहां थे? हम तो अपने ढंग से वहां जवाब दे देते हैं, क्योंकि हम हत्यारों में शामिल नहीं थे, लेकिन सरकार जरूर कठघरे में खड़ी है। इसलिए मैं कहूंगा कि आपने दंगों की जांच के लिए कमीशन बनाया, देर से बनाया और उसको ठीक तरह से काम नहीं करने दिया, लेकिन अब उसकी रिपोर्ट को दबाइए

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