Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Virangna Ahilyabai Holkar (वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर)
Virangna Ahilyabai Holkar (वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर)
Virangna Ahilyabai Holkar (वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर)
Ebook344 pages3 hours

Virangna Ahilyabai Holkar (वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर)

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

अहिल्याबाई होल्कर का जन्म 31 मई, 1725 को महाराष्ट्र राज्य के चौंढी नामक गांव (जामखेड़ा, अहमदनगर) में हुआ था। वह एक सामान्य-सी किसान की पुत्री थीं। 10 या 12 वर्ष की उम्र में उनका विवाह सूबेदार मल्हार राव होल्कर के पुत्र खंडेराव से हुआ था और महज 19 वर्ष की उम्र में ही वे विधवा भी हो गई थीं। 11 दिसम्बर, 1767 में अहिल्याबाई होल्कर का राज्याभिषेक हुआ, तत्पश्चात् उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मन्दिर बनवाए, घाट बनवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण कराया, मार्ग बनवाए तथा प्यासों के लिए प्याऊ बनवाए तथा मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति कराई। अहिल्याबाई खुद धर्मपरायण तथा कर्तव्यपरायण महिला थीं। वे हर रोज ईश्वर की प्रार्थना करती और सभी धार्मिक क्रियाकलापों को स्वयं ही संपन्न करती थीं। उन्होंने सबसे पहले भारत में नारी शिक्षा के महत्त्व को समझा और समाज में नारी शिक्षा के लिए जागृति पैदा की। इनके प्रयासों की वजह से समाज में नारी चेतना विकसित हुई। तीन दशक के अपने राज्य का सफल दायित्वपूर्ण राज-संचालन करती हुई अहिल्याबाई 13 अगस्त, 1795 को नर्मदा तट पर महेश्वर के किले में हमेशा के लिए महानिद्रा में सो गईं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 7, 2021
ISBN9789354867552
Virangna Ahilyabai Holkar (वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर)

Related to Virangna Ahilyabai Holkar (वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर)

Related ebooks

Reviews for Virangna Ahilyabai Holkar (वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर)

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Virangna Ahilyabai Holkar (वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर) - Rajendra Panday

    अध्याय-1

    मल्हार राव होल्कर

    शहंशाह औरंगजेब एक कट्टर मुस्लिम शासक था। वह चाहता नहीं था कि भारतवर्ष में एक भी हिन्दू राज्य सही-सलामत बच जाए। वह उन सबको ही बर्बाद करने पर तुला हुआ था। स्थिति बड़ी ही नाजुक थी। देखने से ऐसा लग रहा था कि हिन्दुस्तान कहे जाने वाले देश भारतवर्ष में हिन्दू राज्य या हिन्दू सुरक्षित नहीं रह जाएंगे। ऐसे में महाराष्ट्र कुल के एकमात्र वीर पुरुष विश्व प्रसिद्ध महाराज शिवाजी ने अपनी तलवार की चमक से न सिर्फ औरंगजेब के छक्के छुड़ाए बल्कि पूरे भारत वर्ष में एक बिलकुल नये हिन्दू राज्य की स्थापना की। महाराज शिवाजी के साथ ही महाराष्ट्र में अन्य भी कई वीर पैदा हुए और वे वीर भी शिवाजी की तरह ही साधारण परिवारों में जन्म लेकर अपनी ताकत, क्षमता और कर्त्तव्यनिष्ठा तथा बाहुबल से एक-एक राज्य तथा राजवंश की स्थापना कर गए, जिनमें से आज भी कई वंश अस्तित्व में हैं। उन्हीं महान योद्धाओं और पराकर्मी पुरुषों में एक वीर, बहादुर और कर्मठ योद्धा मल्हार राव होल्कर भी हुए हैं। महारानी देवी ‘अहिल्याबाई’ इन्हीं मल्हार राव होल्कर की पुत्र वधू हैं।

    अहिल्याबाई के संबंध में कोई भी बात करने से पहले मैं मल्हार राव के संबंध में कुछ कहना आवश्यक समझता हूँ क्योंकि मल्हार राव को ठीक से जानने के उपरान्त ही आप अहिल्याबाई को अच्छी तरह से जान सकेंगे।

    महाराष्ट्र भारत के दक्षिण भाग में है। इसके उत्तर की तरफ नर्मदा नदी है, दक्षिण में पुर्तगालियों का देश है, पूर्व में तुंगभद्रा नदी है और पश्चिम में अरब की घाटी है। यहां के रहने वाले महाराष्ट्र या मरहठे कहलाते हैं।

    मल्हार राव के पूर्वज पहले दक्षिण के थारू नामक गाँव में रहते थे। बीतते समय के साथ उनके पूर्वज पूना से करीब 20 कोस की दूरी पर ‘होल’ नामक गांव में आकर रहने लगे। उनके पूर्वज जाति के महाराष्ट्र क्षत्रिय थे लेकिन गंडेरिये (धनगर) का धंधा करते थे। खंडोजी होल्कर मल्हार राव के पिता का नाम था। खंडोजी होल्कर गांव के बड़े प्रतिष्ठित और अमीर व्यक्ति थे। मराठी भाषा में ‘कर’ शब्द का मतलब रहने वाला होता है। होल गांव में खंडोजी रहते थे, इसी वजह से इनका नाम ‘खंडोजी होल्कर’ पड़ गया।

    ईसवी सन् 1694 में मल्हार राव होल्कर पैदा हुए थे। खंडोजी होल्कर का देहांत तब हो गया जब मल्हार राव होल्कर मात्र चार साल के ही थे। मल्हार राव की माता विधवा होने के बाद नाना प्रकार की आपदाओं और कष्टों के कारण तरह-तरह की समस्याओं से जूझने लगीं। उनके दुःखों का कोई अंत न था। विधवा की तो वैसे भी समाज में बहुत ही दीनहीन दशा होती है। मल्हार राव की विधवा मां को परिवार के लोग तरह-तरह के दुःख देने लगे। वह मानसिक रूप से काफी परेशान हो गईं तो अपने भाई भोजराज के यहां रहने का निर्णय ले लिया। वह अपने इकलौते पुत्र मल्हार राव होल्कर को लेकर तलोंदे आ गईं।

    सुल्तानपुर परगने के तलोंदे गांव में भोजराज रहते थे। भोजराज पेशे से कृषक थे। खेती-बाड़ी करके वह अपना निर्वाह करते थे। भोजराज एक अत्यंत ही कर्मठ तथा सुलझे विचारों वाले व्यक्ति थे। वह अपनी बहन के दुःख से काफी दुखी थे। अपनी बहन और भांजे को असहाय और दीनहीन अवस्था में देखकर उनसे ज्यादा देर तक खामोश नहीं रहा गया। भोजराज ने अपनी बहन को समझाते हुए कहा- ‘बहन, होनी पर किसी का भी कोई अधिकार नहीं होता है। वह होकर ही रहती है। मैं हूँ तुम्हारे साथ और तुम्हारी देखभाल यथाशक्ति अवश्य ही करूंगा। ईश्वर को यही मंजूर था। तुम धीरज धारण करो। शोक-संतप्त अपने मन को शांत करो।’ इस तरह से भोजराज ने अपनी बहन को धैर्य बंधाते हुए समझाने का प्रयास किया ताकि बहन और भांजे के मन में निराशा और हताशा का भाव न हो और यह नव जीवन की नई शुरुआत करने के लिए आवश्यक था। भोजराज ने आगे कहा- ‘बहन, धैर्य रखो। ईश्वर ने तुम्हें इतना सुन्दर पुत्र दिया है। वह दीर्घायु रहे। कुछ ही सालों के उपरान्त तुम्हारी सब समस्याएं, कष्ट और परेशानियां रात की भांति गुम हो जाएंगी। तुम्हें कहीं नहीं जाना है। तुम हमारे यहां ही बेहिचक रहो। यह तुम्हारा अधिकार है। जितना तुमसे हो सके घर के कामकाज में अपना सहयोग दो।’ भोजराज ने नाना प्रकार से अपनी बहन को समझाया।

    भोजराज के स्नेह सिक्त वचनों को सुनकर मल्हार राव की माता के मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। उनका परेशान और दुःखी मन धीरे-धीरे शांत हो गया। वह अपनी समस्त उग्रता और उत्तेजना को एक तरफ कर अपने कर्तव्य के प्रति सचेत हो गईं। वह समय-समय पर अपने भाई भोजराज के कार्यों में उनका हाथ बंटाने लगीं। मल्हार राव उस समय अबोध बच्चे थे। वह खेलने-कूदने के अतिरिक्त अपनी माता की कोई भी सहायता नहीं कर सकते थे। उन्हें स्वयं दूसरों के सहयोग की जरूरत थी। उन्हें दुःख-सुख का अहसास अभी नहीं था। लेकिन जब भी कभी हमउम्र बालकों से मतभेद हो जाता या बहस हो जाती तो वह अपनी माता के साथ खेत में चले जाते थे।

    एक बार मल्हार राव सुबह होते ही अपने मामा के साथ खेत में आ गए। ठंडी मंद बयार और खुले मैदान ने उनका मन मोह लिया। वह पूरी स्वच्छंदता के साथ इधर-उधर उछलने-कूदने लगे। भोजराज खेत में काम करने लगे। जब धूप तेज हो गई और मल्हार राव को गरमी लगने लगी तो वह एक पेड़ की छाया के नीच आकर चुपचाप लेट गए। भाग-दौड़ करने के कारण वह काफी थक-हार गए थे, जिससे लेटते ही उन्हें गहरी नींद आ गई। भोजराज ने जब खेती का काम पूरा कर लिया तो चारों तरफ नजरें घुमाकर देखा, जब मल्हार राव कहीं भी नजर नहीं आए तो उन्होंने उन्हें आवाज दी। जब मल्हार राव का कहीं पता न चला तो उन्होंने उन्हें चारों तरफ ढूंढा, फिर यह सोचकर घर की तरफ बढ़ गए कि वह घर चला गया होगा। भोजराज जब घर पहुंचे तो मल्हार राव को भाई के साथ न देखकर बहन ने पूछ लिया‒ ‘मल्हार कहाँ है?’ जवाब में भोजराज ने कहा‒ ‘वह शायद खेत में ही रह गया। मैंने उसको तलाशा, आवाज दी लेकिन जब कोई जवाब नहीं मिला तो मैंने यही समझा कि वह घर पहुंच गया होगा। तुम चिंता न करो। वह किसी पेड़ की छाया में सो रहा होगा। चलो खाना निकालो। भोजन करने के बाद हम दोनों साथ चलकर उसे ढूंढ लेते हैं।’

    लेकिन माता के पास पुत्र न हो तो उसको चैन कहां होता है। उसका पुत्र के प्रति प्रेम अद्भुत, निःस्वार्थ तथा गंगाजल के समान स्वच्छ और पवित्र होता है। जिस माता ने प्रसव काल की घोर पीड़ा को बर्दाश्त कर पुत्र-सुख की अनुभूति की हो, अपने सारे दुखों का त्याग कर पुत्र को कष्टों से दूर रखने का प्रयत्न किया हो, स्वयं सर्दी और गर्मी के दिनों के कष्टों को बर्दाश्त कर अपने पुत्र की रक्षा की हो और जिसने अपने भोजन में से बचाकर अपने पुत्र को भोजन कराया हो, क्या वह अपने पुत्र को किसी अनजान जगह भूखा-प्यासा सोया हुआ छोड़कर स्वयं भोजन करने का विचार कर सकती है? यह तो बिलकुल ही संभव नहीं है। माता सोच रही थी कि ‘मेरा मल्हार खेत में ही भटक रहा होगा या भूख-प्यास से व्याकुल होकर रो रहा होगा या जंगली हिंसक पशुओं का भोजन बन गया होगा।’ पलभर में ही माता ने जाने क्या-क्या और कितना कुछ सोच लिया। इतना सोचते ही मल्हार राव की माता काफी व्याकुल हो गईं। वह थाली में रोटी, सब्जी, पानी लेकर स्वयं भूखी-प्यासी खेत की ओर तेज-तेज कदमों से बढ़ती चली गईं। उन्हें अपनी कोई सुधबुध नहीं थी। बस उन्हें तो यह चिंता सताए जा रही थी कि पता नहीं मल्हार किस हाल में होगा? मल्हाराव जिस जगह पर सो रहे थे, वह जगह खेत के एक कोने में थी और छोटी झाड़ियों से घिरी हुई थी। वह सम्भवतः नींद में भावी सुख तथा समृद्धि का स्वप्न देख रहे थे। गर्मी के मौसम में दोपहर के समय सूर्य की तेज किरणें मल्हार राव के माथे पर पड़ रही थीं और उनके भावी जीवन को पढ़ भी रही थीं। उनके माथे पर सूर्य की तेज किरणों के लगातार पड़ने से पसीने की बूंदें उभर आई थीं, जो ओस की बूंदों की मानिंद चमक रही थीं। देखने से यूं लग रहा था मानो सूर्य की सहस्त्र किरणें मल्हार राव के माथे पर राज्याभिषेक का टीका पसीने की बूंदों से लगा रही हों। इसी बीच नदी के ही एक झुरमुट से एक विशाल काला सर्प निकला और अपने फन को मल्हाराव के माथे पर फैला कर बैठ गया। यह स्थिति अत्यंत ही भयावह बन गई। देखने से यूं लगने लगा मानो काल ने मल्हार राव को अपने मुंह में ले लिया हो। मल्हार राव के भाग्य में राज्याभिषेक था या नहीं या उन्होंने ऐसा कर्म किया था या नहीं इस बारे में कुछ भी अनुमान लगाना या भविष्यवाणी करना अत्यंत कठिन था क्योंकि भविष्य के गर्भ में क्या है, इसका अनुमान लगाना किसी के वश की बात नहीं है।

    मल्हार राव की माता उनको तुरंत ढूंढ़ने की इच्छा से कठिन तथा खतरनाक और कंटीले रास्ते से विविध प्रकार के संकल्प-विकल्प करतीं, देवी-देवताओं को प्रार्थना करती हुई आगे बढ़ती जा रही थीं। वह कभी कुछ सोचकर मन-ही-मन चीख पड़तीं तो कभी रो पड़तीं। इसी तरह गिरती, सम्भलती और स्वयं की रक्षा करतीं, वह वहां पहुंच गईं, जहां पर मल्हार राव गहरी निद्रा में सो रहे थे। उन्हें दिन-दुनिया की कोई खबर नहीं थी। उनको यह भी मालूम नहीं था कि उनकी माँ उनको अपने पास न पाकर कितना दुखी और परेशान होगी। माता, पुत्र को जब तक सुरक्षित स्थान पर अच्छी अवस्था में नहीं देख लेती है तब तक उसको चैन नहीं मिलता है और वह अशांत और दुःखी ही रहती है।

    मल्हार राव की माता ने जब सामने नजर डाली तो उनके तो होश ही उड़ गए। सर्प फन से मल्हार राव को ढककर बैठा हुआ था। इतना डरावना दृश्य देखकर उनकी माता का कलेजा कांप गया और वह भगवान शंकर से प्रार्थना करने लगीं कि वह उनके पुत्र पर कृपा करें। उनकी माता अब समझ नहीं पा रही थीं कि वह क्या निर्णय लें? उन्हें अब ऐसा लगने लगा जैसे उनके पुत्र की आयु पूरी हो गई हो और अब उसका बचना संभव न हो। वह फूट-फूूटकर रोने-बिलखने लगीं। उनके पास ईश्वर से मदद मांगने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। वह अपनी दोनों आंखें बंदकर परमदयालु, परम पिता परमात्मा से हाथ जोड़कर अपने पुत्र मल्हार राव के लिए प्रार्थना करने लगीं। ऐसे समय में ईश्वर ही तो याद आता है। जब आदमी चारों तरफ से निराश हो जाता है तो ईश्वर के दरबार में ही तो जाकर गिड़गिड़ाता है। मल्हार राव की माता भी दोनों हाथ फैलाकर प्रार्थना करने लगीं। वह कहने लगीं‒ ‘हे ईश्वर, तू दयालु है। तू धनी है और तू ही गरीबों की रक्षा करने वाला है। हे प्रभू, तू हमारे पाप को भी नष्ट करने वाला है। हे प्रभु, मैं तो एक दुखियारी विधवा हूं। मुझ दुखियारी के प्राणों का सहारा एकमात्र मेरा पुत्र ही है। इसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है। आप गरीबों के रक्षा करते हैं। आपने अहिल्या को पत्थर से मुक्त कर दिया। गजेन्द्र को मोक्ष प्रदान किया। भक्त प्रह्लाद की सहायता की। सुदामा की निर्धनता दूर की और फिर मोरध्वज के पुत्र रत्न कुमार को जीवित कर दिया। हे पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त प्रभु, मैं आप की शरण में हूं। आप मुझ गरीब की और मेरे पुत्र की रक्षा करें। आप किसी न किसी रूप में आकर मदद करें।’ मल्हार राव की माता इस तरह से ईश्वर से प्रार्थना कर रही थीं। उसी क्षण उनके भाई भोजराज आ गए। उन्होंने आने के साथ ही कहा कि क्या मल्हार कहीं भी नहीं मिला? उनके इतना पूछते ही उन्होंने सर्प की तरफ उंगली करके दिखाया फिर कहा कि मल्हार संकट में है। भोजराज ने इशारे को समझा नहीं और पुनः सवाल कर दिया‒ ‘तुम व्यर्थ में ही इतना परेशान हो। हम उसे अभी ढूंढ लेते हैं।’ भोजराज के इतना कहते ही बहन ने भोजराज से कहा‒ ‘भैया, वह देखो काला सर्प झाड़ी की तरफ जा रहा है। अभी कुछ देर पहले वह मल्हार के माथे पर फन फैलाए हुए बैठा था।’ मल्हार की माता इतना बोलकर धीरे- धीरे रोने लगीं। सर्प यूं बिना कोई क्षति पहुंचाए चला गया मानो भोजराज के आने के बाद वह आश्वस्त हो गया हो कि अब कोई भी इस बालक को हानि नहीं पहुंचाएगा। सर्प के जाते ही भोजराज झाड़ियों को कुचलते हुए मल्हार राव के नजदीक पहुंच गए और उनका नाम लेकर उनको एकटक देखने लगे। मल्हार राव ने अपनी आंखें खोलकर मामा को देखा और वह उठकर बैठ गए, लेकिन अगले ही पल कुछ सकुचा भी गए, तभी भोजराज मुस्कुरा पड़े और उनके पास ही बैठ गए और अपनी बहन को भी वहीं पर आने के लिए कहकर मल्हार राव की मुस्कान को अपलक देखने लगे।

    मल्हार राव की माता, जो थोड़ी देर पहले भगवान से उनकी सलामती के लिए प्रार्थना करते थक नहीं रही थीं, अब काफी सामान्य हो गईं। उनका रोना-बिलखना अब बन्द हो गया था और अपलक अपने सुरक्षित और प्रसन्नचित्त बालक को वह यूं देखने में तल्लीन थी, जैसे उन्होंने कई वर्षों के बाद अपने पुत्र को देखा हो। उनकी सारी पीड़ा, उनका सारा दर्द और तरह-तरह के मन में बनने वाले बुरे विचार पुत्र का दर्शन करते ही ओस की बूंदों की तरह गायब हो गए। उनका हृदय पहले की तरह ही शांत और स्थिर हो गया। आंखों से अश्रु बूंदें जो निकलकर उनके गालों पर लरज आई थीं, अब वे भी सूखकर प्रसन्नता की आशा में बदल गई थीं, अब उनकी माता का चेहरा मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। आंसुओं की चमक तथा मुस्कुराते नाजुक होंठ स्पष्ट रूप से बता रहे थे कि वह अब दिल से खुश हैं। उनके मन से डर और दहशत निकल गई है। दोपहर के बाद की हवा धीरे-धीरे बह रही थी और पक्षियों का अपने-अपने घोंसलों से निकल कर परस्पर चीं-चीं बोलना मन को लुभा रहा था। झाड़ियों की कोमल पत्तियों का हवा के झोंकों से रगड़खाकर अजीब-सी आवाज निकालना और इस आवाज से वीरानेपन को भंग करना मल्हार राव की माता को अत्यंत भा रहा था। उनके पुत्र का अब दूसरा जन्म हुआ था। आज वह ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दे रही थीं। एक बार तो उन्हें ऐसा लगा जैसे सर्प मल्हार राव का जीवन असमय ही समाप्त कर देगा। लेकिन जिसे ईश्वर सुरक्षित रखता है, उसका बाल भी जल्दी कोई टेढ़ा नहीं कर पाता। मल्हार राव का रखवाला कोई आदमी नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर था। उन्हें सर्प समय से पहले ही कैसे काट लेता?

    मल्हार राव की माता सोचते-सकुचाते हुए उनके पास आ गईं और उन्हें अपनी गोद में लेकर अपनी छाती से बार-बार लगाने लगीं, उनका माथा चूमने लगीं और चारों तरफ ध्यान से देखने लगीं कि सर्प ने कहीं काटा तो नहीं है न। पुत्र मौत के मुंह से बाल-बाल बचा था। वह मल्हार राव को बार-बार देखतीं, उनके माथे को चूमतीं फिर छाती से लगातीं। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब उन्हें यह न लगने लगा कि पुत्र बिलकुल ठीक है। अपने आंचल से मल्हार राव के चेहरे को वह पोंछने लगीं। फिर वह मल्हार राव को समझाने लगीं कि वह घर से इस तरह से अकेला न निकला करें। आज तुम्हें सर्प ने काट लिया होता तो मैं क्या करती? तुम्हारे सिवा तो इस गरीब मां के पास और कुछ भी नहीं है। मैं तो तुम्हारे बिना बिलकुल ही कंगाल हो जाऊंगी। इतना समझाने के बाद वह साथ में लाया भोजन उन्हें खिलाने लगीं, फिर घर ले आईं। भोजराज खेती के काम में व्यस्त हो गए और यह सोच भी रहे थे कि मल्हार कोई असाधारण बच्चा है। यह आम बच्चों से काफी हटकर है। यह कोई दिव्य बालक है।

    मल्हार राव पर फन निकालकर सर्प के बैठने की खबर धीरे-धीरे पूरे गांव में फैल गई। हर व्यक्ति अपनी-अपनी सोच के अनुसार विचार व्यक्त कर रहा था। कोई कह रहा था‒ ‘यह बालक देखना एक दिन राजा होगा।’ कोई कह रहा था‒‘यह अत्यंत ही तेजस्वी और वैभवशाली होगा।’ इसी तरह से सब अपने-अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। इस घटना के बाद मल्हार राव को गांव के लोग जानने लगे और उन सबका उनसे थोड़ा लगाव हो गया। यह सब स्वाभाविक रूप से हुआ था।

    मल्हार राव अब आठ साल के हो गए। वह काफी झगड़ालू, साहसी तथा निडर स्वभाव के थे। पढ़ने-लिखने का कोई इंतजाम उनके लिए नहीं हो सका था, जिससे वह हमेशा खेलने-कूदने में व्यस्त रहते थे। मल्हार राव बहुत ही हिम्मत वाले थे तथा झगड़ालू प्रवृत्ति के भी थे, जिससे उनके साथी उनसे काफी डरते थे और वह जो कुछ भी कहते थे, उसे सहज रूप से स्वीकार कर लेते थे। मल्हार राव में नेतृत्व की भावना गजब की थी तभी तो वह अपने दोस्तों की टोली बना-बनाकर तथा स्वयं उसके मुखिया या नेता बनकर इधर-उधर गांव में खेला करते थे। इससे साफ हो जाता है कि उनमें नेतृत्व की भावना की कमी नहीं थी। बाल्यावस्था में बच्चों का यह एक खेल ‘जबरदस्त का मूसल सिर पर’ का उल्लेख यहां करने पर यह मालूम हो जाएगा कि मल्हार राव कितने बहादुर, निडर और कितने दुःसाहसी थे। अनुभवी और विद्वान लोगों का कहना है ‘होनहार वीरवान के होत चिकने पात।’

    एक दिन की बात है। मल्हार राव अपने दोस्तों की टोली के साथ गांव में घूमने लगे। टोली का नेतृत्व वह स्वयं कर रहे थे। नेतृत्व करने की खूबी सम्भवतः उनमें जन्म से ही

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1