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Patrakar Gandhi (पत्रकार गाँधी)
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Patrakar Gandhi (पत्रकार गाँधी)

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अमलेश राजू की पत्रकारिता 1992-93 में पढाई के दौरान शरू हई। हिंदस्तान नवभारत टाइम्स, आज, प्रभात खबर, राष्ट्रीय सहारा, कुबेर टाईम्स, दैनिक भास्कर, आउटलुक, प्रथम प्रवक्ता और प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की पत्रिका 'ग्रासरूट' व 'विदुर' में नियमित लेखन के साथ, 2009 में सीबीआई एकेडमी से पत्रकारिता में प्रशिक्षित हैं।
दिल्ली नगर निगम के राजभाषा अनुभाग से हिन्दी पत्रकारिता में उत्कृष्ट कार्य के लिए 2016-17 में सम्मान के साथ 2007 में मातृश्री, 2009 में परमश्री, 2013 में आईएचआरपीसी का ह्यूमन राइट्स अवार्ड्स और 2016 में रीयल संवाद एक्सीलेंस अवार्ड् से सम्मानित किये गये हैं।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से 40 दिवसीय कार्यशाला में प्रशिक्षित अमलेश दिल्ली विश्वविद्यालय, गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, आईआईएमसी और जागरण इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन में पत्रकारिता के अतिथि शिक्षक के रूप में समय-समय पर अध्यापन के साथ उनकी 'आजादी के पचास साल भारत में राजनीतिक संकट' नामक चर्चित आलेख प्रकाशित है।
पत्रकारिता में स्नातकोत्तर के साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में संस्कृति मंत्रालय की संस्था गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, राजघाट, पवित्र प्रयास ट्रस्ट, उदित आशा वेलफेयर सोसाइटी, बीइंग इंडियन और गांधी ज्ञान मंदिर, बिहार के साथ जुड़कर कार्यशाला और संगोष्ठी आयोजित करने का अनुभव ।
नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्टस (इंडिया) की 1972 में स्थापित दिल्ली इकाई दिल्ली पत्रकार संघ (डीजेए) के मौजूदा महासचिव ।
अमलेश राजू की 2010 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सानिध्य में रहने वालों के संस्मरण पर आधारित 'जेपी जैसा मैंने देखा' नामक चर्चित पुस्तक प्रकाशित हुई है।
संप्रति- इंडियन एक्सप्रेस के हिंदी संस्करण 'जनसत्ता' नई दिल्ली में वरिष्ठ संवाददाता के रूप में कार्यरत हैं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJun 3, 2022
ISBN9789355991317
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    Patrakar Gandhi (पत्रकार गाँधी) - Amlesh Raju

    किताब कैसे लिखी गई

    -अमलेश राजू

    केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय की संस्था गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, राजघाट नई दिल्ली के साथ मिलकर सामाजिक-शैक्षणिक संस्था उदित आशा ने जनवरी 2017 में ‘गांधी की पत्रकारिता’ पर दो दिवसीय संगोष्ठी व कार्यशाला का आयोजन किया था। आयोजन में दिल्ली विश्वविद्यालय, गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, भारतीय जनसंचार संस्थान और कई निजी पत्रकारिता संस्थानों के प्रशिक्षु छात्र-छात्राओं ने शिरकत की थी। कार्यक्रम के संयोजन का जिम्मा मुझे ही मिला था। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री प्रोफेसर आनंद कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर प्रेम सिंह, लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार विष्णु प्रभाकर के बेटे साहित्यकार- पत्रकार अतुल प्रभाकर, भारतीय जनसंचार संस्थान के प्रो. आनंद प्रधान, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. रविंद्र कुमार, वरिष्ठ पत्रकार कमर आगा, अरविन्द मोहन, अनिल चमडिया, कृष्णा झा, प्रसून लतांत, ईटीवी के आशुतोष झा, टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संवाददाता मनोज सिन्हा और दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता पढ़ाने वाले डॉक्टर सुभाष गौतम सहित अनेक बुद्धिजीवियों ने अपने विचार रखे। कार्यक्रम की अध्यक्षता गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, राजघाट के निदेशक श्री दीपंकर श्री ज्ञान कर रहे थे। कार्यक्रम समापन के बाद मुझे विचार आया कि क्यों न गांधी की पत्रकारिता पर हुई इस चर्चा को एक संकलन का रूप दिया जाए और संगोष्ठी में आए इन सभी प्रबुद्धजनों के विचार लेकर ‘पत्रकार गांधी’ पुस्तक का प्रकाशन कराया जाए। यहीं से किताब की परिकल्पना और रूपरेखा साकार हुई, जिसके तहत धीरे-धीरे कई बुद्धिजीवी गांधीवादियों से गांधी की पत्रकारिता पर उनके विचार लिए गए। बीते साल कोरोना महामारी में लगे लॉकडाउन के कारण महीनों तक दफ्तर का काम घर से ही करने की सहूलियत ने हमें आपदा में अवसर दिया। लिहाजा मैंने भी सोचा कि क्यों न इसी दौरान गांधी की पत्रकारिता पर अपनी कार्ययोजना को अमलीजामा पहना दिया जाए।

    गांधी की पत्रकारिता पूरी तरह से सत्यनिष्ठा और ईमानदारी पर आधारित थी। गांधीजी की पत्रकारिता का उद्देश्य आम जनता में राष्ट्रीयता और जनजागरण की भावना से ओतप्रोत करना था। वे एक समर्पित और निष्ठावान संपादक के रूप में कालजयी थे, कालजयी हैं और कालजयी रहेंगे। आमजन के बीच बतौर एक पत्रकार वे हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। महात्मा गांधी ने पत्रकारिता का जो जीवन दर्शन आम लोगों के समक्ष पेश किया है, वह सदियों तक उसी रूप में अक्षुण्ण बना रहेगा। आज की पत्रकारिता गांधी के जीवन दर्शन वाली पत्रकारिता से कोसों दूर है। पत्रकारिता का पेशा चुनना राष्ट्रसेवा, समाज सेवा और सकारात्मक सामाजिक बदलाव लाने की भावना से प्रेरित किसी भी पीढ़ी के लिए नितांत निजी फैसला होता है। अगर वे पत्रकारिता के नाम पर सरकार से सुविधाओं की उम्मीद रखते हैं तो यह नि:स्वार्थ राष्ट्रसेवा कतई नहीं हो सकती है। यह गांधी की पत्रकारिता से भी मेल नहीं खाती है। अगर कोई सरकार आपकी पत्रकारिता का सम्मान करते हुए कुछ सुविधाएं दे रही है तो यह कदापि नहीं मान लेना चाहिए कि हम इसके काबिल और सच्चे हकदार हैं। माखनलाल चतुर्वेदी और महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रभक्त पत्रकार ही हमारे प्रेरणास्रोत हो सकते हैं। गांधी एक पत्रकार ही नहीं, एक समाज सुधारक के रूप में भी अपनी मांगें मनवाने के लिए कभी झुके नहीं। इसी आदर्श और मूल्य पर चलते रहना आज की पत्रकारिता करने वालों की सबसे बड़ी पूंजी हो सकती है।

    गांधीजी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पत्रकारिता को अहिंसक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते थे जो आज के बड़े घरानों के लिए अब मुनाफाखोरी का पेशा बन गया है। गांधीजी हमेशा वर्चस्व या रुतबा बढ़ाने के लिए पत्रकारिता को साधन के रूप में इस्तेमाल करने के खिलाफ रहे। उनकी पत्रकारिता बेशक दक्षिण अफ्रीका की धरती से शुरू हुई लेकिन स्वदेशी जागरण से लेकर समदर्शी और समावेशी की भावना ही उनकी लेखनी का मकसद रहा। महात्मा गांधी की पत्रकारिता को जानने के लिए उनके जीवन के कई पहलुओं को जानना जरूरी होगा। भाषा, संस्था, सामाजिक उद्देश्य और संप्रेषण के हर स्तर पर गांधीजी का पत्रकारीय मूल्य देशभक्ति, परोपकार, अहिंसा और समर्पण भाव का शाश्वत दर्शन कराता रहेगा। प्रत्येक कालखंड और परिस्थिति में गांधीजी के विचार प्रासंगिक बने रहेंगे। यही वजह है कि दक्षिण अफ्रीका में 100 साल बाद भी गांधी प्रासंगिक बने हुए हैं। क्या भारत में उनके विचार, उनके मार्ग एवं उनकी पत्रकारिता के सिद्धांतों पर चल रही है? इन सब सवालों के जवाब गांधी की पत्रकारिता को बारीकी से परखे बिना नहीं मिल सकते।

    ‘इंडियन ओपिनियन’ से पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले और लंदन के ‘द टाइम्स’ को अपना आदर्श पत्र मानने वाले गांधीजी पत्रकारों का सबसे बड़ा दायित्व सच की खोज और फिर उसे पाठकों तक पहुंचाना मानते थे। वे ‘इंडियन ओपिनियन’ के सर्वेसर्वा थे पर प्रिंट लाइन में भी उनका नाम प्रकाशित नहीं होता था। अपनी जमा पूंजी को इंडियन ओपिनियन में लगाने वाले गांधीजी को मलाल रहा कि उनके विचारों को मानने वाले लोग, उनके आंदोलनकारी साथी भी उनकी पत्रकारिता से मतभेद रखते हैं। पत्रकारिता की दुर्दशा पर उन्होंने प्रकाश भी डाला।

    गांधीजी समाचार पत्र को एक सामाजिक संस्थान मानते थे। लंदन से छपने वाली ‘द वेजिटेरियन’ में उन्होंने भारतीय भोजन, त्योहार, दिनचर्या और संस्कृति पर काफी लेख लिखे। 50 हजार के करीब पाठक वर्ग वाले ‘यंग इंडिया’ को लोग आज भी नहीं भूल पा रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार ए.एस. अयंगर ने कहा था कि यंग इंडिया भारत के कई अखबारों की कुल प्रसार संख्या से ज्यादा बिकता है। गांधी जी ने जो लिखा, वह सर्वश्रेष्ठ है। इस समय राजधानी दिल्ली ही नहीं, देश के छोटे-छोटे कस्बों, राज्यों से प्रकाशित होने वाले दैनिक, साप्ताहिक और मासिक भी खुद को गांधी की पत्रकारिता से अलग करने को उतावले दिखते हैं। भाषा के स्तर पर गांधी की पत्रकारिता से विमुखता साफ तौर पर दिखाई दे रही है। अंग्रेजों के रॉलेक्ट एक्ट के विरोध के लिए गांधीजी ने एक शपथ पत्र का मसौदा बनाया था, जिसकी भूरी-भूरी प्रशंसा हुई थी। आज भारतीय मीडिया उद्योग में विदेशी पूंजी निवेश करने के लिए अनेक संस्थाएं लालायित दिख रहे हैं। क्या हमारी पत्रकारिता फैशन वीक के जलवे, क्रिकेट, राजनयिकों के अंतरंग संबंध एवं पुराने जूते-चप्पल एवं कपड़ों की बिक्री, जलते युवक की तस्वीरें, जादू टोना, बलात्कार पीड़ितों के बयानों को दिखा-दिखा कर आदर्श पत्रकारों और आदर्श पत्रकारिता के मिशन का आदर पा सकता है? सन 1904 में ट्रांसवाल में फीनिक्स आश्रम बनाकर गांधीजी ने इंडियन ओपिनियन के दफ्तर को स्थानांतरित किया था और हेनरी पोलक के साथ हो गए। पोलक ने अपनी पुस्तक ‘द इंसिडेंट ऑफ गांधीजीज लाइव’ में इसके बारे में वृत्तांत से लिखा है। रस्किन, टॉलस्टाय, थोरो और अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने भी गांधी की पत्रकारिता के बारे में सकारात्मक एवं प्रेरणादायक टिप्पणी की है। गांधीजी की पत्रकारिता के बहाने भारतीय समाचार पत्रों, मालिकों, संपादकों और पत्रकारों को अपने अंतःकरण में झांक कर, परख कर देखने का समय आ गया है।

    आज पत्रकार मामूली लालच में फंसकर सस्ते में बिक जाते हैं, यह गांधी की पत्रकारिता का मूल्य कतई नहीं है। इस किताब में हमारी कोशिश रही है कि जिन लोगों के विचारों को हमने गांधी एक पत्रकार के रूप में संकलित और संपादित किया है, उसे नई पीढ़ी आसानी से समझ जाए कि गांधी की पत्रकारिता पर उन्हें मिल रही विश्वसनीय जानकारी उनके लिए एक धरोहर और प्रेरणास्रोत बने। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे डॉक्टर आनंद कुमार का सुझाव था कि किताबें रोज-रोज नहीं छपती, इसलिए इंटरनेट पर उपलब्ध देश के पत्र-पत्रिकाओं में गांधी के बारे में अगर कुछ महत्वपूर्ण जानकारी मौजूद है तो उसे संभवतया किताब में समाहित किया जाना चाहिए। इस संकलन में कुछ ऐसी भी जानकारी है जो कहीं न कहीं से ली गई है।

    किताब के जरिये मैंने भरसक कोशिश की है कि गांधीजी की पत्रकारिता के तौर-तरीके और उनके सिद्धांतों से नई पीढ़ी को रूबरू कराया जाए ताकि अपने पत्रकारीय जीवन में वे उन पर अमल करते हुए पत्रकारिता की शुचिता बनाए रख सकें। गांधी के पत्रकारिता मूल्य पर अपने मार्गदर्शकों और वरिष्ठ पत्रकारों के मौलिक विचारों को मैंने अपनी इस पुस्तक में जगह दी है, लिहाजा इन लेखों के संपादन के सिवाय मैं कोई श्रेय नहीं लेना चाहता।

    गांधीजी के विचारों से प्रेरित और सामाजिक न्याय के लिए समर्पित मेरे पिता दीनानाथ प्रबोध ने भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे और उनके सहयोगी वैद्यनाथ चौधरी के सान्निध्य में रहकर कई राज्यों में भूदान आंदोलन का अलख जगाया। उन्होंने पत्रकारिता धर्म निभाते हुए तत्कालीन हर छोटे-बड़े अखबारों में गंभीर लेखों के जरिये विनोबाजी की यात्रा के महत्व को आम जन तक पहुंचाया। पिता की प्रेरणा और सहयोग से ही मैं अपनी परिकल्पना को पुस्तक शक्ल में साकार कर पाने में सफल रहा।

    माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति श्री के.जी. सुरेश जी का विशेष रूप से आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने बहुत कम समय में अपनी तमाम व्यस्तता के बाबजूद मेरे सविनय आग्रह को स्वीकार करते हुए ‘गांधी की पत्रकारिता’ पर अपने अनुभव लिखकर मेरा मान बढ़ाया। भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के प्राध्यापक डॉ. प्रमोद कुमार और आकाशवाणी दिल्ली के सलाहकार उमेश चतुर्वेदी, जेपी आंदोलन में शामिल और सामयिक वार्ता पत्रिका से सालों तक जुड़े रहे महेश भाई ने किताब लिखने में समय-समय पर सलाह और मशविरा देकर अपनी महती भूमिका अदा की है। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय की संस्था इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष, वरिष्ठ पत्रकार और मेरे जैसे अनेक लोगों के मार्गदर्शक आदरणीय श्री राय साहब (श्री राम बहादुर राय) का निर्देश था कि अगर गांधी की पत्रकारिता पर कुछ प्रकाशित हो रहा है तो पत्र-पत्रिकाओं में गांधी की पत्रकारिता के प्रसंगों और विचारों को लेने में कोई हर्ज नहीं है। राय साहब ने सलाह और आदेश ही नहीं दिया बल्कि 1998 में प्रेस इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया की पत्रिका ‘विदुर’ में समाजवादी चिंतक और डॉ. राममनोहर लोहिया के समग्र साहित्य और चिंतन का संग्रह को संपादित करने वाले, समाजवादी नेता मधु लिमये के करीबी स्वर्गीय मस्तराम कपूर की गांधी की पत्रकारिता पर छपी विचार उपलब्ध कराया और उन्होंने कहा कि इस तरह की चीजें किताब की उपयोगिता को बढ़ाने के साथ नई पीढ़ियों में गांधीजी की पत्रकारिता की समझ को बढ़ाने में अहम् भूमिका अदा करेगी। लिहाजा इसे ‘विदुर’ से साभार लिया जा रहा है। बड़े भाई समान मार्गदर्शक, वरिष्ठ पत्रकार श्री अरविंद मोहन ने भूमिका लिखने की जिम्मेवारी के साथ-साथ ‘पत्रकार गांधी’ पर अपनी राय भी लिपिबद्ध किया। इसे मैं अपने लिए गौरव मानता हूँ। पत्रकार गांधी नामक इस पुस्तक में लिखने वाले सभी लेखकों का भी धन्यवाद जिन्होंने मुझे इस लायक समझा। नई दुनिया समाचार-पत्र में कला-समीक्षक के तौर पर लेखन के साथ-साथ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ और कविताओं का प्रकाशन करने वाले भोपाल के गर्भनाल पत्रिका’ के संस्थापक एवं पूर्व-सम्पादक श्री आत्मा राम शर्मा जी को धन्यवाद, जिन्होंने 2017 में अपनी गर्भनाल पत्रिका’ में डॉ. सुरेंद्र वर्मा के गांधी की पत्रकारिता पर दर्ज विचार को सहर्ष लेने की स्वीकृति दी। भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी का विशेष आभार, जिन्होंने इस प्रकार की किताबे लिखने को प्रोत्सहित किया।

    लेखकीय विचारों के संकलन-संयोजन और संपादन में जिन्होंने हमारा हौसला बढ़ाया उनमें अमर उजाला के समाचार संपादक राजेश रंजन का बहुत बड़ा योगदान है। राजेश ने किताब में कोई ख़ास जानकारी न छूट जाए या कोई अशुद्धि न रहे, इसका बहुत हद तक ख्याल रखा है। जनसत्ता के हमारे परिवार के प्रियरंजन, प्रतिभा शुक्ला, गजेन्द्र सहित सभी साथियों, बड़े बुजुर्गों के अलावा कायस्थ (चित्रगुप्त) समाज पर अपनी शोध लेखनी से देश-दुनिया में पहचान बनाने वाले मनोहरलाल टेकरीवाल कॉलेज (पूर्ववर्ती सहरसा कॉलेज) सहरसा में हेड लाइब्रेरियन रहे श्री अशोक कुमार वर्मा, गया कॉलेज के प्रोफ़ेसर रहे श्री देव नारायण पासवान ‘देव’ बिहार सरकार के भू-अर्जन विभाग के पूर्व अधिकारी, पूर्णियां निवासी श्री अमरनाथ कंठ, भोला पासवान शास्त्री कॉलेज, मधेपुरा के प्राचार्य रहे प्रो अखिलेश कुमार, प्रो अतुलेश वर्मा, हिंदी की प्राध्यापक अरूणा कुमारी, उत्तर प्रदेश सरकार में कार्यपालक अभियंता अच्युतेश, नवोदित कवयित्री शुभ्रा कुमारी, पटना के अधिवक्ता मनीष वर्मा, डॉ. अमित वर्मा, दिल्ली के सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता खविन्दर सिंह कैप्टन, समाजवादी विचारक राजवीर पंवार, दिल्ली विश्वविधालय के श्यामलाल कॉलेज के प्रो. अनिल ठाकुर और सामाजिक चिन्तक, अधिवक्ता डॉ. अफाक अहमद के साथ—साथ मेरी जीवन संगिनी सत्यम, मेरे प्यारे दोनों बच्चे अवनीश और अनुष्का ने किसी न किसी रूप में अपना कीमती समय देकर पुस्तक प्रकाशन में न सिर्फ अमूल्य योगदान किया है, बल्कि हर कदम पर मेरा हौसला भी बढ़ाया है। इन सभी लोगो को धन्यवाद।

    किताब समय पर आ जाए, इसकी चिंता डायमंड प्रकाशन के सर्वेसर्वा श्री नरेंद्र कुमार वर्मा जी ने बखूबी संवाद बनाए रखते हुए निभाया है, उनके इस मार्गदर्शन का भी मैं आभार व्यक्त करता हूँ।

    अमलेश राजू

    सृजन विहार आवासीय समिति

    न्याय खंड-दो, इंदिरापुरम, गाजियाबाद (उ. प्र.)

    मो. : 8076542210

    amleshraju7@gmail.com

    संप्रेषण के जादुई कलाकार महात्मा गांधी

    - मस्तराम कपूर

    सृ जन और संप्रेषण एक ही मानसिक क्रिया की दो अवस्थाएं हैं। सृजन के बिना संप्रेषण शब्द मात्र होता है और संप्रेषण के बिना सृजन अधूरा। यह सिद्धांत साहित्य, कला, पत्रकारिता और राजनीति सब पर लागू होता है। संप्रेषण की चर्चा अधिकतर साहित्य एवं कला में होती है। पत्रकारिता की जरूरतों ने संप्रेषण की प्रौद्योगिकी का जो विकास किया है, उसने संप्रेषण के अर्थ को ही बदल दिया है। अब हम संप्रेषण के स्थान पर संचार शब्द का प्रयोग अधिक पसंद करते हैं। लेकिन संचार इकतरफा क्रिया है, जो संवाद को भंग करती है जबकि संप्रेषण संवाद की स्थिति है।

    संप्रेषण वस्तुतः शब्द का जादुई विस्फोट है। शब्द जब लिखा जाता है, तो उसमें रहस्यपूर्ण पवित्रता होती है, लेकिन जब वह बोला जाता है या दूसरे द्वारा ग्रहण किया जाता है, तो उसमें अर्थ के विस्फोट के ग्रहण करने वालों की चेतना सुन्न हो जाती है और वे उसे आंख मूंद कर स्वीकार कर लेता है जो उससे कहा जाता है। लेकिन कभी-कभी शब्द सीधे हृदय में प्रवेश कर जाता है और हमारी चेतना का आलोड़न-विलोड़न करता है। हम सचेत मन से उसे ग्रहण करते हैं, उद्दाम कोटी का संप्रेषण यही है।

    महात्मा गांधी का संप्रेषण इसी कोटी का था। वे पाठकों और श्रोताओं को सम्मोहन में नहीं बांधते थे, उनके भीतर खलबली पैदा करते थे और उन्हें खुद सोचने के लिए प्रेरित करते थे। श्रोता समूह को इस रूप में प्रभावित करने के लिए उनके मन में प्रवेश कर उनके सुख-दुख, डर-आशंकाओं और इच्छाओं-आकांक्षाओं को जानना बहुत जरूरी होता है। महात्मा गांधी ने गोपाल कृष्ण गोखले से यही पहला पाठ सीखा था।

    दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद वह अपने भावी कार्यक्रम के बारे में सोच रहे थे, तो मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए वह गोखले जी के पास गए। उन्होंने मशवरा दिया कि जिन लोगों के बीच तुम काम करना चाहते हो, उन्हें जानों और समझों। गांधी जी अच्छे शिष्य की तरह गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। तीसरी श्रेणी के रेल डिब्बे में और पैदल चलकर उन्होंने सारे भारत की यात्रा की। यह यात्रा भूख, बेरोजगारी, गरीबी और फटेहाली से साक्षात्कार था। घोर दरिद्रता में उन्होंने भगवान को देखा और उसे दरिद्र नारायण कहा। तभी उन्होंने निश्चय कर लिया की उन्हें किस तरह की राजनीति करनी है। उनसे पहले भारत की राजनीति पर जिन नेताओं का वर्चस्व था, वे अपने-अपने क्षेत्र की मानी हुई हस्तियां थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय, मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, चितरंजन दास सभी माने हुए विद्वान और भाषण कला में निपुण थे। वे अपने साथ श्रोताओं को बहा ले जा सकते थे। उनकी वाणी में सम्मोहिनी शक्ति थी। वह शब्दों के जादूगर थे और श्रोताओं को हिप्नोटाइज कर सकते थे। गांधी जी ने श्रोताओं के साथ संवाद स्थापित करने का निश्चय किया।

    चंपारण और खेड़ा के सत्याग्रहों ने उन्हें सीधे जनता के बीच जाने, उनसे बातचीत करने तथा समझने का अवसर जुटाया। शायद उसी दौरान उनकी यह धारणा बनी कि संवाद बराबरी के स्तर पर ही स्थापित किया जा सकता है। ऊँचाई से बोलने पर शब्द सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। अतः जिन लोगों से संवाद स्थापित करना है, उनकी बराबरी की सतह पर खड़ा होना जरूरी है। उन्होंने निश्चय किया कि उन्हें भी भारत की विशाल जनता की तरह, आधा भूखा और आधा नंगा रहना है। कुछ लोगों ने इसे पाखंड समझा (अब भी कुछ लोग ऐसा ही मानते हैं) किंतु उन्होंने लोगों की परवाह नहीं की। उन्होंने भूखों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए खुद भूखा का रहने का अभ्यास किया, नंगो के साथ संवाद करने के लिए न्यूनतम वस्त्रों से काम चलाने का व्रत लिया। उन्होंने खादी और चर्खे का व्रत लिया, जो भारत के हर एक किसान को उपलब्ध था। लेकिन इतना ही काफी नहीं था। उन्होंने उन लोगों की भाषा को भी अपनाना था , जिनसे उन्हें संवाद करना था। भाषा, जो संवाद का सबसे बड़ा माध्यम है, के बिना कैसे भारत के आम आदमी तक पहुंचा जा सकता था। खुद गुजराती भाषी होते हुए उन्होंने मिली-जुली हिंदी (हिंदुस्तानी) में बोलने और लिखने का अभ्यास किया। उनसे पूर्व के नेताओं ने अधिकतर अंग्रेजी भाषण का ही संवाद के लिए इस्तेमाल किया था। गुजरात के राजनैतिक सम्मेलन (1917) में मंच पर उनके साथ बाल गंगाधर तिलक और मोहम्मद अली जिन्ना से गांधी ने निवेदन किया कि वह सभी को अंग्रेजी के बजाय किसी भारतीय भाषा में संबोधित करें। तिलक मराठी, गुजराती और हिंदी तीनों भाषाओं में बोल सकते थे। उन्हें विशेष कठिनाई नहीं हुई। लेकिन जिन्ना हिचकिचाए। उन्हें बोलना तो पड़ा, लेकिन वे गांधी के अनुरोध से प्रसन्न नहीं हुए। लेकिन सभा में मौजूद सरदार वल्लभभाई पटेल को इससे प्रसन्नता हुई। सरदार पटेल के जीवनी-लेखक राजमोहन गांधी लिखते हैं- ‘इस घटना से गांधी ने जिन्ना को खो दिया सरदार पटेल को पा लिया’।

    मौन की शक्ति

    भाषा के अलावा गांधीजी ने मौन और उपवास को भी संवाद का शक्तिशाली माध्यम बनाया। यह माध्यम कोई नया नहीं था। भारत के प्रत्येक परिवार में इसे अपनाया जाता था और इसका प्रभाव अचूक था। मां जब बच्चे को समझा-बुझाकर हार जाती है तो वह मौन का सहारा लेती है या उपवास का रास्ता अपनाती

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