श्रद्धा सुमन (आजादी के क्रांतिवीरों को)
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आजादी के अमृत महोत्सव के इस पावन अवसर पर, इस पुस्तक के माध्यम से डॉ. लक्ष्मी रस्तोगी जी ने देशवासियों को उन क्रांति वीरों और वीरांगनाओ की शौर्य गाथाओं से परिचित कराने की एक छोटी सी कोशिश की है, जिनके अदम्य साहस, त्याग, तपस्या और बलिदान के कारण हम क्रूर ब्रितानी शासन की दासता से मुक्त होकर स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र हवा में सम्मानपूर्वक साँस ले सके।
आजादी के महान यज्ञ में अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाली ऐसी सभी पुण्यात्माओ को प्रतिदिन प्रातः स्मरण कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करना हम सभी भारतवासियों का न केवल नैतिक दायित्व है वरन् उनके प्रति यही हमारी सच्ची श्रधान्जली होगी---
"आओ झुककर नमन करें हम उनको,
आजादी के लिये जिन्होंने अपना खून बहाया था।
ख़ुशनसीब थे वे वीर बहादुर क्रांति के योद्धा,
जिनको आजादी की खातिर आत्मोत्सर्ग सुहाया था।"
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श्रद्धा सुमन (आजादी के क्रांतिवीरों को) - Dr. Lakshmi Rastogi
श्रद्धा सुमन
(आजादी के क्रांतिवीरों को)
––––––––
डॉ. लक्ष्मी रस्तोगी
Shape Description automatically generated with low confidencePublished by:
Sahityapedia Publishing
Noida, India – 201301
www.sahityapedia.com
Contact - +91-9618066119, publish@sahityapedia.com
Copyright © 2022 Dr. Lakshmi Rastogi
All Rights Reserved
First Edition – 2022
Format - Ebook
ISBN - 978-93-91470-29-6
This book is published in its present form after taking consent from the author & all reasonable efforts have been made to ensure that the content in this book is error-free. No part of this book may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electrical, mechanical, photocopying, recording or otherwise) without the prior written permission of the publisher.
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स्वीकारोक्ति
मैं डा0 लक्ष्मी रस्तोगी, सबसे पहले तो पाठकों के समक्ष यह स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि यह पुस्तक क्रांतिकारियों की जीवनगाथा का संकलन मात्र है। अतः मै इस पुस्तक की लेखिका न होकर संकलनकर्ता मात्र हूँ। यह वृहत संकलन मैने गूगल, विकिपीडिया, यूनीपीडिया, भारत कोष, जागरण डाट काम, अमर उजाला डाट काम और ऐसे ही अन्य तमाम स्तोत्रो से तथा कुछ पुस्तकों व पेपरों में समय समय पर प्रकाशित सामग्री से लेकर तैयार किया है। इसमे संवेदनाएँ तथा मनोभाव अवश्य मेरे हैं परन्तु फैक्ट्स और चित्र तो उपरोक्त स्त्रोतों से ही लिये गये हैं। क्योकि फैक्ट्स और चित्र अर्थात क्रांतिकारियों का व्यक्तित्व, कृतित्व एवं चेहरा तो बदला नहीं जा सकता, वह तो जो है वही रहेगा। अतः मैं बहुत बहुत आभारी हूँ और धन्यवाद भी देती हूँ उन सभी स्तोत्रो एवं व्यक्तियो को, जिन्होंने जाने अनजाने क्रांतिकारियों की जीवनगाथा के इस वृहत् संकलन को तैयार करने मे मेरी सहायता की है। हाँ, इसमे अगर मुझसे कहीं कोई त्रुटि हुई हो तो सभी के समक्ष क्षमा प्रार्थी भी हूँ।
इस संकलन को तैयार करने का मेरा उद्देश्य केवल इतना ही है कि आज की पीढी उन सभी क्रांतिकारियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की असलियत जाने, जिन्होंने देश की आजादी के लिये तमाम अमानवीय कष्ट और पीडाये सहते हुये हंसते हंसते अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। किन्तु इसके बदले में उन्हें इतिहास में स्थान और सम्मान मिलना तो दूर, अपने लिये आतंकवादी
जैसे शब्द तक सुनने को मिले। जो आजादी से पहले चले गये, वे तो अपना घर-बार, सम्पत्ति यहाँ तक कि अपने प्राण तक बिना किसी प्रतिदान के देकर चले गये। किन्तु जो आजादी के बाद वर्षों तक जीवित रहे, उन्हें भी यह कृतघ्न समाज जीते-जी तो दूर उनकी मृत्यु के बाद भी आदर सम्मान व इतिहास में स्थान न दे सका। अपने ही आजाद देश मे वे गुलामो और गरीबों से बदतर जिन्दगी जीते हुये खामोशी से इस संसार से प्रयाण कर गये, पर न कहीं कोई आँसू गिरा न कोई हलचल हुई।
अन्त मे, मेरी आप सबसे यही प्रार्थना है कि इस संकलन को अधिक से अधिक पढें और जाने, उन हुतात्माओ के बारे मे, जिनके त्याग, तपस्या और आत्म-बलिदान के कारण आज हम आजादी की पवित्र हवा में न केवल साँस ले रहे हैं वरन् संसार मे सम्मान से सिर उठाकर जी रहे हैं।
धन्यवाद।
डॉ लक्ष्मी रस्तोगी
एडवोकेट
मंगलाशा
असीम प्रसन्नता का विषय है कि स्वदेश एवं स्वसंस्कृति के गौरव के प्रति निष्ठावान और स्वभाषा की गरिमा एवं साहित्य सृजन के प्रति समर्पित डॉ लक्ष्मी रस्तोगी की शैक्षिक व सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ सृजन-यात्रा अविराम प्रवाह मान है। नगर के प्रतिष्ठित इंटर कॉलेज की प्रबंधक, साहित्य एवं विधि विशेषज्ञ लक्ष्मी जी पारिवारिक न्यायालय में वकालत करने के साथ ही विधिक जागरूकता के प्रति भी सजग हैं। महिला सशक्तिकरण की पक्षधर डॉक्टर लक्ष्मी ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को सुशिक्षा व हस्तशिल्प का प्रशिक्षण देने में निरंतर सक्रिय हैं। समाजसेवी लक्ष्मी जी जन कल्याण हेतु चिकित्सा एवं रक्तदान शिविर का आयोजन करती हैं।
न्यायिक, शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति समर्पित लक्ष्मी जी साहित्य सृजन के प्रति भी जागरूक रही हैं। अनेक काव्य-रचनाओं की सर्जना के साथ प्रकाशित उनका बाल-कविता-संग्रह तुम बनो महान
लोकप्रिय हुआ है। राष्ट्रप्रेम से अभिभूत डॉक्टर लक्ष्मी रस्तोगी की सशक्त लेखनी से निःसृत भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों, क्रांतिवीरों, आंदोलनकारी, बलिदानी और सत्याग्रहियों की शहादत की गौरवशाली गाथा को सादर नमन करती पुस्तक श्रद्धा सुमन: आजादी के क्रांतिवीरों को
प्रकाशित होने जा रही है।
भारतीय इतिहास में स्वतंत्रता आंदोलन एक युगांतकारी घटना है। अगणित राष्ट्र भक्तों, सच्चे वीर सपूतों, शूरवीरों, वीरांगनाओं ने राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। राष्ट्र-गौरव की रक्षा के लिए अहिंसक आंदोलन के साथ ही देश में क्रांतिकारी आंदोलन भी हुए और भारत का इतिहास महान वीरों की शौर्य-गाथाओं से भरा है। किंतु अनेक स्वतंत्रता सेनानियों के विषय में जन-सामान्य को कोई जानकारी नहीं है। उन क्रांतिवीरों के देशप्रेम एवं बलिदान की कथाओं को न तो सम्मान मिला और न ही इतिहास के पृष्ठों में उनकी स्मृतियों को संजोया गया। आजादी के महान यज्ञ में अपने प्राणों को उत्सर्ग करने वाले सभी पुण्यात्माओं का स्मरण करना, श्रद्धा-सुमन अर्पित करना हम सभी भारत वासियों का नैतिक दायित्व है, और यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है-
गड़ गए जो नींव में, उन पत्थरों को याद कर लो,
खाद बनकर खो गए जो, उन नरों को याद कर लो।
लक्ष्मी जी ने अत्यंत परिश्रम एवं शोध के उपरांत आजादी के अनेक क्रांतिवीरों (स्त्री एवं पुरुष दोनों) के त्याग, समर्पण, संघर्ष, बलिदान और देशभक्ति की अमर गाथा को इस कृति में संजोया है। यह नितांत सत्य है कि देश की आजादी के लिए समर्पित वीरों व वीरांगनाओं ने राष्ट्रीयता का जयघोष किया, देशवासियों को आत्मसम्मान के साथ जीने का संदेश दिया और देश में नवीन शक्ति प्रवाहित की।
आजादी के अमृत महोत्सव के शुभ अवसर पर डॉ लक्ष्मी द्वारा आजादी के महान यज्ञ में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले क्रांतिवीरों की अमर गाथाओं को इस कृति में संकलित करके उन्हें शत-शत नमन करने का सुकृत्य नितांत स्तुत्य है, अभिनंदनीय है। मुझे पूर्ण विश्वास है इस पावन कृति का समस्त भारतवासी सम्यक स्वागत करेंगे, सम्मान प्रदान करेंगे। क्रांतिवीरों, बलिदानियों का प्रेरणास्पद जीवन और शौर्य गाथा अनंत काल तक युवा पीढ़ी को साहस, धैर्य, समर्पण, देश भक्ति एवं जागरण का सन्देश देती रहेगी। आजादी के आलोक स्तंभ क्रांतिवीरों की अमर गाथा इतिहास के विद्यार्थियों के लिए विशेष रूप से लाभप्रद रहेगी। सभी भारत वासियों के लिए यह अमूल्य कृति प्रेरणादायक, पठनीय और संग्रहणीय है। भाषा की सहजता, सम्प्रेषणीयता एवं प्रवाहपूर्ण शैली के कारण यह कृति सहज-ग्राह्य है।
डॉ लक्ष्मी रस्तोगी को सच्चे राष्ट्रभक्त क्रांतिवीरों की अमर गाथा के प्रणयन के लिए हार्दिक बधाई, शुभाशीष एवं अनंत शुभकामनाएं। मैं उनके उत्तम स्वास्थ्य, सुखी एवं सृजनरत जीवन की कामना करती हूं। मेरी शुभेक्षा है डॉ लक्ष्मी की लेखनी ऐसी ही प्रेरणादायी, दिशावाहक एवं देशभक्ति की अलख जगाती सर्जना में गतिशील रहे जिससे राष्ट्रीय चेतना का उद्घोष होने के साथ ही मानव-समाज का कल्याण हो।
बी-181, इंदिरा नगर
लखनऊ-226016
चलभाष 9335212581
प्रोफेसर (डॉ) उषा सिन्हा
पूर्व अध्यक्ष, भाषा विज्ञान विभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय
लेखिका की कलम से
भारत का इतिहास ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिसमें देश के स्वतन्त्रता सेनानियों ने अंग्रेजी प्रशासन के खिलाफ अदम्य साहस, वीरता, धैर्य और दृढ़ संकल्प का प्रदर्शन किया। ऐसे कुछ ही स्वतन्त्रता सेनानियों को इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में स्थान दिया गया है। जबकि अधिकतर को उचित पहचान नहीं मिल पाई है। जिससे मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राण देने वाले कई वीर स्वतन्त्रता सेनानी गुमनामी के अँधेरे में आ गये। यह स्वतन्त्रता हमें यूँ ही नहीं मिली है, इसके लिये न जाने कितने वीर पुरुष फाँसी के फन्दे पर झूल गये, न जाने कितने बेटों ने अपने सीने पर गोली खाई, तब जाकर हमें यह स्वतन्त्रता मिली है। यह देश सदियों तक ऐसे वीर हुतात्माओं का ऋणी रहेगा जिन्होने देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
भारत को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष हो चुके हैं। इस स्वतंत्रता को पाने के लिए हमारे देश के क्रांतिकारियों को एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी। भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने के लिए इस लड़ाई में न केवल कई आंदोलन हुए, बल्कि सशस्त्र विद्रोह की भी एक अखंड परंपरा रही है। भारत में अंग्रेजी राज्य के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का आरम्भ हो गया था। बंगाल में सैनिक विद्रोह, चुआड़ विद्रोह, सन्यासी विद्रोह एवं सन्थाल विद्रोह आदि अनेक सशस्त्र विद्रोहों की परिणति 1857 के विद्रोह के रूप में हुई।
1857 का विद्रोह जिसे ’’प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम’’ के रूप में जाना जाता है, ब्रितानी शासन के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह था। इस विद्रोह का आरम्भ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों और आगजनी से हुआ था। आगे चलकर इसने ही विकराल रूप ले लिया। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की बढ़ती औपनिवेशवादी नीतियों एवं शोषण के खिलाफ इस आन्दोलन ने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी थी। 1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास में विशिष्ट स्थान रखता है क्योंकि इसे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का आरम्भ माना जाता है।
विभिन्न इतिहासकारों के 1857 की क्रान्ति के बारे में भिन्न-2 मत हैं। कुछ इतिहासकार इसे केवल ’’सैनिक विद्रोह’’ मानते हैं, तो कुछ इसे ’’ईसाइयों के विरुद्ध हिन्दू मुस्लिम षडयन्त्र’’ मानते हैं। सर जॉन लॉरेन्स एवं सीले के विचार में ’’1857 का विद्रोह सिपाही विद्रोह मात्र’’ था। वीर सावरकर का मत है’’ यह विद्रोह राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिये सुनियोजित युद्ध था। ’’ जेम्स आउटम एवं डब्ल्यू टेलर के विचार में ’’यह अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू एवं मुसलमानों का षडयन्त्र था। ’’ विपिन चन्द्र के अनुसार’’ 1857 का विद्रोह विदेशी शासन से राष्ट्र को मुक्त कराने का देश भक्ति पूर्ण प्रयास था। ’’ कोई कुछ भी कहे किन्तु सत्य तो यही है कि 1857 का विद्रोह अंग्रेजी शासन से भारत की मुक्ति का बीजारोपड़ था।
सन् 1857 का विप्लव भारत भूमि पर ब्रितानी राज्य के इतिहास की सबसे अधिक रोमांचकारी व महत्वपूर्ण घटना थी। यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु यह अनेक कारणों का परिणाम थी। लार्ड कैनिंग के, गवर्नर जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 की महान क्रान्ति हुई। इस क्रान्ति का आरम्भ 10 मई 1857 को मेरठ में हुआ। जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झाँसी, दिल्ली तथा अवध आदि स्थानों पर फैल गया। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई थी। परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदलकर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया। परन्तु दुर्भाग्य से स्वतन्त्रता का यह प्रथम संघर्ष असफल हो गया। किन्तु इसके साथ ही सुखद बात यह भी थी कि इस प्रथम स्वतन्त्रता संघर्ष के असफल हो जाने के बाद भी विद्रोह की अग्नि ठण्डी नहीं हुई थी।
शीघ्र ही 10-15 वर्षों बाद पंजाब में कूका विद्रोह व महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के का छापामार युद्ध शुरू हो गया। संयुक्त प्रान्त में पं0 गेंदालाल दीक्षित ने शिवाजी समिति और मातृवेदी नामक संस्था की स्थापना की। बंगाल में क्रान्ति की अग्नि सतत् जलती रही। सरदार अजीत सिंह ने 1857 के स्वतन्त्रता आन्दोलन की पुनरावृत्ति के प्रयास शुरू कर दिये। रास बिहारी बोस और शचीन्द्र नाथ सान्याल ने बंगाल, बिहार व पंजाब से लेकर पेशावर तक की सभी छावनियों में प्रवेशकर 1915 में पुनः विद्रोह की सारी तैयारी कर ली। दुर्दैव से यह प्रयत्न भी असफल हो गया। इसके बाद भी नये-नये क्रान्तिकारी उभरते रहे। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह और उनके साथियों ने अफगान प्रदेश में अस्थायी व समानान्तर सरकार स्थापित कर ली। सैन्य संगठन कर ब्रिटिश भारत से युद्ध भी किया।
रास बिहारी बोस ने जापान में आजाद हिन्द फौज के लिये अनुकूल भूमिका बनाई। मलाया व सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज संगठित हुई। सुभाष चन्द्र बोस ने इस कार्य को आगे बढ़ाया। उन्होंने भारत भूमि पर अपना झण्डा गाड़ा। आजाद हिन्द फौज का भारत में भव्य स्वागत हुआ। उसने भारत में ब्रिटिश फौज की आँखें खोल दीं।
भारतीयों का नाविक विद्रोह तो ब्रिटिश शासन पर अन्तिम प्रहार था। अंग्रेज मुट्ठीभर गोरे सैनिकों के बल पर नहीं बल्कि भारतीयों की फौज के बल पर शासन कर रहे थे। आरम्भिक सशस्त्र विद्रोह में क्रान्तिकारियों को भारतीय जनता की सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। वे अपने संगठन व कार्यक्रम गुप्त रखते थे। अंग्रेजी शासन द्वारा शोषित जनता में उनका प्रचार नहीं था। अंग्रेजों के क्रूर, अत्याचारी व अमानवीय व्यवहारों से ही उन्हें इनके विषय में जानकारी मिली। विशेषतः काकोरी काण्ड के अभियुक्तों व भगत सिंह तथा उनके साथियों ने जनता का प्रेम व सहानुभूति अर्जित की। भगत सिंह ने अपना बलिदान क्रान्ति के उद्देशय से प्रचार के लिये ही किया था। जनता में जागृति लाने का कार्य गाँधी के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने किया। बंगाल की सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी कमला दास गुप्ता ने कहा कि- क्रान्तिकारियों की निधि थी कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान’’ और महात्मा गाँधी की निधि थी
अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान। ’’ सन् 1942 के बाद उन्होंने "अधिकतम व्यक्ति अधिकतम बलिदान’’ का मन्त्र दिया।
भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति में क्रान्तिकारियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। भारतीय क्रान्तिकारियों के कार्य कुछ सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। बल्कि भारत माता के पैरों में बँधी जंजीरों की श्रंखला तोड़ने के लिये सतत् संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा रही है। देश की रक्षा के लिये कर्तव्य समझकर उन्होंने शस्त्र उठाये थे। उनका उद्देश्य मात्र अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान लौटाना चाहते थे। एक तरफ अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में क्रान्ति की ज्वाला थी तो दूसरी तरफ अध्यात्म का आकर्षण भी था। हँसते-2 फाँसी के फन्दे का चुम्बन करने वाले व मातृभूमि के लिये सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं विचारवान भी थे। उन्होंने देश के संविधान की रचना भी की थी। सम्भवतः देश को स्वतन्त्रता यदि सशस्त्र क्रान्ति द्वारा मिली होती तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता। अन्ततः जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से 15 अगस्त 1947 का वह दिन आया जब भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त हुई, उन वीरों को उचित सम्मान नहीं मिला। तमाम देशभक्त क्रान्तिकारियों को स्वतन्त्रता के बाद गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। ये शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं..................
"उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे-वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।’’
अनेक क्रान्तिकारियों की अस्थियाँ आज भी विदेशों में हैं। अनेकों के घर भग्नावशेष हैं। उनके घरों के स्थान पर आलीशान होटल बन गये हैं। उनकी बची हुई पीढ़ी भी समाप्त हो गई है। सोचकर बेहद दुख होता है कि कुछ खास लोगों को छोड़कर बाकियों को देश ने भुला दिया। लम्बे त्याग, बलिदान और आजादी के लिये उनके संघर्ष को इतिहास में तवज्जो नहीं दी गई। ......
"जाने कितने झूले थे फाँसी पर कितनों ने गोली खाई थी
पर झूठ देश से बोला कोरा कि चरखे से आजादी आई थी।
चरखा हर दम खामोश रहा और अन्त देश को बाँट दिया
लाखों बेघर, लाखों मर गये जब गाँधी ने बन्दर बाँट किया।
जिन्ना के हिस्से पाक गया नेहरू को हिन्दुस्तान मिला
जो जान लुटा गये भारत पर उन्हें कुछ न सम्मान मिला।
जो देश के लिये जिये मरे और फाँसी के फन्दे पर झूल गये
हमें गाँधी नेहरू तो याद रहे पर अमर पुरोधा हम भूल गये।’’
लेकिन इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास महिलाओं के योगदान का उल्लेख किये बिना अधूरा रहेगा। भारत की महिलाओं द्वारा किये गये बलिदान का स्थान सबसे आगे है। उन्होंने सच्ची भावना और अदम्य साहस के साथ आजादी की लड़ाई लड़ीं। इस लड़ाई में तमाम यातनायें, शोषण, अपमान और कठिनाइयाँ झेलने के बाद भी वे मैदान में डटी रहीं।
जब अधिकाँश पुरुष स्वतन्त्रता सेनानी जेल में थे तब महिलाओं ने आगे आकर संघर्ष की कमान सँभाली। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में अंग्रेजों से जमकर लोहा लेने वाली समर्पित महिलाओं की लम्बी कतार है। 1817 की शुरुआत में भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी शुरू हुई। भीमा बाई होल्कर ने ब्रिटिश कर्नल बवसवद मैल्कम के खिलाफ बड़ी बहादुरी से लड़ाई लड़ी, और उसे गुरिल्ला युद्ध में हराया। कित्तूर की रानी चेन्नमा, अवध की रानी बेगम हजरत महल सहित कई महिलाओं ने आजादी के पहले युद्ध 1857 से भी 30 साल पहले, 19वीं शताब्दी में ही ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नींव हिला दी थी। रामगढ़ की रानी अवन्ती बाई, पंजाब की रानी जिंदन कौर, रानी तेसबाई, बाईजा बाई, चैबन रानी और तपस्वनी महारानी ने सैनिकों का युद्ध के मैदान में सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, जिनकी वीरता और शानदार नेतृत्व ने देशभक्ति की एक अद्भुत व उत्कृष्ट मिसाल पेश की।
राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होने वाली भारतीय महिलायें शिक्षित और उदारवादी होने के साथ-2 ग्रामीण क्षेत्रों से तथा जीवन के सभी क्षेत्रों, धर्मों, जातियों और समुदायों से थीं। 20वीं शताब्दी में सरोजनी नायडू, एनीबेसेन्ट, कस्तूरबा गाँधी तथा विजय लक्ष्मी आदि कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्हें आज भी युद्ध के मैदान में और राजनीतिक क्षेत्र में उनके विलक्षण योगदान के लिये याद किया जाता है। देश का गौरव बढ़ाने वाली एवं महिला सशक्तीकरण की मिसाल पेश करने वाली ऐसी ही महान महिलाओं के लिये ही किसी ने कहा है—
"आओ झुक कर सलाम करें उनको,
जिनके हिस्से में यह मुकाम आता है,
खुशनसीब होता है वह खून,
जो देश के काम आता है।।’’
किन्तु दुख की बात है कि क्रान्ति के पथ पर अपना बलिदान देने वाली, वीर क्रान्तिकारी सेनानियों की छुप-छुपकर मदद करने वाली, अनेक संगठनों व आन्दोलनों का नेतृत्व करने वाली, पुरुषों की तरह सड़कों पर मार्च करने वाली, बेझिझक हथियार चलाने वाली तथा क्रूर कारावास का अमानवीय दण्ड भोगने वाली, यहाँ तक कि देश के कार्य के लिये अपना घरबार तक छोड़ देने वाली इन वीरांगनाओं के बारे में इतिहास आज भी खामोश है।
घोर निराशा के बीच भी आशा की एक किरण बस यही है कि सामान्य जनता में बलिदानी क्रान्तिकारियो और देश का गौरव बढ़ाने वाली क्रान्तिकारी वीरांगनाओं के प्रति सम्मान की थोड़ी सी भावना अभी भी शेष है। अतः उस आगामी पीढ़ी तक इन शहीदों की गाथाये पहुंचाना हमारा दायित्व है। क्रांतिकारियों और क्रांतिकारी वीरांगनाओ पर लिखने के कुछ प्रयत्न हुये भी हैं, परन्तु वे नाकाफी हैं। अभी भी बहुत कुछ अबूझ और अनकहा शेष है।
आइये, आज आजादी के इस अमृत महोत्सव के अवसर पर हम श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं आजादी के क्रांतिवीरों को और पुनः कोशिश करते हैं इतिहास के पन्नों में गुम हो चुके उन ज्ञात - अज्ञात वीर बलिदानी क्रान्तिकारियों तथा वीरांगनाओं के बारे मे कुछ जानने की....
अनुक्रमणिका
1) मंगल पाण्डेय (19 जुलाई 1827-8 अप्रैल 1857)
2) लाला लाजपत राय (28 जनवरी 1865-17 नवम्बर 1928)
3) बाल गंगाधर तिलक (23 जुलाई 1856-1 अगस्त 1920)
4) विपिन चन्द्र पाल (7 नवम्बर 1858-20 मई 1932)
5) लाला हरदयाल (14 अक्टूबर 1884-4 मार्च 1939)
6) रास बिहारी बोस (25 मई 1886-21 जनवरी 1945)
7) विनायक दामोदर सावरकर (28 मई 1883-26 फरवरी 1966)
8) सुभाष चन्द्र बोस (23 जनवरी 1897-18 अगस्त 1945)
9) देशबन्धु चितरंजन दास (5 नवम्बर 1870-16 जून 1925)
10) भगत सिंह (28 सितम्बर 1907-23 मार्च 1931)
11) चन्द्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906-27 फरवरी 1931)
12) पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल (11 जून 1897-19 दिसम्बर 1927)
13) अशफाक उल्ला खाँ (22 अक्टूबर 1900-19 दिसम्बर 1927)
14) ठाकुर रोशन सिंह (22 जनवरी 1892-19 दिसम्बर 1927)
15) सुखदेव थापर (15 मई 1907-23 मार्च 1931)
16) शिवराम हरि राजगुरू (24 अगस्त 1908-23 मार्च 1931)
17) बटुकेश्वर दत्त (18 नवम्बर 1910-20 जुलाई 1965)
18) मदनलाल ढींगरा (18 सितम्बर 1883-17 अगस्त 1909)
19) राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी (29 जून 1901-17 दिसम्बर 1927)
20) भगवती चरण वोहरा (4 जुलाई 1904 -28 मई 1930)
21) सरदार अजीत सिंह (23 फरवरी 1881-15 अगस्त 1947)
22) खुदीराम बोस (3 दिसम्बर 1889-11 अगस्त 1908) और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी
23) शहीद ऊधम सिंह (26 दिसम्बर 1899-31 जुलाई 1940)
24) मन्मथनाथ गुप्त (7 जनवरी 1908-26 अक्टूबर 2000)
25) शचीन्द्र नाथ बक्शी (25 दिसम्बर 1904-23 नवम्बर 1984)
26) शचीन्द्र नाथ सान्याल (1893-7 फरवरी 1942)
27) जतीन्द्रनाथ मुखर्जी ’बाघा जतीन (1879-10 सितम्बर 1915)
28) यतीन्द्र नाथ दास ’जतिन दा’ (27 अक्टूबर 1904-13 सितम्बर 1929)
29) करतार सिंह सराभा (1896-16 नवम्बर 1915)
30) हेमू कालाणी (23 मार्च 1923-21 जनवरी 1943)
31) भाई परमानन्द (4 नवम्बर 1876-8 दिसम्बर 1947)
32) चाफेकर बन्धु-दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर, वासुदेव हरि चाफेकर
33) सदाशिव मलकापुरकर (1911-1995)
34) श्याम जी कृष्ण वर्मा (4 अक्टूबर 1857-31 मार्च 1930)
35) ’भारतवीर’ मुकुन्दी लाल गुप्ता (जनवरी 1901-18 अक्टूबर 1972)
36) गेंदा लाल दीक्षित (30 नवम्बर 1888-21 दिसम्बर 1920)
37) विष्णु गणेश पिंग्ले (2 जनवरी 1888-16 नवम्बर 1915)
38) योगेश चन्द्र चटर्जी (1895-2 अप्रैल 1969)
39) बैकुण्ठ शुक्ल (15 मई 1907-14 मई 1934)
40) राज नारायण मिश्र (संवत् 1976 - 9 दिसम्बर 1944)
41) मास्टर सूर्य सेन (22 मार्च 1894-12 जनवरी 1934)
42) वासुदेव बलवन्त फड़के (4 नवम्बर 1845-17 फरवरी 1883)
43) अनन्त लक्ष्मण कन्हेरे (7 जनवरी 1892-19 अप्रैल 1910)
44) दिनेश चन्द्र गुप्त, विनय कृष्ण बसु, बादल गुप्ता
45) चारुचन्द्र बोस
46) पुलिन बिहारी दास (24 जनवरी 1877-17 अगस्त 1949)
47) बसन्त कुमार बिस्वास (6 फरवरी 1895-11 मई 1915)
48) विजय सिंह पथिक उर्फ भूप सिंह गुर्जर (27 फरवरी 1882-28 मई 1954)
49) विश्वनाथ वैशम्पायन ’’बच्चन’’ (28 नवम्बर 1910-20 अक्टूबर 1967)
50) राम नारायण दुबे ’आजाद’ (18 अक्टूबर 1898-10 अगस्त 1947)
51) द्वारिका प्रसाद पाण्डेय (-27 दिसम्बर 1981)
52) धरती आबा-बिरसा मुण्डा
53) बंता सिंह संघवाल (1890-12 अगस्त 1915)
54) ’’बलिया का शेर’’ चित्तू पाण्डेय (10 मई 1865- 1946)
55) "सारण के शेर’’ रामदेनी सिंह (1904-4 मई 1932)
56) तिलका माँझी, सिद्धू संथाल, गोची माँझी
57) भोगता जनजातीय वीर-नीलाम्बर पीताम्बर
58) मणीन्द्र नाथ बनर्जी (13 जनवरी 1909-20 जून 1934)
59) रोशन लाल मेहरा (1913-1 मई 1933)
60) गोपीनाथ साहा (1901-1 मार्च 1924)
61) वामन नारायण जोशी (1889-14 जनवरी 1964)
62) इन्द्र सिंह गढ़वाली (1906-1952)
63) भवानी सिंह रावत (8 अक्टूबर 1910-6 मई 1986)
64) नलिनी कान्त बागची (1896-16 जून 1918)
65) बाबा सोहन सिंह भकना (जनवरी 1870-20 दिसम्बर 1968)
66) सोहन लाल पाठक (7 जनवरी 1883-10 फरवरी 1916)
67) तारकेश्वर दस्तीदार (1809-12 जनवरी 1934)
68) अवध बिहारी बोस (1869- 11 मई 1915)
69) शम्भूनाथ आजाद
70) बच्चू लाल भट्ट
71) तारिणी प्रसन्न मजूमदार (-15 जून 1918)
72) सूफी अम्बा प्रसाद भटनागर (1855-21 जनवरी 1917)
73) अनाथ बन्धु पांजा एवं मृगेन्द्र कुमार दत्त (-2 सितम्बर 1933)
74) कन्हाई लाल दत्त (30 अगस्त 1888-10 नवम्बर 1908
75) पण्डित ब्रजभूषण मिश्र ’ग्रामवासी’ (27 अगस्त 1899-6 अगस्त 1995)
76) पीर अली खाँ (1820-7 जुलाई 1857)
77) मौलाना अहमद उल्लाह शाह उर्फ डंका शाह
78) राजा बलभद्र सिंह रैकवार
79) राजा जयलाल सिंह (1803-1859)
80) इकौना के राजा- राजा उदित प्रताप सिंह
81) गोंडा के राजा-राजा देवी बक्श सिंह
82) राजा अशरफ बक्श सिंह
83) राजा दिग्विजय सिंह (-1906)
84) मधुकरशाह बुन्देला (द्वितीय)
85) 1857 की क्रान्ति के सूत्रधार दलित स्वतंत्रता सेनानी
1) उदइया चमार
2) बाँके चमार
3) गंगादीन मेहतर—
4) बालूराम मेहतर
5) मातादीन वाल्मीकि
6) मक्का पासी
7) चेताराम जाटव
8) बाबू मंगूराम
86) ग्राम दुबारी के शहीद
1) हरखसिंह, हुलाससिंह व बिहारी सिंह
2) बाबू कुँवर सिंह
3) ठाकुर जालिम सिंह
87) पिपरीडीह के शहीद-
1) रामलखन सिंह, श्याम नारायण सिंह, अवध नारायण सिंह
2) पिपरीडीह ट्रेन लूट काण्ड के क्रान्तिकारी
88) अमिला काण्ड के क्रान्तिकारी
1) अलगू राय शास्त्री, पटेश्वरी राय, रामशंकर राय, राधे राय, रामचन्द्र राय तथा बल्देव राय
89) मोहम्मदाबाद गोहना का क्रान्तिवीर
1) रामधारी राय
90) सुल्तानपुर के क्रान्तिवीर
91) महिला स्वतन्त्रता सेनानी
1) झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (19 नवम्बर 1835-18 जून 1858)
2) झलकारी बाई (22 नवम्बर 1830-4 अप्रैल 1857)
3) रानी अवन्ती बाई लोधी (16 अगस्त 1831-20 मार्च 1858)
4) ऊदा देवी पासी (-16 नवम्बर 1857)
5) बेगम हजरत महल (1820-7 अप्रैल 1879)
6) ईश्वरी देवी-तुलसीपुर की रानी
7) कित्तूर की रानी चेन्नम्मा (23 अक्टूबर 1778 -21 फरवरी 1829)
8) रानी गाइडिन्ल्यू (1915-)
9) असम की लक्ष्मीबाई-वीरांगना कनकलता बरुआ (22 दिसम्बर 1924- 1942)
10) दुर्गा देवी बोहरा उर्फ दुर्गा भाभी (7 अक्टूबर 1907-15 अक्टूबर 1999)
11) भारत कोकिला-सरोजनी नायडू (13 फरवरी 1879- 2 मार्च 1449)
12) कैप्टन लक्ष्मी सहगल (24 अक्टूबर 1914-23 जुलाई 2012)
13) गदरी गुलाब कौर (1890- 1931)
14) प्रीतिलता वाडेकर (5 मई 1911-24 सितम्बर 1932)
15) सुनीति चौधरी (22 मई 1917-12 जनवरी 1988)
16) हेलेन लेपचा (14 फरवरी 1902-18 अगस्त 1982)
17) कल्पना दत्त (27 जुलाई 1913-8 फरवरी 1995)
18) कमला देवी चट्टोपाध्याय (3 अप्रैल 1903-29 अक्टूबर 1988)
19) बीना दास/वीणा दास (24 अगस्त 1911-मृत्यु तिथि-अज्ञात)
20) मातंगिनी हाजरा (19 अक्टूबर 1870-29 सितम्बर 1942)
21) सुशीला देवी (5 मार्च 1905-13 जनवरी 1963)
22) तारा रानी श्रीवास्तव (जन्म मृत्यु तिथि अज्ञात)
23) बसन्त लता हजारिका (जन्म मृत्यु तिथि अज्ञात)
24) सुहासिनी गांगुली (3 फरवरी 1909-23 मार्च 1965)
25) उमाबाई कुंडापुर (1892- 1992)
26) ऊषा मेहता (25 मार्च 1920-11 अगस्त 2000)
27) राजकुमारी गुप्ता (1902-मृत्यु तिथि अज्ञात)
28) भोगेश्वरी देवी फुकन/फुकनानी (1872 -20 सितम्बर 1942)
29) अन्नपूर्णा महाराणा (3 नवम्बर 1917-31 दिसम्बर 2012)
30) इन्दुमति बाबूजी पाटणकर (15 सितम्बर 1925-)
31) अजीजन बाई (22 जनवरी 1824-)
* * *
1) मंगल पाण्डेय (19 जुलाई 1827-8 अप्रैल 1857)
स्वाधीनता संग्राम का जिक्र जब भी आयेगा, मंगल पाण्डेय का नाम न केवल सुनहरे अक्षरों में बल्कि शुरुआत में ही लिखा जायेगा। उनके द्वारा भड़काई गई क्रान्ति की ज्वाला ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन को बुरी तरह हिला दिया था। वे ईस्ट इण्डिया कम्पनी की 34वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के सिपाही थे। तत्कालीन अंग्रेजी शासन ने उन्हें बागी करार दिया था। जबकि आम हिन्दुस्तानी उन्हें आजादी की लड़ाई के नायक के रूप में सम्मान देता था। मंगल पाण्डेय द्वारा गाय व सुअर की चर्बी मिले कारतूस को मुँह से काटने से मना कर दिये जाने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर 8 अप्रैल 1857 को फाँसी दे दी गई थीं।
मंगल पाण्डेय का जन्म 19 जुलाई 1827 को उ0प्र0 के बलिया जिले के गाँव नगवा में एक सामान्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दिवाकर पाण्डेय तथा माता का नाम अभय रानी था। इनका बचपन आम बच्चों जैसा ही था। अतः 1849 में 22 साल की उम्र में ही वे ईस्ट इण्डिया कम्पनी की बैरकपुर छावनी में 34वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री की पैदल सेना में सिपाही के तौर पर भर्ती हो गये थे। उसमें ज्यादा संख्या में ब्राह्मण ही भर्ती किये जाते थे। नौकरी के एक साल बाद ही उनकी कम्पनी में नई ’’एनफील्ड-पी 53’’रायफल लाई गई। इसके साथ जो नये कारतूस लॉच किये गये, उनमें कथित तौर पर गाय और सुअर की चर्बी मिली होती थी। इन कारतूसों को चलाने के लिये मुँह से काटकर लोड करना पड़ता था। जो भारतीय सैनिकों को स्वीकार नहीं था।
मंगल पाण्डेय के मन में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्वार्थी नीतियों के कारण पहले से ही अंग्रेजी हुकूमत के प्रति नफरत थीं। इस पर जब सेना की बंगाल इकाई में नई ’’एनफील्ड-पी 53’’ रायफल के कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी मिली होने की खबर फैली, तो हिन्दू व मुसलमान सभी भारतीय सैनिक भड़क उठे। इसके बाद 9 फरवरी 1857 को जब यह कारतूस देसी पैदल सेना को बाँटे गये, तब उन्हें लेने व उनका इस्तेमाल करने से लगभग सभी भारतीय सैनिकों ने इन्कार कर दिया। 29 मार्च 1857 को मंगल पाण्डेय ने भी इन कारतूसों को लेने से इन्कार करते हुये अंग्रेजों के खिलाफ बैरकपुर छावनी में विद्रोह की शुरूआत कर दी।
मंगल पाण्डेय की इस हरकत से गुस्साये अंग्रेज अफसर द्वारा मंगल पाण्डेय से उनके हथियार छीनकर उनकी वर्दी उतरवाने का आदेश दे दिया गया। मंगल पाण्डेय ने इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया। यही नहीं, उनकी रायफल छीनने के लिये आगे बढ़ रहे अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन पर आक्रमण कर उसे मौत के घाट उतार दिया। साथ ही उनके रास्ते में आये दूसरे अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिने ट बॉब को भी मौत के घाट उतार दिया। इस तरह मंगल पाण्डेय ने बैरकपुर छावनी में 29 मार्च 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया।
यही नहीं, ’’मारो फिरंगी को’’के नारे के साथ इन्होने अंग्रेजों पर हमला कर दिया। परिणामस्वरूप इन्हें गिरफ्तार कर इनपर मुकदमा चलाया गया। और 6 अप्रैल 1857 को इन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई। अंग्रेजों के इस फैसले का जनता द्वारा जमकर विरोध किया गया। 18 अप्रैल 1857 को इन्हें फाँसी दी जानी थी। किन्तु जनता के आक्रोश को देखते हुये अंग्रेजों को डर था कि मंगल पाण्डेय द्वारा विद्रोह की जो चिंगारी सुलगाई गई है, उससे पूरे देश में क्रान्ति की ज्वाला भड़क सकती है। अतः उन्होंने तय तारीख से 10 दिन पहले 8 अप्रैल 1857 को ही मंगल पाण्डेय को फाँसी दे दी।
मंगल पाण्डेय एकमात्र ऐसे क्रान्तिकारी थे, जिनके नाम से एक तरफ अंग्रेज थर्राते थे, तो दूसरी तरफ उनकी वीरता और साहस का मन से सम्मान करते थे। यही नहीं, जल्लादों ने भी सर झुकाकर उन्हें फाँसी देने से इन्कार कर दिया था। अतः अंग्रेजों को कलकत्ते से दूसरे जल्लाद बुलाने पडे थे। वे भी तैयार नहीं थे। परन्तु उनपर दबाव डालकर जबरन उन्हें मंगल पाण्डेय को फाँसी देने हेतु तैयार किया गया था। अंग्रेजों को लग रहा था कि वे समय पूर्व मंगल पाण्डेय को फाँसी पर लटका कर सब सँभाल लेगें। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। क्रान्ति की ज्वाला जल चुकी थी। मंगल पाण्डेय की फाँसी के बाद देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्से और नफरत की आग भड़क उठी थी। लोगों में आक्रोश बढ़ने लगा।
इस तरह 1857 की क्रान्ति के रूप में भारत के पहले स्वतन्त्रता संग्राम ने जोर पकड़ा। जिसके कारण आगे जाकर भारत को आजादी मिली। इसी कारण मंगल पाण्डेय को ’’भारत की आजादी की पहली लड़ाई का शंखनाद करने वाला अग्रदूत’’ कहा जाता हैं। और भारतीय इतिहास में इस घटना को ’’1857 का गदर’’ नाम दिया गया। मंगल पाण्डेय द्वारा किया गया यह विद्रोह ही’’ भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’’ कहा जाता है। जिसमें सैनिकों की तरह राजे-रजवाड़े, किसान, मजदूर व अन्य सभी सामान्य लोग शामिल हुये।
1984 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। मंगल पाण्डेय का नाम आज भी भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। उनके साहस की कहानी हमेशा आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।
2) लाला लाजपत राय (28 जनवरी 1865-17 नवम्बर 1928)
लाला लाजपत राय भारत के एक प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी थे। इन्हे ’पंजाब केसरी’ भी कहा जाता है। इन्होने ’पंजाब नेशनल बैंक’ तथा ’लक्ष्मी बीमा कम्पनी’ की स्थापना की थी। लाला जी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस में गरम दल के प्रमुख तीन नेताओं ’लाल बाल पाल’ में से एक थे। सन् 1928 में लाला जी ने साइमन कमीशन के विरुद्ध एक प्रदर्शन में हिस्सा लिया था। जिसके दौरान हुये लाठीचार्ज में लाला जी इतनी बुरी तरह घायल हो गये थे कि अन्ततः 17 नवम्बर 1928 को ही अपनी घायल पार्थिव देह त्याग कर परलोक गमन कर गये थे।
लाला जी का जन्म पंजाब के मोंगा जिले में 28 जनवरी 1865 को एक जैन परिवार में हुआ था। लाला जी ने कुछ समय तक हरियाणा के रोहतक व हिसार शहर में वकालत भी की। लाला जी तथा बाल गंगाधर तिलक व विपिन चन्द्र पाल ने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की थी। बाद में समूचा देश इनके साथ हो गया था। तभी से इन तीनों नेताओं की तिकड़ी को ’लाल बाल पाल’ के नाम से जाना जाने लगा। लाला जी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ मिलकर आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया तथा लाला हंसराज व कल्याण चन्द्र दीक्षित के साथ मिलकर ’’दयानन्द ऐंग्लो वैदिक विद्यालयों’’ का प्रसार किया। जिन्हें आजकल लोग ’डी0ए0वी0 स्कूल्स व कॉलेज’ के नाम से जानते हैं। लाला जी ने अनेक स्थानों पर शिविर लगाकर अकाल पीड़ितों की भी सेवा की।
लाला जी ने देश में विशेषकर पंजाब में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये बहुत सहयोग किया। उन्होंने देश में हिन्दी लागू करने के लिये हस्ताक्षर अभियान भी चलाया था। स्वयं लाला जी ने हिन्दी में शिवा जी, श्री कृष्ण, मैजिनी, गैरीबल्डी तथा कई अन्य महापुरुषों की जीवनियाँ भी लिखीं। उन्होंने पंजाब में ही ’द पंजाब’ नाम से एक पत्रिका भी शुरू की थी। उनकी 1928 में लिखी ’दुखी भारत’ नामक पुस्तक ’अनहैप्पी इण्डिया’ नाम से अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुई।
इसके अलावा उन्होंने और भी कई किताबें हिन्दी में लिखी। लाला जी का कहना था कि अतीत को देखते रहना व्यर्थ है, जबतक उस अतीत पर गर्व करने योग्य भविष्य के निर्माण के लिये कार्य न किया जाये। उनका मानना था कि नेता वह है जिसका नेतृत्व प्रभावशाली हो, जो अपने अनुयायियों से सदैव आगे रहता हो और जो साहसी व निर्भीक हो। लाला जी गरम दल के नेता थे। वे अहिंसा पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं करते थे। उनका मानना था कि शान्तिपूर्ण साधनों से स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। और रही क्रान्ति पथ पर पराजय या असफलता की बात तो पराजय और असफलता कभी-2 विजय की ओर जरूरी कदम होते हैं।
30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध आयोजित एक प्रदर्शन में हुये लाठीचार्ज में बुरी तरह से घायल लाला जी ने कहा था कि-’मेरे शरीर पर पड़ी एक एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत