Sattantaran : Bharat Ki Azadi Ka Swarnim Savera (सत्तांतरण : भारत की आज़ादी का स्वर्णिम सवेरा)
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हजारों वर्षों तक विदेशी शासन के अधीन रहने के बावजूद भारत की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर और सभ्यता की विशिष्टता कायम रही । भारतीय नेताओं के मध्य राजनीतिक भागीदारी इतनी प्रगाढ़ थी कि उसने ब्रिटिश नेताओं की चालाकी व कूटनीति को हर पहलू में मात दी।
विंस्टन चर्चिल भारत को अपना स्थाई गुलाम बनाए रखे रहना चाहता था। भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता देना उसके लिए एक शर्मनाक हार सदृश्य थी। लेकिन भारतीय नेताओं के मजबूत रातनीतिक कौशल एवं मजबूत इरादों ने स्वतंत्रता हासिल कर ब्रिटिशों को करारी हार दी । बैरिस्टर जिन्ना ने इस स्वतंत्रता के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न की व भारत की अखंडता को खंडित कर विभाजन का कारण बने । ब्रिटिशों ने भारत को इस आशा के साथ दो अलग-अलग राष्ट्रों में विभाजित कर दिया ताकि वे भारत के उन नाजुक राज्यों पर पुनः आक्रमण कर उन राष्ट्रों के मध्य स्थाई दुश्मनी उत्पन्न कर दें तथा वे उन पर पुनः राज कर सकें ।
महात्मा गांधी ने अपनी अंतिम सांस तक हिंदू-मुस्लिम एकता और अविभाजित भारत के लिए संघर्ष किया । अहिंसा, सार्वभौमिक भाइचारे की भावना और सहिष्णुता के लिए उनके आदर्श एवं उपदेश आधुनिक दुनिया की वर्तमान समस्याओं के लिए सार्वभौमिक सत्य और रामबाण दवा बन गए ।
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Sattantaran - Dr. Satish Chaturvedi
1
भारतीय स्वतंत्रता की प्रस्तावना
भारत अपनी सभ्यता और संस्कृति के ऐतिहासिक, सभी दृष्टियों से अद्वितीय एवं अनुपम है । उसका मानव शास्त्रीय व समाज शास्त्रीय अध्ययन वास्तव में अमृत के प्याले को पाने जैसा दुष्कर तो अवश्य है, लेकिन यही अध्ययन हमें उसकी अज्ञात अदृश्य अनमोल प्रवृत्तियों का निरीक्षण कराता है। ऐतिहासिक परिपेक्ष्य से देखा जाए तो भारत ‘सोने की चिड़िया’ की भूमि ही नहीं बल्कि आकर्षक जीवंतता लिए हुए लंबे संघर्ष का प्रतीक था। 15 अगस्त, 1947 की अर्धरात्रि को ब्रिटिश साम्राज्य से भारत को अपनी प्रिय आज़ादी मिली। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभुत्व के तहत भारतीय गुलामी की दासता खौफनाक, कष्टदायी और अत्याचारों से भरे अथाह सागर के समान है।
यह कटु सत्य है कि, किसी भी राष्ट्र के लिए विदेशी प्रभुत्व से मुक्ति पाना कोई जादुई करिश्मा नहीं होता । साम्राज्यवाद की भूख तो इस पृथ्वी पर युगों-युगों से अपना प्रभुत्व जमाए हुए थी और उन अतृप्त साम्राज्यवादियों की यह सोच कि, जिसकी टोपी में जितने खूबसूरत पंख हो उतना बेहतर । अर्थात यह कह सकते हैं, ‘येन केन प्रकारेण’ वे अपने साम्राज्य को बढ़ाने की चाल चलते थे। ब्रिटिश साम्राज्य के मजबूत गढ़ के विरुद्ध और भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने की निर्णायक लड़ाई तक भारत का ब्रिटिश साम्राज्य की प्रति प्रारंभिक सहयोग से लेकर दृढ़ संकल्पित स्थिति तक पहुँचने में एक लंबा संघर्षमय इतिहास रहा है ।
भारत प्रारंभ से ही विभिन्न विदेशी साम्राज्यों के साथ सहिष्णुता की परंपरा का निष्पादन करती रही है और यही कारण है कि साम्राज्यवाद की अंधेरी सुरंगों में साँस लेने वाले अन्य राष्ट्रों की तरह ही भारत का जन्म भी आक्रमणकारी साम्राज्यों की अंधाधुंध लूट के काले बादलों के बीच हुआ । यह भारतीयों के लिए नए समुदाय के नए खेल और नए नियमों का ढाँचा था। यह हमारे लिए अकल्पनीय है कि इस भारत भूमि को अनेक नवीन समुदायों के साथ अनेक बार पुर्नस्थापित होना पड़ा। भारत ने कई वर्षों तक अंग्रेजों की गुलामी भोगी है । इस असंख्य दशकों की गुलामी में अंग्रजों की यातनाओं के विरूद्ध भारतीयों में क्रोध व रोष की अपेक्षा उनके दुख और बेबसी के भाव अधिक परिलक्षित होते दिखाई दिए । गुलामी की व्यथा ने उनके अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया ।
महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि विदेशी सत्ता से अनेक वर्षों तक कठोर यातनाएँ सहने के बावजूद भी भारत की छवि धूमिल नहीं हुई । सदियों तक भारतीय सभ्यता व संस्कृति पर आधिपत्य जमाने वाले विदेशियों की छाप हमारी संस्कृति को डिगा नहीं सकी । वह आज भी निष्कलंकित होते हुए श्रेष्ठता का चोला पहने हुए है ।
ब्रिटिश शासकों ने अपने शासनकाल में भारत को टुकड़ों में बाँट दिया था और संपूर्ण भारत की एकता, अखंडता को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। अंग्रजों के अधीन भारत की दयनीय दशा से लेकर उसके शक्तिशाली संप्रभु राज्य में भारत ने अनेक नैतिक, सांस्कृतिक विशिष्टता रूपी धन अर्जित भी किया है। देश के प्रति जागरूकता, उसके प्रति कर्तव्य, देशभक्ति, आज़ादी के लिए रणनीतिक चाल में तर्क तथा वैधता के बारे में अवैधता, छापामार युद्ध रणनीति, आज़ादी के लिए प्रचार-प्रसार करते हुए असंख्य भारतीय बिना कारण शहीद नहीं हुए थे । अंग्रेज अपनी सशक्त ताकत से भारतीयों के हौसले व जज़्बे को परास्त करती रहती थी परंतु भारतीय देशभक्त अपनी आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर करने के लिए उद्धृत हो रहे थे । वास्तव में गुलामी से आज़ादी प्राप्त करने की गाथा भारत को शून्य से महान ऊँचाइयों तक पहुँचाने से संबंधित है। भारत की इस तरह की चरमोत्कर्ष स्थिति, परिस्थितियाँ मंत्र मुग्ध कर देने वाला आख्यान ही हैं। भारत की बहुरूपी विरासत विदेशी शासकों के लिए अद्भुत थी और उसकी वैभवपूर्ण साधन संपदा प्रत्येक दृष्टि से उत्कृष्ट रही । विदेशियों के लिए उसकी साधन संपन्नता से विमुख होना आसान नहीं था। भारत की सांस्कृतिक खजाने की चमक और उसकी अनुगूँज प्रत्येक आँखों का आकर्षण का केंद्र बिंदु था । सुख हो या दुःख प्रत्येक परिस्थितियों में भारत अपने आचार, व्यवहार, वीरता आदि से संपूर्ण दुनिया को सदैव आकर्षित करता रहा । जैसे ऐसी मान्यता है कि, भले ही सुंदर वस्तु की सुंदरता समय के साथ कम हो जाए परंतु उसकी सुंदर अनुभूति का आनंद कभी कम नहीं होता, उसी तरह संपूर्ण विश्व इतिहास और उसकी गाथाओं में भारत का नाम स्वर्ण अक्षरों में आँका जाता है क्योंकि भारत में उसके विदेशी राजाओं और साम्राज्यों का भारत की मिट्टी में पतन हुआ और भारत उगते सूर्य की भाँति चमकता रहा ।
भारतीय समृद्धि की विपुलता
भारत की ऐतिहासिक समृद्धि ने उसे 17वीं शताब्दी तक विश्व का सर्वाधिक अमीर देश बना दिया। भारत की खजाने की भव्यता उसके कोहिनूर हीरा, मयूर सिंहासन विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय, खोज और विज्ञान जैसे- शून्य का आविष्कार, शतरंज का खेल, आयुर्वेद, योगा एवं शल्य चिकित्सा आदि इन सभी ने मिलकर भारत भूमि को धन संपदा वैभव से समृद्ध किया । भारत के धनवान लोगों ने दीर्घावधि तक अपनी धनसंपदा से वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । पहली सदी से 18वीं सदी तक भारत को विश्व का सर्वाधिक बड़ा व उन्नतशाली अर्थव्यवस्था वाला देश माना जाता रहा। 1760 में वैश्विक आर्थिक गतिविधियों में भारत की भागीदारी 27 प्रतिशत थी । मुगल शासन के दौरान भारत की आय 17.5 मिलियन पाउंड थी, जो ग्रेट ब्रिटेन के संपूर्ण खजाने से कहीं अधिक थी ।
चित्र 1: जीडीपी के वैश्विक वितरण में ऐतिहासिक रुझान
(Source: Wikipedia, www.newgeography.com/content/005050-500-years-gdp-a-tale-two-countries)
प्राचीन विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारत की उन्नति
ब्रिटेन जब चेचक के टीकाकरण से अनभिज्ञ था, वही उससे पूर्व भारत में चेचक के टीकाकरण का अभ्यास किया जाता रहा। भारत में अनादि काल से विभिन्न तकनीकी यंत्रों व तकनीकी पद्धतियों का प्रयोग किया जाता रहा । विश्व की प्रसिद्ध पांच वेधशालाओं में वाराणसी की वेधशाला को गिना जाता रहा। भारत में मोतियाबिंद, अल्सर, कैंसर जैसे महत्वपूर्ण ऑपरेशन हेतु सर्जिकल तकनीकों का अभ्यास सदियों पूर्व किया जा रहा था। कृत्रिम सिंचाई, निर्माण तकनीक, जहाजों के विकास हेतु उन्नतशील केंद्र भारत में काफी विस्तृत व व्यापक थे ।
अन्य क्षेत्रों में भी भारतीय अग्रणी
476-550 काल में आर्यभट्ट भारतीय गणित तथा खगोल विज्ञान के अग्रदूत हुए। चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व चाणक्य एक महान दार्शनिक, अर्थशास्त्री, न्यायविद, राजशाही सलाहकार थे । वे एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ अर्थशास्त्र क्षेत्र में भी अग्रणी रहे। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व चरक को भारतीय चिकित्सा का जनक माना गया। इसके साथ-साथ वे आयुर्वेद में प्रमुख योगदान देने वालों में से एक थे । पाणिनी एक प्राचीन संस्कृत भाषाविद् के रूप में विख्यात हुए। वे व्याकरणविद तथा परम पूज्य वाचस्पति थे। इन्हें भारतीय भाषा विज्ञान का जनक कहा गया।
सुश्रुत एक महान भारतीय चिकित्सक थे, जो अपने महान ग्रंथ सुश्रुत संहिता के लिए विख्यात हुए जिन्हें शल्य चिकित्सा का जनक कहा गया।
विश्व का सर्वप्रथम लोह स्तंभ जिसे चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य 375 - 413 काल के दौरान बनाया गया था, जो सदियों से बिना जंग खाए खड़ा था। इसे धातु विज्ञान के क्षेत्र में सर्वाधिक आश्चर्यजनक कारनामों का काल माना गया। भारत उच्च गुणवत्ता वाले स्टील उत्पादन में अग्रणी था, जिसने संपूर्ण विश्व को अचंभित कर दिया । दक्षिण भारत में उत्पादित स्टील को दमिश्क स्टील के रूप में संपूर्ण विश्व में निर्यात किया जाता था । विदेशियों ने स्टील उत्पादन की तकनीक को चुराने के अनेक प्रयास किए लेकिन उन्हें असफलता ही हाथ लगी और वह उनके लिए गूढ़ रहस्य ही बना रहा ।
छठवीं शताब्दी तक भारतीय, औद्योगिक रसायन विज्ञान में यूरोप से भी आगे थे जैसे कि कैल्शिलेशन, डिस्टलेशन, सबलिमेशन, स्टीमिंग, फिक्सेशन। कहा जाता है कि राजा पोरस ने सिकंदर के लिए विशेष और मूल्यवान उपहार चुना था वह कोई सोने चांदी का नहीं बल्कि 30 पाउंड स्टील का था। अतः ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत अपने औद्योगिक विकास में उन्नति के शिखर पर था।
भारत की प्राचीन पहचान
साम्राज्यवादी व्यवस्थाएँ और गुलामी के वैश्विक इतिहास पर नज़र डालें तो आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि, भारत को सर्वाधिक अवधि तक गुलामी का शिकार होना पड़ा । अर्थात जुते हुए बैलों की भाँति गुलामी की पीड़ा सहनी पड़ी। यह अवधि गुप्तकाल से लेकर अंग्रेजी साम्राज्य काल तक फैली हुई है । आज जो संप्रभुता संपन्न भारत अपने पैरों पर खड़ा है, वही उसने अनेक वर्षों तक विदेशी हुकूमत के तले दबकर घुटन भरी जिंदगी जी है। परंतु भारत के विषय में रोचक तथ्य यह है कि, सदियों की गुलामी के बावजूद उसने अपनी धार्मिक, आध्यात्मिक, पौराणिक, दार्शनिक पहचान अक्षुण्ण बनाए रखी। भारत भूमि एक ऐसी जादुई धरती थी, जहाँ कोई भी सशक्त शासन की परछाई टिक नहीं पाई और यह हमेशा एक अमृत प्याले की तरह पवित्र भूमि कहलायी । विश्व में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ अनेक देशों ने विदेशी हुकूमतों के तले अपनी प्राचीन संस्कृति खो दी और उन्हें थोपी हुई पहचान को अपनाना पड़ा। भारत के सौंदर्य की सत्यता इस तथ्य पर आधारित है कि कितने ही विदेशी साम्राज्य व उनके आक्रमण से भारत भूमि की संस्कृति व मूल्यों का हनन नहीं हो सका। सैकड़ों वर्षों तक अंग्रेजी हुकूमत के बावजूद भारतीय सभ्यता व संस्कृति बर्फीले हिम की तरह उज्ज्वल व पवित्र बनी रही ।
दिलचस्प बात यह है कि, भारत में कई शासक आए और उन्होंने भारत पर शासन किया। हालांकि, जो शासक भारत भूमि रूपी आत्मा में सहानुभूति प्राप्त कर सके तथा भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर सके वे ही इस धरती पर रह सके, वे ही यहाँ अच्छी तरह बस सके तथा भारत में शासन की सुखानुभूति कर सके तथा जो लोग भारत की इस मिट्टी में घुल मिल नहीं पाए, वे टुकड़े-टुकड़े हो जल्द ही धराशायी हो गए। वे समझ गए कि, यहाँ उनकी दाल नहीं गलने वाली और उन्हें इस भूमि को छोड़कर जाना पड़ा। भारत पर आक्रमण करने वाले कोई भी विदेशी शासक इस बात का गर्व नहीं कर सकते कि, वे शासन हेतु भारत आए, उन्होंने संपूर्ण भारत को देखा, परखा, छोटे-बड़े भू-भाग का आधिपत्य किया। लेकिन अपनी विजय में वे यह नहीं कह पाए कि, उन्होंने अपनी जीत में भारत की प्राचीन पहचान धूमिल कर दी ।
हमारे देशवासियों की अनगिनत पीढ़ियों ने अपना जीवन साम्राज्यवादी और उनकी दासता के तहत गुजारा । अनेक शासकों ने भारत पर सदियों तक राज किया। हालांकि, यह महज एक पागलपन ही लगता है । कुछ शासकों का भारत में राज करने का मकसद केवल भारत के त्वरित आर्थिक संसाधनों को लूटना ही था । ऐसे शासकों का भारत में राजनीतिक रूप से शासन करने का कोई मकसद नहीं था। उन्होंने भारत में राजनैतिक प्रभुत्व जमाने की आकांक्षा नहीं रखी। लेकिन अंग्रेजी शासकों की छापामार या गुरिल्ला युद्ध प्रवृत्ति सबसे अधिक घातक साबित हुई । वे राजनैतिक प्रभुत्व के उद्देश्य से भारत पर आँखे जमाए हुए थे और इसकी संपूर्ति के लिए धीमी चाल के घोड़े की तरह निरंतर आगे बढ़ते रहे, ताकि भारतभूमि पर राजनैतिक दबाव बना सकें।
कोई भी राष्ट्र चाहें वो छोटा हो या बड़ा, उसकी संप्रभुत्व स्वतंत्रता का अर्थ होता है उसकी आध्यात्मिक शक्ति का मुक्त प्रवाह, धार्मिकता, प्राकृतिक न्याय, आर्थिक उन्नति तथा आत्मनिर्णय का अधिकार । भारत की पवित्र संप्रभुता को पाने की, उसे छीन - झपटकर प्राप्त करने की दुर्भावना विदेशी आक्रमणकर्ताओं में सदा-सदैव रही। अपनी कुदृष्टि व राजनैतिक प्रभुत्व की कूटनीति ने हमारे भारत देश पर निम्नस्तरीय कुटिल दोषारोपण भी किए गए। गुलामी के दौरान मृतप्रय जीवन जीने वाले हमारे भाई-बन्धुओं पर ब्रिटिशों द्वारा दी गई शारीरिक और मानसिक कष्ट, रोंगटे खड़े कर देने वाली प्रताड़नाएं, आंतरिक और बाह्य अमानवीय, अपमानजन्य कष्टदायी दुःख की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह सत्य है कि हमारे देशवासियों ने अपनी अमूल्य जिंदगी गुलामी में गुज़ारी, शायद यह उनके लिए सबसे बड़ा श्राप ही था। घृणा और कूटनीतिक कोशिशों के बावजूद विदेशी शासक भारतीयों को गहरी मानसिक प्रताड़ना देने के प्रयासों में असक्षम रहे । अतः जिस प्रकार घनी अंधेरी रात के बाद सूर्य उदित होता है, उसी तरह भारत ने अपने लंबे संघर्ष और गुलामी से जूझकर सुनहरे युग में प्रवेश किया ।
एक दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह कि, भारत ने न केवल विदेशी हुकूमत सही है, बल्कि भारत भूमि की गोद से जन्में कुछ तानाशाहों की भी हुकूमत झेली है। नरभक्षी जानवरों सदृश इनकी आत्मा इतनी क्रूर निष्ठुर थी कि वे अपने से कमजोर योद्धाओं को अपने समक्ष टिकने नहीं देते थे । ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्व किसी भी शासक ने संपूर्ण भारत पर राज नहीं किया । इसका तात्पर्य यह हुआ कि, भारत के विभिन्न शासकों में से ऐसा कोई शासक नहीं था जो संपूर्ण देश पर स्थायी रूप से शासन करने की धारणा रखता हो। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि, धृष्ट कोटि वाले तानाशाह शासक भी साम्राज्य विस्तार के भूखे अवश्य थे लेकिन विस्तृत व अथाह साम्राज्य की जगह सीमित राजवंश परंपरा पर विश्वास रखते थे। भारत के प्राचीन और मध्ययुगीन काल के शासक जो भारत के विभिन्न छोटे-छोटे खंडों में शासन किया करते थे, उन्होंने अपनी प्रभुता व सर्वोच्यता का उपभोग कम समय तक किया । भावी समय की कालगृहता ने उनके शासनकाल को दुर्बल बना दिया और धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों में अपना नाम दर्ज कर वे समय के साथ खो गए ।
आदिकालीन साम्राज्य का उदय और प्रजा की राजनिष्ठा
प्राचीनतम काल में भारत के विभिन्न इलाकों में अनेक खंडों में विभाजित राजवंश परंपरा भारतीय प्रजा के लिए विशेष और लोकप्रिय रही। शासकों को उनके नगरों में बहादुर और लोकहितैषी माना जाता था । इन राजवंशीय शासकों का जीवन प्रजा के सुख-दुख के काफी निकट था । राजा द्वारा प्रजा की रक्षा करना, प्रजा के प्रति अपना राजधर्म निभाना, राजा का प्रथम कर्तव्य रहता था । इस कारण प्रजा भी अपने राजवंशीय नायकों को ईश्वर तुल्य पूजती थी । अपने राज्य की समृद्धि और उसकी भौतिक सुख संपन्नता में वृद्धि करना ही उन राजवंशी राजाओं का परम उद्देश्य हुआ करता था । उनके खून-पसीने में केवल अपने राज्य के लोक ऐश्वर्य की भावना विद्यमान थी।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न महानायकों और सम्राटों के प्रति उनकी प्रजा का अनन्य पूज्य भाव रहा। मराठा साम्राज्य की स्थापना महाराष्ट्र में हुई। सत्रहवीं एवं अठाहरवीं शताब्दी में भारत के बड़े भू-भाग में मराठों द्वारा शासन किया गया। शिवाजी महाराज, जो मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे, उनकी वीरता और बुद्धिमत्ता ने मराठा साम्राज्य का गौरव बढ़ाया। अपनी वीरता व कार्यकुशलता से उन्होंने संपूर्ण मराठा साम्राज्य को पूर्णिमा की चाँद की तरह प्रकाशवान किया । दक्षिण भारत और उत्तर भारत के कुछ भूखंडों में नौवीं और तेरहवीं सदी तक तमिलनाडु के चोल राजाओं का शासन रहा । दक्षिण के राजवंशों में चोलवंश ही अत्याधिक शक्ति संपन्न राजवंश था। इनकी तुलना उत्तर के चालुक्यों, पांडवों और पल्लव राजवंशों के साथ की जा सकती है।
बिहार और उत्तर पूर्व भारत में मौर्य तथा गुप्त दो विख्यात राजवंश हुए। दोनों ही राजवंशों ने उत्तर भारत के अधिकांश तथा दक्षिण भारत के एक बड़े भू-भाग पर शासन किया। इनमें दीर्घ अवधि तक शासन करने वाला भारतीय शासक, मौर्य राजाओं में से एक, सम्राट अशोक विशेष रूप से विख्यात हुए। उनके शासन के अंतर्गत वर्तमान भारत का प्रायः संपूर्ण भू-भाग ही आता था । सम्राट अशोक बाद में बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये। उन्होंने अनेक बौद्ध स्मारकों का निर्माण करवाया तथा बुद्ध की शिक्षा नीतियों का प्रचार-प्रसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
भारत विदेशी शासकों का जितना बड़ा केंद्र रहा है, उतना ही देशी शासकों का भी । और इस तरह दो विभिन्न तरह के शासकों ने भारत को संस्कृति और धर्म का मिश्रित सागर बना दिया। इन शासकों का शासनकाल दीर्घ अवधि तक चला तथा अपने साम्राज्य - विस्तार की नीति से प्रेरित हो, इन्होंने विभिन्न राजवंशों के खिलाफ रणनीति बनाते हुए युद्ध भी करते रहे। देशी राजाओं और नवाबों में अपने राज लाभ और वीरता प्रदर्शन को लेकर अच्छी खासी चतुराई रही। वे स्वयं शत्रुओं से युद्ध के लिए उत्साहित होकर शत्रु खेमें में नहीं, बल्कि शत्रुओं को और उनकी वीरता को उकसाकर अपने चंगुल में फँसाना बखूबी जानते थे । कोई भी राजवंश इतने मंदबुद्धि या मूर्ख नहीं थे कि, वे अपना शिकार करने वाले शिकारियों को स्वयं उकसाए कि, ‘आओ मेरा शिकार कर लो।’
मुगल साम्राज्य के पास उसके स्वयं की सत्ता की सफलता का स्वर्णिम युग था । जो उनकी क्रूरता, बर्बरता, दोगलापन से पायी गई थी। उनके मौज मस्ती या रंगरेलियाँ मनानेवाली आदतों ने उनके शौर्य और शासन को कमतर कर दिया । ऐसी धूमिल और विपरीत परिस्थितियों में राजवंश और राज्य छोटे-छोटे भू खंडों में बँट गए। मराठा शासक अपनी बुद्धि चातुर्यता वीरता से मुगल बादशाहों के पतन का कारण बने। लेकिन मुगल सल्तनत अपनी अमिट छाप बनाने में विशिष्ट रूप से सफल हुई और वे भारत के उत्तर पश्चिम और दक्षिणी परिक्षेत्र के सबसे बड़े शासक कहलाए ।
पश्चिमी भारत में मराठा शासकों की उत्पत्ति और उनकी बौद्धिक योजनाएँ मुगल साम्राज्य के अविकसित काल में ही पनपी थीं। मुगल शासकों के हुक्मरानों और मराठा शासकों के प्रति आधिपत्य (अधीनीकरण) की भावना ने दोनों के बीच घोर शत्रुता व वैमनस्य निर्मित कर दिया था ।
जिस समय मुगल सल्तनत की बागडोर औरंगजेब ने संभाली थी, उस समय मराठा और मुगल सल्तनत एक दूसरे के कट्टर प्रतिद्वंद्वी (दुश्मन) बन गए थे। औरंगजेब के शासन काल में भारतीय संस्कृति के अंतर्गत अनुचित धार्मिक मतभेद धीरे-धीरे उत्पन्न हो रहे थे। उस दौरान लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया जाता और अन्य किसी दूसरे धर्म का पालन निषेध था। ऐतिहासिक तथ्य यह बताते हैं कि, नब्बे प्रतिशत मुस्लिम, हिंदू धर्म से ही मुस्लिम में परिवर्तित लोग थे और औरंगजेब मुख्य रूप से अपनी क्रूरता और बर्बरता से धर्म परिवर्तन के इस निंदनीय जुनून के लिए जघन्य अपराधी ही था । लेकिन इस तरह क्रूरता से लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करना उसके स्वयं के लिए हानिकारक हुआ। क्योंकि यही वह मुख्य प्रयोजन था जिसके तहत मराठों और मुगलों के बीच झगड़े की जड़ बनी और कालांतर में आर-पार कर देने वाले निर्णायक युद्ध भी हुए ।
सत्रहवीं शताब्दी में शिवाजी राजे भोसले के नेतृत्व में मराठाओं ने कुशल रणनीति के साथ मुगलों के विरूद्ध युद्ध किए तथा भारत के कई राज्य, जो मुगलों के अधीन थे, उनसे पराक्रमपूर्ण युद्ध कर मुगलों को उनकी सत्ता से बाहर निकाल फेंका। सत्यता यह है कि, कुशल रणनीति व बेखौफपन ने ही मराठाओं को अपार सफलता दिलाई। उन्होंने अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ संघर्ष किया और मुगलों से युद्ध किए और जीत कर, जिन-जिन राज्यों में मुगलों का शासन था, उनके विरूद्ध युद्ध जीत कर अपनी आज़ादी का ऐलान भी किया। ऐसी कुशल रणनीति के साथ मराठा शक्ति मुगलों की ताकत को संतुलित करने में तथा सशक्त दुश्मन के रूप में टक्कर देने में सफल हो पाई। मुगलों के लिए मराठा नाकों चने चबवाने वाले घातक शत्रु साबित हुए । इस्लामिक कानून के अंतर्गत मुगलों की यह घोषणा कि, या तो स्वीकार करो या मारे जाओ
, यह एक ऐसी अभिमानी घोषणा थी जिसने उनके प्रबल शत्रु को उन्हीं के पड़ोस में पैदा कर दिया था।
सत्ता शून्यता का सुसंयोग
सन् 1680 ई. में शिवाजी महाराज की मृत्यु तथा 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल और मराठा दोनों साम्राज्यों की पराक्रम शून्यता का ऐसा अवसर भी आया जब दोनों साम्राज्यों के लिए अपने-अपने उत्तराधिकार हेतु एक षड्यंत्रकारी खेल बन गया था । सम्राज्य में अव्यवस्था व अनिश्चितता के माहौल के साथ संपूर्ण योजनाएँ ध्वस्त हो रही थीं। औरंगजेब की मृत्यु तो मुगल सल्तनत के लिए अभिशाप साबित हुई। उसकी मृत्यु से उत्पन्न राजकीय सत्ता की रिक्तता से ही भारत को ब्रिटिश राज के गुलाम होने का मूल कारण बना। उस दौरान भारत की राजनैतिक व्यवस्था बिखरी हुई थी और ऐसी विपरीत परिस्थितियों का ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लाभ उठाया। उसकी कुदृष्टि भारत पर पड़ी। उस कुदृष्टि में उसे अनेक स्वार्थ दिखाई दे रहे थे। इस तरह भारत का बिखरता साम्राज्य ब्रिटिशों के लिए भारत पर राज करने का आसान मार्ग या जरिया बन गया क्योंकि, आपसी मतभेद ही भारत को खोखला बना रही थी।
विदेशी अपने कपट, स्वार्थी, छद्मवेश इरादों के साथ उसके सहयोगी मुगल शासकों से भारत की आंतरिक महत्वपूर्ण जानकारियाँ एकत्रित करती रहीं और उसके अनुरूप अपने लक्ष्यों का निर्धारण करती रहीं । अपने व्यवहार से वे यह दर्शाते रहे कि भारत से उनका केवल व्यावसायिक संबंध है। लेकिन ब्रिटिश बिल्लियों के पंजों से भारत की आंतरिक कड़ियों को कुरेद रहे थे । ईस्ट इंडिया कंपनी एक ऐसा मुखौटा पहनी थी, जो इतना सुनियोजित और परिपक्व था कि दायाँ हाथ क्या कर रहा है इसकी भनक बाएँ हाथ को भी नहीं होती। इसके साथ-साथ मुगलों पर भी कोई नज़र नहीं रख रहा था और वे भारत की अत्यावश्यक जानकारियाँ ईस्ट इंडिया कंपनी के ब्रिटिशों को दे रहे थे ।
प्रारंभ में ब्रिटिश इतने अभिमानी नहीं थे। उनकी भारत के प्रति राजनैतिक अभिलाषा क्या थी? उन्होंने यह कभी भी स्पष्ट नहीं की । उसका इज़हार नहीं किया, उसे झलकने तक नहीं दिया और हमारे भारतीय राजनैतिज्ञों को होश ही नहीं था कि, ब्रिटिश भारत के आंतरिक मामलों और आंतरिक विवादों पर भ्रामक चुप्पी क्यों साधे हैं? दुर्भाग्य से उस समय भारतीय समाज असंगठित और अव्यवस्थित था। उसमें राजनीतिक छत्र-छाया का अभाव, आंदोलन, सोचने-समझने की क्षमता, विपरीत परिस्थितियों से जूझने की पूर्व तैयारी तथा भारतीय राज्य शासकों द्वारा वहाँ मौजूद ब्रिटिश लोगों को दिए जाने वाले सतर्कतापूर्ण आदेशों में भारतीय प्रभुत्व, एक साजिश की तहत सोच से परे था ।
ब्रिटिशों की ऐसी घातक चुंबकीय रूपी शक्ति ने अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच, डेनिश और पुर्तगाली यूरोपियन सत्ताओं को भी भारत पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए आसान मार्ग बना दिया । वास्तव में यह सार्वभौमिकता का प्रथम चरण था, जहाँ वस्तुओं के व्यापार के नाम पर भौगोलिक सीमा लांघ दी गई थी, जो अर्थशास्त्री वैश्विकरण के पुनर्निमाण के पक्ष में हैं, ऐसे अर्थशास्त्रियों के अनुसार साम्राज्यवाद के समय वैश्विकरण का अनगढ़ रूप निर्भयता के सिद्धांत को भय देता है ।
भारत में यूरोपियनों का दीर्घ अवधि तक गुप्त व अवैध रूप से प्रवेश रहा। इस कारण भारत में न केवल भारतीय राजव्यवस्था के ढाँचे में क्रांतिकारी मौलिक परिवर्तन हुए अपितु भारतीय मनोवृत्ति में भी परिवर्तन हुए। एक समय ऐसा भी आया, जब स्वदेश अनुरागी देशभक्तों के अंतर्मन में भारत की स्वायत्त सर्वश्रेष्ठ पहचान बनाने की प्रबल इच्छा जागृत हो उठी ।
विदेशी शासकों द्वारा भारत सीमित आक्रमणों का केंद्र रहा । महत्वपूर्ण संदर्भ यह है कि, अंग्रेजों के अलावा अन्य विदेशी आक्रमणकर्ताओं का प्रमुख उद्देश्य यह था कि रातोरात सीमित दायरों में घुसकर लूटपाट करना और फरार हो जाना। ऐसे हमला करने वाले विदेशियों ने भारत के सीमित क्षेत्रों में तथा कम अवधि के लिए विजय हासिल की। लेकिन फतह हासिल करने के बावजूद भी वे कभी भारत के विशेष पक्षों के हिस्सेदार नहीं बन सके। उनकी इच्छा केवल लूटपाट कर भाग जाने की थी । केवल । ब्रिटेन ही एक अपवाद स्वरूप ऐसा विदेशी रहा, जिसने व्यापार के बहाने भारत में घुसपैठ की और अवसर पाते ही उसने भारत की राजनैतिक और राजसी संबंधी आकांक्षाओं के लिए अपने पैर पसार दिए ।
कड़ा विरोध जिसने ब्रिटिश शासन को झकझोर दिया
कालांतर में जब ब्रिटिश कंपनी ने भारतीय रियासतों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तब उन्हें अपने प्रथम प्रतिद्वंदी के रूप में हैदरअली के अत्यंत खौफनाक प्रतिरोधों का सामना करना पड़ा और अपने लक्ष्य से पीछे हटना पड़ा। 1776 में मैसूर की फौज में हैदरअली अफसर था । उसने मैसूर युद्ध के दौरान अंग्रेजों के विरूद्ध महत्वपूर्ण सफलता अर्जित की। अपनी ताकत के बल पर अंग्रेजों को आगे बढ़ने से रोक दिया । इस तरह ताकतवर समझी जाने वाली ब्रिटिश की सशस्त्र फौजों के समक्ष एक गंभीर चुनौती उत्पन्न कर दी। कुछ समय बाद हैदरअली का पुत्र टीपूसुल्तान, जो मैसूर का शासक बना, उसने भी अपने शौर्य प्रदर्शन से यह साबित कर दिया था कि वह इसी तरह भविष्य में भी अंग्रेजों का दुश्मन बना रहेगा और अंग्रेजों को विजय हासिल नहीं हो सकेगी। लेकिन चौथे मैसूर युद्ध के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और हैदराबाद के निजाम की फौजों ने संयुक्त रूप से टीपू सुल्तान को पराजित कर दिया तथा 04 मई, 1799, जिस समय वह अपने सेरिंगापट्टम के किले की सुरक्षा में संलग्न था, उसे मार डाला गया।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का दूसरा चरण स्वयं को सैन्यशक्ति के रूप में परिवर्तित करने का था, जो उस समय के राष्ट्रवादियों (स्वदेशानुरागियों) की आँखों में अवश्य खटका । दीर्घ अवधि के पश्चात जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी फौजी ताकत को बेहतर व मजबूत बना लिया, तब उसने मुगलों के साथ की गई उस संधि को तोड़ दिया, जिसके तहत दोनों में परस्पर सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था। कंपनी ने भारत की सूचनाओं पर संपूर्ण रूप से अपना नियंत्रण कर लिया और मुगलों को उन सूचनाओं से वंचित रखा। इस तरह कंपनी ने भारत की सभी सूचनाओं को अपने अधिकार में ले लिया, जो पहले मुगलों के पास थी । लेकिन अब पूरी सूचनाएँ ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कब्जे में करके मुगलों को सूचनाओं के मामले में अपाहिज बना दिया । अब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए भारत एक खुला दरिया बन गया था कि, वह भारत का शोषण कर उसका लाभ उठा सके, जबकि मुगलों के पास व्यापारिक अनुबंधन का कोई आधार शेष न था ।
भारतीय इतिहास को अगर व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो हमें भारत के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न प्रकार की विरासतें और वृतांत मिलते हैं, जो हज़ारों साल पुरानी विरासतों और किवदंतियों को समेटे हुए हैं । भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न राज्यों की स्थापना भारतीय समाज की पेचीदा जटिलताओं को गहराई के साथ प्रदर्शित होने का प्रमुख कारण है। जब कोई देश वैविध्य सौंदर्य से परिपूर्ण होता है, तब उसके सम्मुख अनेक चुनौतियाँ स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं, क्योंकि प्रत्येक समूह या समाज स्वयं में अद्वितीय है, अनुपम है । वह अपना अलग प्रभुत्व और छवि बनाना चाहता है।
ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत का आर्थिक उत्थान
ब्रिटिश शासकों का मुख्य उद्देश्य भारत को आर्थिक रूप से कमजोर व निर्बल बनाना था। उसने अपने पूरे शासनकाल के दौरान भारत की उत्पादन क्षमता व संभावनाओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमतर बनाए रखा ताकि भारत आर्थिक रूप से ब्रिटेन पर निर्भर रहे। ब्रिटेन के द्वारा निर्मित उत्पादों या वस्तुओं के लिए भारत बना बनाया तैयार बाज़ार था, जिससे ब्रिटेन, कच्चे माल की आपूर्ति कर ब्रिटेन भेजता और वहाँ से निर्मित वस्तुएँ भारत में बेची जातीं। इस तरह इस युग से अत्याधिक मात्रा में यह व्यापारिक अनुबंध प्रक्रिया भारत के शोषण की कहानी बन गई। उन्होंने भारत को एक ऐसे राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया जिस पर बेवजह कठोर करों को थोपा जा सके। दो सौ वर्षों के निरंतर शासनकाल में अंग्रेजों ने भारत देश में अपना मजबूत आर्थिक ढाँचा तैयार कर लिया था । परिणामतः आज़ादी के बाद देश का परिदृश्य आर्थिक रूप से अविकसित राष्ट्र वाला बन गया, जिसे भूख, दरिद्रता, कमतर राष्ट्रीय आय बढ़ती हुई विशाल जनसंख्या ने उस आय के स्तर के ग्राफ को निचले स्तर पर धकेल दिया था।
इस दौरान सर्वाधिक रूप से भारतीय कृषिक्षेत्र भी अंग्रेजों की गलत नीतियों, प्रयोगों और शोषण से बुरी तरह प्रभावित हुआ । अवैध मारपीट और घृणात्मकता द्वारा राजस्व की वसूली का तरीका एक ऐसा प्रमुख आर्थिक हमला था, जिससे भारतीय कृषिक्षेत्र भारत की आज़ादी के पचहत्तर वर्षों के उपरांत भी उबर नहीं सका। वर्तमान में भारत के कुछ क्षेत्रों में किसानों द्वारा की जाने वाली खुदकुशी के जो दुखदायक मामले सामने आ रहे हैं, वास्तव में इसकी उत्पत्ती ब्रिटिश राज के दौरान कृषक समुदाय पर किया गया आर्थिक शोषण ही है । भारत में ब्रिटिश राज के दौरान राज्यों की आय का आर्थिक स्रोत भू-राजस्व था । ब्रिटिश शासकों ने जिस तरह से भारतीय कृषकों का शोषण किया, वह आर्थिक सीमा से परे था। उन्होंने भारतीय कृषि व्यवसाय को इंग्लैंड के कारखानों के लिए मात्र कच्चा माल उपलब्ध कराने वाला एक जरिया बनाकर रख दिया था । सत्यता यह है कि भारत में ज़मींदारी व्यवस्था ब्रिटिश शासन की एक मानसिक उपज थी ।
ब्रिटिश शासकों ने अपने छल और पैतरेबाजी से भारतीय कृषि व्यवस्था को अपने वाणिज्य व्यापार के अनुकूल ढाल दिया था । कृषक समुदाय के पास अपनी पसंद की फसल उगाने तक का अधिकार न था। कौन-सी फसल उगाना है, कौन-सी नहीं, इसका आदेश भी ब्रिटिश सरकार दिया करती थी। भारत में चाय और नील की खेती ऐसे दो उत्तम उदाहरण हैं जो ब्रिटिश सरकार की विलक्षण कुनीतियों को दर्शाती है । भारतीय जनता की भावनाओं और भारतीय बाज़ारों की जरूरतों को कभी कोई अहमियत नहीं दी गई। उन्होंने केवल अपना स्वार्थ ही देखा और यही कारण कृषि एवं कारखानों के बीच की विषमताओं को निरंतर बढ़ाता चला गया। लोगों की, विशेषकर किसानों की आर्थिक दशा बुरी तरह प्रभावित होने लगी और देश निर्धनता के कूप में डूबता चला गया ।
इसी तरह भारत के उत्पादन क्षेत्र में अंग्रेजों की आयात-निर्यात की नीति भी पक्षपाती रही । भारत, ब्रिटेन में उत्पादित किए जाने वाले सामानों के लिए खुला बाज़ार था, जबकि भारतीय कारखानों में अधिकतम उत्पादन क्षमता होने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्रों के तहत उस पर रोक लगा दी जाती थी। वर्तमान समय में अंतरराष्ट्रीय व्यापार प्रगति का साधन है जिसके द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहभागियों को चुनकर दूसरे किसी और कंपनी, व्यापारी, संस्थाओं से अधिक लाभ पाने की परिस्थिति निर्माण की जाती है।
ब्रिटेन ने चालाकी से व्यवसाय के प्रमुख तरीकों को इस तरह उलझा दिया था ताकि दीर्घ अवधि तक भारत आर्थिक रूप से दीन-हीन बना रहे भारत में कल-कारखानों के विकास की गति रुक सी गई थी, क्योंकि ब्रिटिश शासन में भारतीय उद्योगों को गति या विकसित करने की विचारधारा का ब्रिटिशों में पूर्णतः अभाव था । अंग्रेज शासकों ने जानबूझकर ऐसी व्यावसायिक नीतियों को अपना रखा था, जिसके कारण भारतीय औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया को भी उनकी कूटनीति का शिकार होना पड़ा। इस एकांकी मार्ग नीति के व्यापार ने भारत की हस्त शिल्पकला का अस्तित्व ही बाज़ार से समाप्त कर दिया । इस कारण भारत का एक बड़ा समुदाय आर्थिक तौर से निर्धनता की ओर अग्रसित हो गया ।
भारत के औद्योगिकीकरण के इतिहास का शानदार तथ्य यह है कि, भारतीय गाँवों से कुटीर उद्योगों का उद्गमन हुआ । ब्रिटिशों ने उसे भी नहीं छोड़ा एवं उसे भी ध्वस्त कर दिया जो वास्तव में ग्रामीण भारत के निर्धन परिवारों की आय का प्रमुख स्रोत था, जैसे- मिट्टी के बर्तनों का निर्माण, चर्म शोधन उद्योग, ऊनी एवं रेश्मी वस्त्रों का निर्माण, धातु और कागज से निर्मित वस्तुओं के गृह उद्योगों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और इस तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी जर्जर हो गई । परिणाम यह हुआ कि, ग्रामीण आबादी भारी तादाद में अपनी आजीविका हेतु शहरों की ओर पलायन करने लगी । और पलायन का परिणाम यह हुआ कि, ग्रामीण उद्योग विकसित होने से पूर्व ही अंग्रेजों की कुटिल नीति के शिकार हो नष्ट-भ्रष्ट हो गए । भारतीय कारीगर एवं हस्तशिल्पकार सभी बेरोजगार हो गए। इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति का प्रभाव भारत पर भी पड़ा । अंग्रेजी साम्राज्य के चलते भारत में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया का पुनर्निर्माण करने का प्रयास नहीं किया गया । अतः भारत का आर्थिक विकास स्थिरता एवं अवनति की ओर बढ़ता चला गया।
ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत का आर्थिक व्यवहार
17वीं शताब्दी के अंत तक भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया था। (चित्र 2 ) सम्राट औरंगजेब के राजकोष ने 100 मिलीयन पाउंड से अधिक के वार्षिक राजस्व की सूचना दी, जो उनके समकालीन फ्रांस के लुई XIV (14) के 10 गुना से अधिक थी इसके अलावा 1600 में अकबर की वार्षिक आय 17.5 मिलियन पाउंड की थी। 1800 में ग्रेट ब्रिटेन का कर 16 मिलियन पाउंड था । कुछ युग के यूरोप की तुलना में भारत का कृषि उद्योग भी उन्नतशील था। ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत में प्रमुख उद्योग जैसे कपड़ा उद्योग, जहाज निर्माण, स्टील, जूट, धातु के बर्तन आदि थे। 17वीं सदी के अंत से 18वीं सदी के प्रारंभ तक भारत एशिया में ब्रिटिश आयात का 95 प्रतिशत हिस्सा था ।
चित्र 2 (बी): ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत का आर्थिक व्यवहार
[Source: Wikipedia, www.newgeography.com/content/005050-500-years-gdp-a-tale-two-countries]
ब्रिटिश शासन के पश्चात भारत
ब्रिटिश शासन के पश्चात वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की भागीदारी 17वीं सदी में जो 24.4 प्रतिशत थी वह 1950 में घटकर 4.2 प्रतिशत हो गई। इसी तरह भारत की वैश्विक औद्योगिक उत्पादन का हिस्सा जो 1750 में 25 प्रतिशत था 1900 में घटकर 2 प्रतिशत हो गया ।
(चित्र 2 इ) 1780 – 1860 के दशक में भारत बुलियन में भुगतान किए गए संसाधित माल के निर्यातक से कच्चे माल के निर्यातक और निर्मित वस्तुओं के खरीददार के रूप में परिणित हो गया। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत में स्वदेशी उद्योग सिमट गए साथ ही खाद्य फसलों के उत्पादन में गिरावट आई। इस पतन से बड़ी तादाद में किसानों में दरिद्रता व भुखमरी जैसी विनाशक स्थितियां उत्पन्न हो गई। यह पूर्णतः सत्य है कि धन-धान्य से परिपूर्ण भारत की संपूर्ण धन-संपदा ब्रिटिश शासकों ने लूटखसोट कर खाली कर दी और यह सब उनकी सुनियोजित दखलअंदाजी थी । उनके द्वारा भारत के कीमती अमूल्य कच्चे माल की अंधाधुंध लूट का मतलब ब्रिटेन की उद्योगशालाओं को पोषित करना था ।
चित्र 2 (बी) : ब्रिटिश शासन के पश्चात भारत
[Source: Wikipedia, www.newgeography.com/content/ 005050-500- years-gdp-a-tale-two-countries]
धन निष्कासन का सिद्धांत : वास्तविक आदर्शों का प्रस्तुतीकरण
भारत का अथाह धन भारत से इंग्लैंड भेजा जा रहा था। धन का यह अपार निष्कासन (Drain of Wealth) भारत को अंदर ही अंदर कमजोर बनाता जा रहा था, तभी एक आशा की किरण फूटी। दादा भाई नौरोजी की 1901 में प्रकाशित पुस्तक ‘पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में धन निष्कासन सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया और पहली बार भारतीय धन-संपदा का बड़ी तादाद में निष्कासन की दुखद कहानी में बदलाव आया । दादा भाई नौरोजी द्वारा प्रतिपादित धन निष्कासन के सिद्धांत के माध्यम से भारतीय धन संपदा जनता के उपभोग के लिए उपलब्ध हो सकी। भारतवासी इस महान व्यक्ति के लिए कृतज्ञ हुए, जिन्होंने उनके मन–मस्तिष्क में आर्थिक समझदारी के भाव भर दिए थे। परिणामतः भारतीय इस सत्य के प्रति जागरुक हो गए कि, यदि वे भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ होने वाले पक्षपात का विरोध नहीं करेंगे तो आज नहीं तो कल ब्रिटिश शासन हमारी संपूर्ण धन-संपदा का उपभोग कर धन का खाली पिटारा हमारे लिए छोड़ जाएगा। ऐसा पहली बार हुआ कि, ब्रिटिश शासन द्वारा भारत की आर्थिक व्यवस्था को नुकसान पहुँचाने वाले आदेश पारित किए गए। दुखद व आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि ब्रिटिशों की भारत में मौजूदगी होते हुए भारत से हजारों मील दूर ‘हाउस ऑफ कॉमन’, लंदन में भारत की गुलामी और उसकी आर्थिक विध्वंश की वास्तविक कथा को लिखा गया ।
भारत स्वतंत्रता की इस लंबी यात्रा में भारतीय जनमानस की शक्ति उसकी आर्थिक परिहास की साथी है। ब्रिटिश सरकार द्वारा जो भी थोड़े से कल्याणकारी व बुनियादी कार्य किए गए वे भी ब्रिटेन के आर्थिक लाभ को और अधिक सरल व सुगम बनाने के उद्देश्य से किए गए। ब्रिटिश साम्राज्य की विचित्र नाट्यरूप के विषय में के. एस. शेलवेंकर ने कहा, "भारत को पहले भी कई बार जीता गया है लेकिन जीतने वाले वे लोग भारत की सीमाओं में बसकर भारतीय जीवन का एक हिस्सा बन चुके थे । तब भारत ने अपनी आज़ादी कभी नहीं खोई और न कभी कोई गुलाम बना पाया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भारत किसी भी राजकीय अथवा आर्थिक गुलामी में नहीं आया जिसका नियंत्रण किसी बाहरी देश