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घुटन - एक सत्य कथा
घुटन - एक सत्य कथा
घुटन - एक सत्य कथा
Ebook162 pages1 hour

घुटन - एक सत्य कथा

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About this ebook

कुछ ही वर्षों पूर्व सर्दियों की एक बेहद ठंडी रात में मेरे घर के पीछे एक चौपाये प्राणी ने पाँच बच्चों को जन्म दिया।

बस वहीं से शुरू हुआ, उन बेजुबानों के सुख-दुःख, मोह-माया, मौज-मस्ती, प्रेम-द्वन्द, रोग-शोक, मिलन- विछोह और जीवन-मृत्यु के लम्हों को कलमबद्ध करना। नियति ने कुछ सोचकर ही उन्हें मेरे पास भेजा होगा।

उनके साथ मेरे सारे अनुभवों ने मुझे इस तरह प्रेरित किया कि मैं उन सारी, रोंगटे खड़े कर देने वाली अक्षरशः सत्य घटनाओं को दुनिया के सामने लाऊँ और बस इसी सोच ने जन्म दिया- "घुटन - एक सत्य कथा" को।

Languageहिन्दी
Release dateNov 21, 2023
ISBN9788119476992
घुटन - एक सत्य कथा

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    घुटन - एक सत्य कथा - Basant Karwa

    घुटन

    एक सत्य कथा

    बसन्त कर्वा

    Shape Description automatically generated with low confidence

    Published by:

    Sahityapedia Publishing

    Noida, India – 201301

    www.sahityapedia.com

    Contact - +91-9618066119, publish@sahityapedia.com

    Copyright © 2023 Basant Karwa

    All Rights Reserved

    First Edition - 2023

    ISBN - 978-81-19476-99-2

    No part of this book may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electrical, mechanical, photocopying, recording or otherwise) without the prior written permission of the author & the publisher.

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    स्वर्गीय पिताजी

    नंदलालजी कर्वा

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    जिन्हें जीव-जंतुओं से बेहद लगाव था...

    पशुओं की जुबानी हमारी कहानी

    डॉ. अजय कुमार साव

    ‘घुटन-एक सत्य कथा’ लघु उपन्यास संवेदना के कई स्तरों एवं आयामों को समेटे है। यथार्थ अनुभव के आधार पर पशु जगत को प्राणी संसार के रूप में लेते हुए प्रकृति और अंततः मानव समाज को अपना विषय बनाकर बसंत करवा जी ने पाठकों के लिए सहज संवेदना का ऐसा संसार रचा है जिससे गुजरते हुए आप पाठक सहज ही अपने परिवेश के उन संदर्भों से तदाकार होंगे, जिन्हें हम प्रतिपल जीते हैं। गली के आम कुत्तों के बीच परस्पर संवाद बसंत करवा जी के परकाया प्रवेश सामर्थ्य को भलीभांति दर्शाता है। पशु जगत के परस्पर संवाद और आचरण के जरिए मानव आचरण को पूरी संवेदना और चुनौती के साथ विषय बनाने की अद्भुत कला से आपका परिचय अनिवार्य रूप से होगा।

    जिन पशुओं से हमारा सरेआम साबका पड़ता है, उनके प्रति सभ्य समाज का रवैया अत्यंत ही संवेदनशून्य है। उनकी जुबान में उनकी पीड़ा को कथाकार ने अत्यंत ही जीवंत अभिव्यक्ति प्रदान की है। कथाकार यथास्थिति का क्रूर चित्रण करते हुए वैश्विक संदर्भ में सोमालिया के शरणार्थियों का स्मरण करा जाते हैं। 'पारवो' वायरस से पीड़ित इन पशुओं के प्रति मानव द्वारा अपेक्षित आचरण की वकालत की गई है। इन पशुओं के प्रति मानव के भेदभाव भरे आचरण पर अत्यंत ही सहज तरीके से अर्जुनी के माध्यम से रचनाकार ने व्यंग किया है — माँ! यह इंसान खुद अपनी नस्ल में तो नर-मादा में इतने भेदभाव रखता है, हम जानवरों को भी नहीं बख्शा? इन पशुओं को 'प्राणी' संबोधित करते हुए इनके बीच के संवाद को 'घुटन-एक सत्य कथा' लघु उपन्यास की आधार भूमि बनाई है कथाकार ने।

    गली के इन आवारा कुत्तों के प्रति सामाजिकों तथा स्थानीय प्रशासन के रवैये की निर्ममता का पूरी निर्ममता के साथ पोस्टमार्टम किया गया है। समय के साथ इनकी संख्या के बढ़ते जाने से आवासीय परिवेश में संभावित अव्यवस्था को लेकर जो विवशता मन में आती है, वह कहाँ तक मानवीय है? इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया गया है एक सवाल के साथ —'आखिर कब तक?' इनकी बंध्याकरण की भी पहल देखने को मिलती है, ताकि इनकी संख्या नियंत्रित रहे। इन्हें कूड़ा करकट, डंपिंग ग्राउंड जैसे तरह-तरह के रोग के कारण बने परिवेश में रहना ना पडे़। इन पशुओं के साथ कथाकार का सहज स्वाभाविक आचरण हम पाठकों को सहज ही आत्मसाक्षात्कार और विश्लेषण के लिए प्रेरित करता है। यह चुनौती भरा दायित्व है कि जिन्हें हम 'स्मार्ट सिटी' के संदर्भ में कलंक मानते हैं, बदनुमा दाग समझते हैं, उनके माध्यम से ही रचनाकार ने मानवता को दिवास्वप्न के रूप में प्रस्तुत किया है। घुटन भरी मन:स्थिति के साथ सामाजिकों का चित्रण चुनौतीपूर्ण दिखाई पड़ता है। बंध्याकरण के दौरान पशुओं की जगह इंसान की कल्पना रचनाकार की मानवीय संवेदना का परिचायक है। समय-समय पर इन पशुओं की पीड़ा को समग्रता में समझने की कामना लिए यह उम्मीद करना कि ‘काश यह पशु बोल पाते!’ सहज ही रचनाकार की व्याकुलता का परिचायक है। इन पशुओं की मनुष्य पर निर्भरता और मनुष्य का उनके प्रति आचरण उनकी मनोदशा को अत्यंत ही हताश किए रहता है।

    इन पशुओं का हम मानव के प्रति जो प्रेम है, उसके साथ मानव के प्रेम को शर्त आधारित, स्वार्थ से प्रेरित बता कर अंततः उनके प्रेम को हमारे लिए एक आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है। उनके जीवन में भी तनाव होते हैं, जो बिना इलाज बढ़ते हैं और मौत को आमंत्रित भी करते हैं। पशुओं के प्रति संवेदना सघन हो जाती है, जब कथाकार यह मानता है कि जिन दिनों उन्हें हमारी सख्त जरूरत होती है, हम उन दिनों उन्हें कहीं दूर ले जाकर छोड़ आते हैं और ठीक वैसे ही जैसे अपने बूढ़े माँ-बाप को। इस प्रसंग को विदेशी परिवेश में भी विषय बनाकर भारत से तुलना की गई है। जापान की फिल्म 'हचिको : ए डॉग्स स्टोरी' की कथा संरचना उपन्यास को और भी अधिक संवेदनशील बना देती है। पशुओं की स्वामिभक्ति हमें द्रवित कर जाती है। इन पशुओं के तनाव और घुटन के प्रति घटित हमारा आचरण हमारे सामने एक विशाल आईना है। शास्त्रसम्मत तथ्य है कि इनके स्पर्श और चूमने-चाटने से हम अपवित्र हो जाते हैं और मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते, तब इनकी उपस्थिति हमारे घर-परिवार में सौंदर्य और अपने लिए सुकून के क्षण के समान कैसे बन जाती हैं? इसके बावजूद मानव इनके साथ पशुवत् आचरण ही करता है। इनके प्रति गहन संवेदना के साथ कथाकार का चिंतित मन कोरोना काल के दौरान हमारी स्थिति के भयावह संदर्भ का भी स्मरण करा जाता है। जब हमारा ध्यान बहुत हद तक इन पशुओं के प्रति गया, हम सोचने को विवश हुए कि ऐसे पशु हमारे ऊपर निर्भर हैं, तो हमें इनके लिए कुछ करना है। कोरोना काल मानव जीवन के महत्व को यदि महसूस कराया, तो साथ ही परिवार में रहने की घुटन को भी। सहने के लिए धैर्य की जरूरत महसूस कराई, साथ ही मानव द्वारा प्रकृति के दोहन जैसे अपराध का बोध भी कराया। प्राकृतिक की जगह कृत्रिम में रहने का हमारा स्वभाव कितना नुकसानदेह हो सकता है- इसका अनुभव रचना का विषय बन पाया है। यह एक उपलब्धि के समान है। पशुओं के प्रति मानव के आचरण की कहानी कहते-कहते कथाकार ने प्रकृति के प्रति मानव आचरण के विनाशकारी रूप का भी परिचय कराया है। इसका परिणाम मानव सभ्यता के लिए बहुत बड़ा संकट है। पशु संसार से मानव के वैश्विक सरोकार तक की संवेदनशील यात्रा उपन्यास की उपलब्धि है। कथा प्रवाह को सघन संवेदना प्रदान करने के लिए कथाकार ने यथा स्थान फिल्मी गीतों, गजल, शेर की मदद ली है। इससे कथा रोचक भी बन पड़ी है।

    इतना अवश्य है कि अपने निजी अनुभव के आधार पर कथाकार ने पूरी ईमानदारी से विषय को आत्मसात करने का अवसर उपलब्ध कराया। कहीं-कहीं कथा को प्रामाणिक बनाने के प्रयास में प्रस्तुत आंकड़ा विधा की कलात्मकता को बाधित किया है। कोरोना कॉल के यथावत् चित्र ने प्रशासन के भावुक आचरण को अपना विषय बनाया है। इससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण की अपेक्षा पूरी नहीं हो सकती है, पर इतना अवश्य है कि सामान्य से सामान्य संदर्भ जिन्हें हम दाएँ-बाएँ हाथ लिए चल देते

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