Bharat Ki 75 Veerangnayen (भारत की 75 वीरांगनायें)
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Bharat Ki 75 Veerangnayen (भारत की 75 वीरांगनायें) - Rinkel Sharma
(1)
रानी लक्ष्मी बाई
(1828 - 1858)
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी
ख़ूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी
रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसा नाम जो आज भी वीरता और भारत की बेटियों के साहस की पहचान है। अपने बचपन में किताबों में कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की रानी लक्ष्मीबाई के पराक्रम पर लिखी कविता ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ हम सभी ने जरूर सुनी होगी। लेकिन वो झांसी वाली रानी की शौर्यगाथा इतनी है कि उसे किसी एक कविता या किताब में संजो पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
प्रारंभिक जीवन
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर, 1828 को उत्तरप्रदेश, वाराणसी के भदैनी जिले में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथी बाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। महारानी के पितामह बलवंत राव के, बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। और मोरोपंत भी मराठा बाजीराव की सेवा में रहे थे। माता भागीरथी बाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान और धर्मनिष्ठ स्वभाव की थी। लेकिन दुर्भाग्यवश मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी मां की मृत्यु हो गई। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता, मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। बाजीराव के दरबार में मनु ने अपने चंचल और सुंदर स्वभाव से सबका मन मोह लिया। दरबार में चंचल और सुन्दर मनु को सब लोग प्यार से ‘छबीली’ कहकर बुलाने लगे। पेशवा ने उन्हें अपनी बेटी की तरह पाला।
मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र की शिक्षा भी ली। दरअसल पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी। सात साल की उम्र में ही मनु ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने और धनुर्विद्या में भी निपुण हुई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।
सन् 1842 में उनकी शादी झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव नेवलकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुई। झांसी जाने के बाद माता लक्ष्मी के नाम पर उनका नाम रानी लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार मनु झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई थीं। गंगाधर राव बेहद सख़्त राजा थे और वह गद्दारों या नाफ़रमानी करने वालों के प्रति बहुत सख़्त रवैया अपनाते थे और कहा जाता है कि छोटी गलती पर भी फांसी की सजा दे देते थे। किले के उत्तर पूर्वी किनारे पर फांसी घर बनाया गया था जहां जल्लाद फांसी देता था और नीचे गिरने वाली लाश को उसके घर वालों को दे दिया जाता था या लावारिस होने पर ओरछा में बेतवा नदी में फिकवा दिया जाता था। मात्र 13 साल की उम्र में विवाह के बाद झांसी आई महारानी लक्ष्मीबाई में इतनी ऊंचे दर्जे की प्रशासनिक समझ और मानवीयता थी कि उन्होंने राजा गंगाधर राव से कहकर छोटी सी बात पर ही फांसी देने की प्रथा का अंत करवाया। उन्होंने किले में एक कारावास और काल कोठरी बनवाई और राजा को समझाया कि जो कर्मचारी नाफरमानी करें उन्हें पहले कारावास में रखा जाए और इतना कम खाने को दिया जाए कि वह सही रास्ते पर आ जाए। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न रहते थे।
शादी के बाद 1851 में लक्ष्मीबाई ने बेटे को जन्म दिया। किन्तु कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर, 1853 में मृत्यु हो गयी और राज्य की जिम्मेदारी लक्ष्मीबाई पर आ गई। पति की मृत्यु के बाद रानी ने अपने दत्तक पुत्र की जिम्मेदारी और राजकाज देखने का निश्चय किया।
स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
(रानी लक्ष्मी बाई का किला)
राजा गंगाधर राव के निधन के बाद अंग्रेजों ने साजिश रची और लॉर्ड डलहौजी झांसी पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश करने लगा। जनरल डलहौजी ने राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ नीति के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया। 1854 में ब्रिटिश सरकार ने लक्ष्मीबाई को महल छोड़ने का आदेश दिया, लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ये कैसे सहन कर सकती थीं। उन्होंने झांसी नहीं छोड़ने का फैसला किया। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया और घोषणा कर दी कि मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को नही दूंगी।
अपनी झाँसी को अंग्रेजों से बचाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने उस वक्त बेहद मशहूर ऑस्ट्रेलियन वकील जॉन लैंग से मदद ली। उन्होंने जॉन लैंग को आगरा से झांसी बुलवाया था और उसे लंदन में अपना केस लड़ने के लिए नियुक्त किया था। इस बात का सबूत जॉन लैंग द्वारा लिखी किताब ‘वंडरिंग ऑफ इंडिया’ में में इस घटना का जिक्र भी किया है। रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज वकील जॉन लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे ख़ारिज कर दिया गया। अंग्रेजों ने झाँसी राज्य का खजाना जब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधर राव के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया। 7 मार्च, 1854 को ब्रिटिश सरकार ने एक सरकारी गजट जारी किया, जिसके अनुसार झाँसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलने का आदेश दिया गया और अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा था। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया। झाँसी विद्रोह का केन्द्रीय बिंदु बन गया।
10 मई, 1857 को मेरठ में भारतीय विद्रोह प्रारंभ हुआ, जिसका कारण था कि जो बंदूकों की नयी गोलियाँ थी, उस पर सूअर और गौमांस की परत चढ़ी थी। इससे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर ठेस लगी थी और इस कारण यह विद्रोह देश भर में फैल गया था। इस विद्रोह को दबाना ब्रिटिश सरकार के लिए ज्यादा जरूरी था, अतः उन्होंने झाँसी को फिलहाल रानी लक्ष्मीबाई के अधीन छोड़ने का निर्णय लिया। इसी दौरान रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। रानी लक्ष्मीबाई ने कुछ अन्य राज्यों की मदद से एक सेना तैयार की, जिसमें केवल पुरुष ही नहीं, अपितु महिलाएं भी शामिल थीं; जिन्हें युद्ध में लड़ने के लिए प्रशिक्षण दिया गया था। उनकी सेना में अनेक महारथी भी थे, जैसेः गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श, सुन्दर-मुन्दर, काशी बाई, लाला भाऊ बक्शी, मोतीबाई, दीवान रघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह, आदि। उनकी सेना में लगभग 14,000 सैनिक थे। 1857 में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलतापूर्वक इसे विफल कर दिया। साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया।
मगर जनवरी, 1858 में अंग्रेज सेना झांसी की तरफ बढ़ी। अंग्रेजों की सेना ने झांसी को चारों ओर से घेर लिया। 23 मार्च, 1858 को झांसी में ऐतिहासिक युद्ध शुरु हुआ. अंग्रेजों ने किले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया। अंग्रेजों ने भारी बमबारी शुरू कर दी। इधर रानी के कुशल तोपची गुलाम खां ने रानी के आदेश पर ऐसे गोले फेंके की पहली बार में ही अंग्रेजी सेना के छक्के छूट गए। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। अंग्रेज आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। इस लड़ाई में उन्होंने पड़ोसी रियासतों को पत्र लिखकर मदद मांगी- रानी लक्ष्मीबाई ने लिखा था कि ‘भारत अपना देश है। विदेशियों की गुलामी में रहना अच्छा नहीं है। उनसे लड़ना अच्छा है। हमारी राय है कि विदेशियों का शासन भारत पर न हो। हमको अपने आप पर बड़ा भरोसा है और हम फौज की तैयारी कर रहे हैं, क्योंकि अंग्रेजों से लड़ना बहुत जरूरी है…।’
अंग्रेजों की तरफ से बराबर हमले हो रहे थे। मगर फिर भी लक्ष्मीबाई एक बार भी विचलित नहीं हुईं। वो हर महल के चक्कर काटतीं और हर मोर्चे पर खुद निगरानी रखतीं और सबके खाने-पीने का ध्यान भी रखती थीं। हालाँकि खुद रानी ने न खाना खाया और न एक पल सोईं। यह सब लगातार 12 दिन चला। गोले-बारूद की वजह से किला क्षतिग्रस्त होता जा रहा था। लोगों को अपनी मौत सामने दिख रही थी… इस लड़ाई के दौरान ही हल्दी कुमकुम का त्यौहार पड़ा। चैत महीने में झांसी में हल्दी-कुमकुम का त्यौहार होता था। इस बार इसकी उम्मीद नहीं थी। लेकिन जब रानी को लगा कि झांसी वालों की ये आखिरी चैत हो सकती है तो उन्होंने त्यौहार का वो इंतजाम कराया, जो कभी हुआ नहीं था।
रानी ने क़िले की मजबूत क़िलाबन्दी की थी। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अतः उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को अपने साथ मिला लिया। दूल्हा सिंह ने उनसे धोखा किया और कहा कि अंग्रेजों का मनोबल टूट गया है। इतने दिन से झांसी के किले से कोई जवाबी हमला न होने की वजह से वे छोड़कर जाने लगे हैं। ये सुनकर रानी ने राहत की सांस ली, नहाई, खाना खाया और पहली बार मुस्कराते हुए सोने गईं। 11 दिनों बाद सेना ने अपनी रानी को ऐसे देखा तो सब खुश हुए, लेकिन ये खबर झूठी निकली। अंग्रेज वहां से हटे नहीं थे, बल्कि वे दूसरे गुप्त रास्तों से झांसी के महल में प्रवेश कर गए थे। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। रानी को जब ये पता चला तो उन्हें आघात पहुंचा और वे इस सारी मारकाट की जिम्मेवार खुद को मानने लगीं। उस रात पहली बार रानी की आंखों में आंसू आए। सबको किला छोड़कर जाने के लिए कहते हुए तय किया कि खुद को महल के साथ बम से उड़ा लेंगी। ये बेहद ही कमजोर और भावुक पल था। परन्तु एक बुजुर्ग सैनिक के समझाने से रानी मानीं। रानी ने सफेद घोड़े पर अपने दत्तक पुत्र को अपनी पीठ से बांध लिया और 200 लोगों के साथ समय कालपी चल पड़ीं।
दो हफ्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर क़ब्जा कर लिया। परन्तु रानी, अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव और अपने २०० लोगों के साथ अंग्रेजो से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली। लेकिन लगातार 24 घंटे घोड़े पर दौड़ती रानी जब कालपी के पास पहुंचीं तब उन्हें माहवारी आ गई। झांसी का महल छोड़ते समय रानी ने सिर्फ एक रुपया लिया था। उनके पास कपड़े खरीदने के भी पैसे नहीं थे। इस स्थिति ने उन्हें कमजोर महसूस कराया। सफेद पोशाक पहनने वाली रानी माहवारी के वक्त मर्दों के बीच बैठी थीं। बाद में तात्या टोपे ने उनके लिए कपड़ों का इंतजाम कराया- झांसी छोड़ने के बाद लक्ष्मीबाई की मुसीबत कम नहीं हुई, अंग्रेज उनकी खोज में पीछे लगे हुए थे। 22 मई को अंग्रेजों ने कालपी पर भी आक्रमण कर दिया और रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में फिर तात्या टोपे की सेना हार गयी।
एक बार फिर रानी लक्ष्मीबाई को ग्वालियर की तरफ भागना पड़ा और रास्ते में ही उन्हें अंग्रेजों का सामना करना पड़ा। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार का करने लगीं। कहा जाता है कि अंग्रेजों की तरफ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा। तभी रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, दैट्स दि रानी ऑफ झाँसी
। तभी रानी के सर पर एक अंग्रेज सैनिक ने जोर से वार किया और वो घायल हो गयीं। वे घायल अवस्था में मंदिर तक गई थीं। जहां उन्होंने दामोदर की जिम्मेदारी सैनिकों को सौंपी। उस वक्त रानी बदहवाश हालत में थीं। फिर भी उन्होंने मरते-मरते कहा कि उनका शरीर अंग्रेजों को नहीं मिलना चाहिए। बताया जाता है कि आनन-फानन में मंदिर में उनका दाह संस्कार किया गया। अंग्रेज वहां पहुंचे, मंदिर में कत्ले आम कर डाला लेकिन जब तक वे चिता तक पहुंचते वहां रानी का शरीर नहीं बचा था… जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब ‘रिकलेक्शंस ऑफ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया’ में लिखा, युद्ध में अचानक रानी जोर से चिल्लाई, ‘मेरे पीछे आओ।’ वे लड़ाई के मैदान से इतनी तेजी से हटीं कि अंग्रेज सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए। रानी लक्ष्मीबाई की मौत एक अंग्रेज सैनिक की कटार सर पर लगने की वजह से ही हुई थी।
वीरता और साहस के साथ अपनी छोटी सी सेना के दम पर अंग्रेजों की बड़ी सेना से युद्ध करते हुए रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुईं, लेकिन उन्होंने समर्पण नहीं किया रानी युद्ध लड़ती रही और दुनिया के सामने अपनी वीरता का परिचय दिया।
18 जून, 1858 को रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की। लक्ष्मीबाई के इस साहस का अंग्रेजों ने भी लोहा माना। इस बात का अंदाजा, जनरल ह्यूरोज के इस कथन से लगाया जा सकता है कि ‘अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आजादी की दीवानी हो गईं तो हम सबको यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा’। रानी लक्ष्मीबाई ऐसी ही एक शख्सियत थीं जिन्होंने ना सिर्फ अपने जीवन काल में लोगों को प्रेरित किया बल्कि आज तक वो हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं।
(2)
बेगम हजरत महल
(1820 - 1879)
भारत योद्धाओं की भूमि रही है। देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी दिलाने के लिए पुरुष से लेकर महिला तक सभी ने अपना योगदान दिया। इन्हीं वीरांगनाओं में से एक थी ‘बेगम हजरत महल’, जिन्होंने 1857 में हुई आजादी की पहली लड़ाई में अपनी बेहतरीन संगठन शक्ति और बहादुरी से अंग्रेजी हुकूमत को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया।
प्रारंभिक जीवन
बेगम हजरत महल 1820 में अवध प्रांत के फैजाबाद जिले के एक छोटे से गांव में बेहद गरीब परिवार में जन्मी थीं। बचपन में उन्हें सब मुहम्मदी खातून (मोहम्मद खानम) कहकर पुकारते थे। बेगम हजरत महल की परिवार की हालत इतनी खराब थी कि उनके माता-पिता उनका पेट भी नहीं पाल सकते थे। गरीबी के कारण उन्हें राजशाही घरानों में नृत्य करने पर मजबूर होना पड़ा। वहां पर उन्हें शाही हरम के परी समूह में शामिल कर लिया गया, जिसके बाद वे ‘महक परी’ के रूप में पहचानी जाने लगी। एक बार जब अवध के नवाब ने उन्हें देखा तो वे उनकी सुंदरता पर मुग्ध हो गए और उन्हें अपने शाही हरम में शामिल कर लिया और उन्हें अपनी बेगम बना लिया। इसके बाद उन्होंने बिरजिस कादर नाम के पुत्र को जन्म दिया। फिर उन्हें ‘हजरत महल’ की उपाधि दी गई।
काफी संघर्षों भरा जीवन जीने के बाद नवाब की बेगम बनने पर उनकी जिंदगी में खुशहाली आई, लेकिन यह ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई। सन् 1856 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध राज्य पर कब्जा कर लिया और ताजदार-ए-अवध नवाब वाजिद अली शाह को बंदी बना लिया। जिसके बाद बेगम हजरत महल ने अपने नाबालिग बेटे बिरजिस कादर को राजगद्दी पर बिठाकर अवध राज्य की सत्ता संभाली। वे एक कुशल रणनीतिकार थी, जिनके अंदर एक सैन्य एवं युद्ध कौशल समेत कई गुण विद्यमान थे। बेगम हजरत महल सभी धर्मों को समान रूप में देखती थीं, वे धर्म के आधार पर कभी भी भेदभाव नहीं करती थीं, उन्होंने अपने सभी धर्मों के सिपाहियों को भी समान अधिकार दिए थे। इतिहासकारों का मानना है कि वे अपने सिपाहियों के हौसला बढ़ाने के लिए खुद ही युद्ध मैदान में चली जाती थी। हजरत महल की सेना में महिला सैनिक दल भी शामिल था, जो उनकी सुरक्षा कवच था। उन्होंने अंग्रेजों के चंगुल से अपने राज्य को बचाने के लिए अंग्रेजी सेना से वीरता के साथ डटकर मुकाबला किया था।
स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
सन् 1857 में जब विद्रोह शुरू हुआ तो 7 जुलाई, 1857 से बेगम हजरत महल ने अपनी सेना और समर्थकों के साथ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया। बेगम हजरत महल के कुशल नेतृत्व में उनकी सेना ने लखनऊ के पास चिनहट, दिलकुशा में हुई लड़ाई में अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। लखनऊ में हुए इस विद्रोह में साहसी बेगम हजरत महल ने अवध प्रांत के गोंडा, फैजाबाद, सलोन, सुल्तानपुर, सीतापुर, बहराइच आदि क्षेत्र को अंग्रेजों से मुक्त करा कर लखनऊ पर फिर से अपना कब्जा जमा लिया था। इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेजों के खिलाफ हुई इस लड़ाई में बेगम हजरत महल का कई राजाओं ने साथ दिया था। बेगम हजरत महल की सैन्य प्रतिभा से प्रभावित होकर ही स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका अदा करने वाले नाना साहिब ने भी उनका साथ दिया था। वहीं राजा जयलाल, राजा मानसिंह ने भी इस लड़ाई में रानी हजरत महल का साथ दिया था। इस लड़ाई मे हजरत महल ने हाथी पर सवार होकर अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। इस भयानक युद्ध के कारण अंग्रेजों को लखनऊ रेजीडेंसी में छिपने के लिए मजबूर होना पड़ा था। हालांकि बाद में अंग्रेजों ने ज्यादा सेना और हथियारों के बल पर एक बार फिर से लखनऊ पर आक्रमण कर दिया और लखनऊ और अवध के ज्यादातर हिस्सों में अपना अधिकार जमा लिया जिसके चलते बेगम हजरत महल को पीछे हटना पड़ा और अपना महल छोड़कर जाना पड़ा।
इस हार के बाद वे अवध के देहातों में जाकर लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए एकत्रित करती रही। उन्होंने अवध के जंगलों को अपना ठिकाना बनाया। इस दौरान उन्होंने नाना साहेब और फैजाबाद के मौलवी के साथ मिलकर शाहजहांपुर में भी आक्रमण किया और गुरिल्ला युद्ध नीति से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि बेगम हजरत महल पहली ऐसी बेगम थी, जिन्होंने लखनऊ के विद्रोह में हिन्दू-मुस्लिम सभी राजाओं और अवध की आवाम के साथ मिलकर अंग्रेजों को पराजित किया था। बेगम हजरत महल ने ही सबसे पहले अंग्रेजों पर मुस्लिमों और हिन्दुओं के धर्म में फूट और नफरत पैदा करने का आरोप लगाया था।
अंग्रेजों के साथ लड़ाई के