Baansgaon Ki Munmun (बांसगांव की मुनमुन)
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Baansgaon Ki Munmun (बांसगांव की मुनमुन) - Dayanand Pandey
‘पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं।’ बांसगांव की मुनमुन का यह स्वर गांव और क़स्बों में ही नहीं बल्कि समूचे निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में बदलती औरत का एक नया सच है। पति परमेश्वर की छवि अब खंडित है। ऐसी बदकती, खदबदाती और बदलती औरत को क़स्बे या गांव का पुरुष अभी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। उसके सगे भाई भी नहीं। पैसा और सफलता अब परिवार में भी राक्षस बन गए हैं। सर्प बन चुकी सफलता अब कैसे एक परिवार को डंसती जाती है, बांसगांव की मुनमुन का एक ताप यह भी है कि लोग अकेले होते जा रहे हैं। अपने-अपने चक्रव्यूह में हर कोई अभिमन्यु है। लालच कैसे भाई की लाश को भी आरी से काट कर बांटने के लिए लोगों को निर्लज्जता की हद तक ले जा चुकी है, बांसगांव की मुनमुन में यह दंश भी खदबदाता मिलता है। जज, अफसर, बैंक मैनेजर और एन.आर.आई. जैसे चार बेटों के माता-पिता एक तहसीलनुमा क़स्बे में कैसे उपेक्षित, अभावग्रस्त और तनावभरा जीवन जीने को अभिशप्त हैं, इस लाचारगी की इबारतें पूरे उपन्यास में यों ही नहीं उपस्थित हैं। बांसगांव की मुनमुन के बहाने भारतीय क़स्बों में कुलबुलाती, खदबदाती एक नई ही ज़िंदगी, एक नया ही समाज हमारे सामने उपस्थित होता है। बहुत तफ़सील में न जा कर अंजुम रहबर के एक शेर में जो कहें कि ‘आइने पे इल्ज़ाम लगाना फिजूल है, सच मान लीजिए चेहरे पे धूल है।’ बांसगांव की मुनमुन यही बता रही है।
बांसगांव की मुनमुन
(उपन्यास)
दयानंद पांडेय
eISBN: 978-93-5964-478-3
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2023
Baansgaon Ki Munmun (Upanyas)
By - Dayanand Pandey
विश्वमोहिनी राय शर्मा, एडवोकेट के लिए
मु नक्का राय के टूटने की यह इंतिहा थी। पांच बेटे और तीन बेटियों वाले इस पिता की ज़िंदगी में पहले भी कई मोड़ आए थे, परेशानियों और झंझटों के कई ज़ख़्म, कई गरमी, बरसात और चक्रवात वह झेल चुके थे, पर कभी टूटे नहीं थे। पर आज तो वह टूट गए थे। उनका सब से छोटा बेटा राहुल कह रहा था, ‘ऐसे मां-बाप को तो चौराहे पर खड़ा कर के गोली मार देनी चाहिए।’ पिता पर ज़ोर उस का ज़्यादा था। सतहत्तर-अठहत्तर साल की उमर में क्या यही सुनना अब बाक़ी रह गया था? वह अपने दुआर पर खड़े सोच रहे थे और दरवाज़े पर लगी अपने ही नाम की नेम प्लेट को घूर रहे थे; मुनक्का राय, एडवोकेट! ग़नीमत यही थी कि बेटा घर के आंगन में ही तड़क रहा था और वह बाहर दुआर पर चले आए थे। बेटे में जोश भी है, जवानी भी और पैसे का गुरूर भी। एनआरआई है। यही सोच कर वह उस से उलझने या कुछ कहने की बजाय आंगन से निकल कर दुआर पर आ गए हैं। बेटा राहुल चिग्घाड़ रहा है, ‘इस आदमी की यही पलायनवादिता पूरे परिवार को ले डूबी है।’ वह बोल रहा है, ‘यह आदमी सीधा किसी बात को फे़स ही नहीं कर सकता। बात को टाल देना और घर की बातों में भी कचहरी की तरह तारीख़ ले लेना इस आदमी की फ़ितरत हो गई है।’
ज़हर का घूंट पी कर रह गए हैं, मुनक्का राय। पर चुप हैं।
बेटे राहुल की ज़िद है कि बहन की विदाई अभी और इसी वक्त हो जानी चाहिए। और मुनक्का राय की राय है कि, ‘बेटी को इस तरह वह मर जाने के लिए उस की ससुराल नहीं भेज सकते।’
‘तो यहीं अपनी छाती पर बिठा कर उसे आवारगी के लिए छुट्टा छोड़ देंगे? रंडी बनाएंगे?’ बेटा बोल रहा है, ‘पूरे बांसगांव में इसकी आवारगी की चर्चा है। इतनी कि किसी की दुकान, किसी के दरवाज़े पर बैठना मुश्किल हो गया है। यहां तक कि अपने दरवाज़े पर भी बैठने में शर्म आती है।’
लेकिन मुनक्का राय अड़ गए हैं तो अड़ गए हैं। बेटे को बता दिया है कि, ‘बांसगांव में मैं रहता हूं तुम नहीं। मुझे कोई दिक्क़त नहीं होती। न अपने दरवाज़े पर बैठने पर न किसी और के दरवाजे़ या दुकान पर। कचहरी में मैं रोज़ बैठता ही हूं।’ और कि, ‘मेरी बेटी रंडी नहीं है, आवारा नहीं है।’
‘आप की बुजुर्गियत का, आप की वकालत का लोग लिहाज़ करते हैं, इस लिए आप से कुछ नहीं कहता कोई। पर पीठ पीछे सब कहते हैं।’ कहते हुए वह बहन के बाल पकड़ कर खींचते हुए कमरे में से बाहर आंगन में आ जाता है, ‘अब यह यहां नहीं रहेगी।’ मां रोकती है तो वह मां को भी झटक देता है, ‘इसका कपड़ा-लत्ता, गहना-गुड़िया सब बांधो। इसे मैं अभी इसकी ससुराल छोड़ कर आता हूं।’
‘मैं नहीं जाऊंगी भइया, अब बस कीजिए।’ वह सख़्ती से भाई से अपने बाल छुड़ा लेती है। पलट कर वह बोलती है, ‘मुझे मरना नहीं, जीना है। और अपनी शर्तों पर।’
‘तो क्या इसी लिए आठ-दस लाख रुपए ख़र्च कर तुम्हारी शादी की थी?’
‘मेरी शादी नहीं की आपने आठ-दस लाख ख़र्च कर के।’ वह बोली, ‘अपना बोझ उतार कर मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी।’
‘क्या बात करती हो?’
‘ठीक कह रही हूं।’ वह लपक कर एक फ़ोटो अलबम दिखाती हुई बोली, ‘देखिए इस घर के एक दामाद यह हैं, दूसरे दामाद यह हैं और यह रहे तीसरे! क्या यह भी इस घर के दामाद होने लायक़ थे? आप देख लीजिए ध्यान से अपने तीनों बहनोइयों को फिर कुछ कहिए।’
‘तुम्हारी ये अनाप-शनाप बातें मुझे नहीं सुननीं।’ वह बोला, ‘तुम बस चलो।’
वह आंगन में से झटके से उठी और अपने कमरे में चली गई। भीतर से दरवाज़ा धड़ाम से बंद करती हुई बोली, ‘भइया अब आप जाइए यहां से, मैं कहीं नहीं जाऊंगी।’
‘मुनमुन सुनो तो!’ उस ने दरवाज़ा पीटते हुए दुहराया, ‘सुनो तो!’
पर मुनमुन ने नहीं सुना। न ही वह कुछ बोली।
‘तो तुम यहां से जाओगी नहीं?’ राहुल ने फिर से अपनी बात दुहराई। पर मुनमुन फिर कुछ नहीं बोली। थोड़ी देर चुप रह कर राहुल फिर बोला, ‘पिता जी के तो नाक रही नहीं। तेरी मोह में अपनी नाक उन्होंने कटवा ली है। पर सोच मुनमुन कि तेरे भाइयों की नाक अभी है।’
मुनमुन फिर चुप रही।
‘इतने बड़े-बड़े जज, अफ़सर, बैंक मैनेजर और एनआरआई की बहन इस तरह आवारा फिरे यह हम भाइयों को मंज़ूर नहीं है।’ राहुल बोला, ‘मत कटवाओ हम भाइयों की नाक!’
मुनमुन फिर चुप रही।
‘लो तो जब तुम नहीं जा रही तो मैं ही जा रहा हूं।’ राहुल बोला, ‘अम्मा जान लो अब मैं भी फिर कभी लौट कर बांसगांव नहीं आऊंगा।’
अम्मा भी चुप रही।
‘तुम लोगों की चिता को अग्नि देने भी नहीं।’ राहुल जैसे चीखते हुए शाप दे रहा था अपनी अम्मा को। फिर अम्मा बाबू जी के बिना पांव छुए ही वह घर से बाहर आया और बाहर खड़ी कार में बैठ कर छोड़ गया बांसगांव। इसके पहले तो नहीं पर अब मुनमुन राय एक ख़बर थी। ख़बर थी बांसगांव की सड़कों पर। गलियारों, चौराहों से चौबारों और बाज़ारों तक। यह मुनमुन जब पैदा हुई थी तो यही राहुल उसे गोदी में ले कर खिलाता-पुचकारता घूमता और गाता-मेरे घर आई एक नन्हीं परी! और राहुल ही क्यों बड़े भइया रमेश, मझले भइया धीरज और छोटे भइया तरुण भी गाते। अम्मा बाबू जी तो ख़ैर भाव विभोर हो गाते-मेरे घर आई एक नन्हीं परी! साथ में बड़ी दीदी विनीता और रीता भी सुर में सुर मिलातीं; चांदनी के हसीन रथ पे सवार मेरे घर आई एक नन्हीं परी! सचमुच पूरा घर चांदनी में नहा गया था। घर के लोग जैसे समृद्धि की सीढ़ियों पर सीढ़ियां चढ़ने लगे। उन्हीं दिनों एक बुआ आई थीं। अम्मा से कहने लगीं, ‘ई पेट पोंछनी तो बड़ी क़िस्मत वाली है। आते ही देखो रमेश को हाई स्कूल फ़र्स्ट डिविज़न पास करवा दिया। बाप की कचहरी की लुढ़की प्रैक्टिस फिर से चमका दी।’
‘ये तो है दीदी!’ मुनमुन की अम्मा कहतीं। मुनमुन नाम की यह नन्हीं परी जैसे-जैसे बड़ी होती गई, परिवार की खुशियां भी बड़ी होती गई। इसी बीच घर में पट्टीदारी की नागफनी भी उगने लगी। यह पट्टीदारी की नागफनी ही मुनमुन के घर परिवार को आज इस राह पर ला पटके थी।
मुनक्का राय के एक चचेरे बड़े भाई थे गिरधारी राय। गिरधारी और मुनक्का की एक समय ख़ूब पटती थी। बचपन में तो बहुत ही। संयुक्त परिवार था। मुनक्का राय के पिता दो भाई थे। बड़े भाई रामबली राय उन दिनों वकील थे और छोटे भाई श्यामबली राय प्राइमरी स्कूल में मुदर्रिस। यानी मास्टर। दोनों भाइयों में ख़ूब बनती। बड़ा भाई ख़ूब स्नेह करता तो छोटा भाई ख़ूब आदर। मुनक्का के पैदा होने के कुछ दिनों बाद ही मुनक्का की मां टी.बी. की बीमारी से चल बसीं। तो बड़े भाई रामबली ने छोटे भाई श्यामबली की दूसरी शादी करवा दी। अब मुनक्का सौतेली माता के हाथ पड़ गए। ममत्व और दुलार तो वह नहीं मिला उन्हें, लेकिन खाने पीने के लिए सौतेली मां ने कभी उनको नहीं तरसाया। इस बीच रामबली राय की वकालत चल पड़ी थी। और पूरी तहसील में उन के मुक़ाबले कोई और वकील खड़ा नहीं हो पाता। नाम और नामा दोनों उन के ऊपर बरस रहा था। इतना कि अब वह गांव में खेत ख़रीद रहे थे, पक्का मकान बनावा रहे थे। और सब कुछ संयुक्त। मतलब छोटे भाई श्यामबली को घर मकान सब में बराबरी का हिस्सा। इस एकता को देख कर गांव में ईर्ष्या उपजनी स्वाभाविक थी। बहुत लगाने-बझाने की भी कोशिश हुई पर दोनों भाइयों में जीते जी कभी कोई दरार नहीं पड़ी। लेकिन परिवार बढ़ा, बच्चे बढ़े, बच्चों के बच्चे हुए तो थोड़ा बहुत रगड़ा-झगड़ा भी बढ़ा। तो रामबली राय एडवोकेट ने अकलमंदी से काम लिया। एक बड़ा सा मकान बांसगांव तहसील में भी बनवा लिया। और धीरे-धीरे अपने बीवी बच्चों और नातियों को बांसगांव में ही शिफ़्ट कर दिया। बार-बार गांव आने जाने से भी फ़ुर्सत हो गई। और गांव का मुसल्लम राजपाट, खेती बारी सब कुछ छोटे भाई के सुपुर्द कर दिया।
अब गांव की पट्टीदारी में कोई शादी-व्याह होता तभी रामबली राय गांव आते। नहीं तो बांसगांव में ही डेरा जमाए रहते। इसी बीच उन्होंने शहर में भी एक तिमंज़िला मकान बनवा दिया। यह सोच कर कि बच्चों के पढ़ने लिखने में आराम रहेगा। वह यह भी बहुत चाहते थे कि उनका भी कोई बेटा वकील बन कर उनका तख़त संभाल ले। लेकिन उन के दोनों बेटों ने उन्हें बेहद निराश किया। बड़े बेटे गिरधारी राय को तो उन्होंने बड़े अरमान के साथ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी भेजा था। पढ़ने को। लेकिन गिरधारी राय कोई दस-बारह साल बिता कर भी बमुश्किल बी.ए. करने के बाद एल.एल.बी. कंपलीट नहीं कर पाए। लौट आए बांसगांव। कभी कोई नौकरी नहीं की और ज़िंदगी भर बाप की कमाई उड़ाते हुए ऐश करते रहे। छोटा बेटा गंगा राय तो इंटर भी कई साल में पास नहीं हो पाया। पर बाप के पैसे से व्यापार करता रहा। किसिम-किसिम के व्यापार में घाटा उठाते हुए वह बाप की कमाई उड़ाता रहा। पर रामबली राय के दोनों बेटे भले एल.एल.बी. नहीं कर पाए पर उन के अनुज श्यामबली राय के बेटे मुनक्का राय ने एम.ए. भी किया और एल.एल.बी. भी। भले एक-एक क्लास में दो-दो साल लगाए तो क्या हुआ। रामबली राय का सपना पूरा किया। आख़िर कचहरी में उनका तख़ता संभालने के लिए उनका कोई वारिस तो मिला। अनुज पुत्र के साथ मिल कर उन्होंने अपनी वकालत के झंडे को और ऊंचा किया।
गिरधारी राय को यह सब फूटी आंख भी अच्छा नहीं लगा। हार मान कर उन्होंने राजनीति में हाथ पैर मारने की कोशिश की। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से वह एल.एल.बी. भले नहीं पास कर पाए हों उन के साथ पढ़े कुछ लोग अफ़सर और नेता तो हो ही गए थे। फिर तब तक ज़माना और लोग न इतने बेशर्म हो पाए थे न एहसान फ़रामोश! गिरधारी राय को उन के साथी अफ़सरों ने भी भाव दिया और राजनीतिकों ने भी। पर शायद गिरधारी राय के नसीब में सफलता नहीं थी। राजनीति में भी वह लगातार झटका खाते रहे। ज़िला लेबिल के कांग्रेस कमेटी में भी उनको जगह नहीं मिल पाई। वह लोगों को खिला पिला कर खादी का सिल्क, मटका या कटिया सिल्क का कुर्ता जाकेट पहन कर यानी नेता जी वाले वेश भूषा भर की ही नेतागिरी तक रह पाए। हालांकि टोपी भी वह बड़े सलीके़े से कलफ़ लगी हुई लगाते थे पर बात में वह वज़न नहीं रख पाते थे। विचारों से भी दरिद्र थे सो भाषण या बातचीत के स्तर पर भी वह कट जाते थे। तीन तिकड़म भी पारिवारिक स्तर पर ही कर पाते। धैर्य बिलकुल नहीं था और बात-बात पर जिज्ञासा भाव में मुंह बा देते। सो वेशभूषा का भी असर उतर जाता। हार मान कर वह ग्राम प्रधानी के चुनाव में कूदे। यह कहते हुए कि ग्रास रूट से शुरू राजनीति ज़्यादा प्रभावी होती है। पर यहां भी उन के हिस्से हार आई। पिता का रसूख़ भी काम नहीं आया। गिरधारी राय से अब अपनी हार पर हार हज़म नहीं हो रही थी।
उधर मुनक्का राय का तख़ता अब रामबली राय से अलग हो गया था। अब वह जूनियर नहीं सीनियर वकील हो चले थे। चकबंदी का ज़माना था। मुक़दमों की बाढ़ थी। इतनी कि वकील कम पड़ रहे थे। मुनक्का राय पर जैसे पैसे की बरसात हो रही थी। मूसलाधार। गिरधारी राय मन मसोस कर रह जाते। यह सोच कर कि उन्हीं के बाप के पैसे से पढ़ा यह मुनक्का मलाई काट रहा है, नाम-नामा दोनों कमा रहा है और उन की हालत धोबी के कुत्ते सरीखी हो गई है। न घर के रह गए हैं वह, न घाट के। अवसाद के इन्हीं कमज़ोर क्षणों में उन्होंने तय किया कि वह भले खुद वकील नहीं बन पाए तो क्या अब अपने बेटे को ज़रूर वकील बनाएंगे। ताकि उन के बाप के तख़ते का वारिस कम से कम यह मुनक्का राय तो न ही बने। रामबली राय के बेटे गिरधारी राय की यह दमित कुंठा हंसते-खेलते परिवार के दरकने की बुनियाद का पहला बीज, पहला पत्थर बना।
गिरधारी राय के बच्चे हालांकि अभी छोटे थे पर छोटा भाई अब बड़ा हो गया था। इंटरमीडिएट का इम्तिहान भले ही नहीं पास कर पाया वह पर पिता के रसूख़ के बल पर उस की शादी एक अच्छे परिवार में तय हो गई। तब के दिनों की शादी में बारात तीन दिन की हुआ करती थी। रामबली राय के छोटे बेटे गंगा राय की शादी भी तीन दिन वाली थी। मरजाद के दिन की बारात का दृश्य गांव के पुराने लोगों की आंख और मन में आज भी जस का तस बसा हुआ है। लोग जब-तब आज भी उस का ज़िक्र चला बैठते हैं। बारात का तंबू काफ़ी बड़ा था। आम का बड़ा और घना बाग़ीचा था। तंबू के पश्चिम की ओर बीचो-बीच कालीन पर मसनद लगाए रामबली राय बैठे थे। सामने संदूक़ बग़ैरह सजे थे जैसा कि उन दिनों बारात में चलन था। रामबली राय दुल्हे के साथ ऐसे अकड़ कर बैठे थे जैसे अकबर अपना दरबार लगाए बैठे हों। और जब घर के मुखिया किसी शहंशाह की तरह पेश आ रहे थे तो राजकुमार लोग भला कैसे पीछे रहते?
गिरधारी राय ने तंबू का दक्षिणी सिरा पकड़ा और मुनक्का राय ने उत्तरी सिरा। दोनों नहा-धो कर मूंगा सिल्क का कुरता पहन कर अपने-अपने तख़त पर मसनद लगा-लगा कर विराजमान हो गए। दोनों के साथ आस-पास चारपाइयां बिछा कर उन के दरबारी भी बैठ गए। अब बारात से कोई रिश्तेदार विदा मांगने जाता था या फिर आता तो रामबली राय का पैर छू कर बारी-बारी इन दोनों के पास भी अभिवादन के लिए जाता। अगर कोई पहले गिरधारी राय के पास आता तो वह बैठे-बैठे लेकिन सिर झुका कर हाथ जोड़ कर पूछते, ‘अच्छा तो जा रहे हैं? प्रणाम!’ और जो जाने वाला रामबली राय के बाद पहले मुनक्का राय के पास पहले चला जाता फिर गिरधारी राय के पास आता तो उन के पास आता तो उन की भौंहें तन जातीं। बोलने का सुर बदल जाता। बल्कि तीखा हो जाता। बड़ी लापरवाही से कहते, ‘जा रहे हैं? प्रणाम!’ और यह प्रणाम वह ऐसे बोलते जैसे जाने वाले को उन्होंने प्रणाम नहीं किया हो जूता मारा हो। ठीक यही दृश्य मुनक्का राय की तरफ भी घटता। उन की तरफ जो कोई पहले आता तो वह प्रणाम ऐसे विनम्र हो कर करते जैसे प्रणाम नहीं फूलों की बरसात कर रहे हों। और जो कोई गिरधारी राय की तरफ से हो कर आता तो प्रणाम ऐसे करते जैसे भाला मार रहे हों। लेकिन यह दृश्य ज़्यादा देर नहीं चला।
कुछ मुंहलगे लोग मुनक्का राय के पास इकट्ठे हो गए। और उनसे मुग़ले आज़म के डायलाग्स सुनाने का अनुरोध करने लगे। थोड़े ना नुकुर के साथ उन्होंने डायलाग्स सुनाने शुरू कर दिए। कभी वह सलीम बन जाते तो कभी अकबर तो कभी अनारकली के हिस्से के ब्यौरे बताने लगते। और फिर ‘सलीम तुझे मरने नहीं देगा और अनारकली हम तुम्हें जीने नहीं देंगे।’ सुनाने लगते पर जल्दी ही उन्होंने डायलागबाज़ी बंद कर दी। फिर तरह-तरह की चर्चाएं और क़यास शुरू हो गए मुनक्का राय को ले कर।
मुनक्का राय की कई बातें जो कभी उन के हिस्से का अवगुण थीं, अब उन के गुण बन उस शेर को फलितार्थ कर रही थीं कि, ‘जिन के आंगन में अमीरी का शजर लगता है/उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।’ मुनक्का राय अब यहां मुनक्का बाबू हो चले थे। लोग बतिया रहे थे कि अइसे ही थोड़े, मुनक्का बाबू जब छोटे थे, मिडिल में पढ़ते थे तबै से रात-रात भर घर से भागे रहते थे, नौटंकी देखने ख़ातिर। और जब शहर में पढ़ते थे तो भले एक क्लास में दू साल-तीन साल लग जाता था लेकिन पिक्चर तो वह फर्स्ट डे-फर्स्ट शो ही देखते थे। और ई मुग़ले आज़म तो लगातार तीन महीने बिना नागा रोज देखे थे। रिकार्ड था भइया। वइसे थोड़े आज भी उनको एक-एक डायलाग याद हैं। एक बार तो भइया इनका साला शहर गया अपनी बीवी का इलाज करवाने। डाक्टर-वाक्टर को दिखाया। दवा लाने की बात हुई तो मुनक्का बाबू को पैसा दिया यह सोच कर कि पढ़े लिखे हैं, दुकानदार घपला नहीं करेगा। भेजा मुनक्का बाबू को दवा लेने। पर मुनक्का बाबू तो पैसा लिए और चले गए मुग़ले आज़म देखने। अइसा नशा था मुनक्का बाबू को मुग़ले आज़म का। साला इंतज़ार ही करता रह गया। बीवी की दवा का। खैनी ठोंक कर।
मुनक्का बाबू की मुग़ले आज़म गाथा की तंद्रा तब टूटी जब एक टीन एजर लड़के ने टोका। और मुनक्का बाबू से पूछा कि, ‘ऐसा क्या था मुग़ले आज़म में जो तीन महीने लगातार देखने जाते रहे?’ पहले तो उन्होंने उस टीन एज लड़के की बात पर ध्यान नहीं दिया। पर उस ने जब दो से तीन बार यही सवाल दुहराया तो वह खिन्न हो गए। पर बोले धीरे से, ‘अरे मूर्ख सिर्फ़ देखने नहीं, समझने जाता था उस के डायलाग्स! हिंदी में तो थे नहीं। उर्दू और फ़ारसी में डायलाग्स थे।’ उन्होंने बैठे-बैठे बैठने की दिशा बदली, हवा ख़ारिज किया और ताली पीटते हुए बोले, ‘तो डायलाग्स समझने जाता था। और फिर जब डायलाग्स समझ में आने लगे तो उस की मुहब्बत का जो जादू था, जो नशा था और