यह जिहाद नहीं: कथित इस्लामी आतंकवाद की पृष्ठभूमि निदान और समाधान (Hindi)
By A Khan
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कथित इस्लामी आतंकवाद के वैज्ञानिक (वैचारिक) खंडन-समाधान पर आधारित एकमात्र पुस्तक
(नब्बे हजार शब्द)
कहते हैं कि एक राक्षस था जिसका प्राण उसके जिस्म में न होकर एक तोते में रहता था। इस वजह से उसके जिस्म को बार बारबार नष्ट करने के बावजूद भी वह राक्षस फिर से ज़िंदा हो जाता था। ठीक इसी प्रकार से मौजूदा वक़्त की सबसे बड़ी वैश्विक समस्याओं में से एक आतंकवाद का प्राण भी उसके सरदारों या संगठनों में न होकर उसके विचारों में मौजूद है। इस वजह से आतंकी संगठनों को नष्ट किए जाने के बावजूद भी वह पुनः सिर उठाने में कामियाब रहता है। ऐसे में आतंकी सिद्धांतों का तोड़ निकालना इस वक़्त की सबसे बड़ी आवश्यकता बन चुकी है; और आखिरकार लंबी प्रतीक्षा के बाद इस उद्देश्य से रचित विश्व की सर्वप्रथम पुस्तक आपके सामने आ चुकी है।
जी हाँ.....TV, अखबारों एवं इंटरनेट के माध्यम से हमें आतंकवाद से जुड़े समाचार रोज़ सुनने को मिलते हैं लेकिन इसका समाधान कहाँ से निकलेगा कोई नहीं जानता और एक मानसिक बीमारी का इलाज बम व गोला-बारूद से करने का प्रयास किया जाता है, यह जानते हुए कि यह असंभव है। चाहे हम दुनिया के किसी भी हिस्से में क्यों न रहते हों लेकिन आतंकवाद किसी न किसी रूप में हम पर ज़रूर असर ड़ालता है। प्रतक्ष रूप से नहीं तो परोक्ष रूप से हमारी मानसिकता इस से ज़रूर प्रभावित होती है और जिन प्रांतों में उसका क़हर टूटता है वहाँ के लोगों का हाल तो हम देख ही चुके हैं। विशेष रूप से जब इस्लाम के नाम पर जारी आतंकवाद की बात की जाती है तो मन में तरह तरह के सवाल पैदा होते हैं; जैसा कि क्या एक मज़हब आतंकवाद की तालीम दे सकता है? क्या आतंकवाद धीरे धीरे पूरी दुनिया में फैल जाएगा? इस तरह से मुस्लिम समुदाय के लोग भी शायद सोचते होंगे कि क्या जिहाद के रास्ते में मरने से हमें स्वर्ग-प्राप्ति होगी? क्या इस से इस्लाम की जीत होगी और दोबारा इस्लामी खिलाफ़त की स्थापना होगी जिस से मुसलमान दूसरे मजहबों पर गालिब आ जाएंगे? क्या जिहाद नहीं करने वाला या इसका समर्थन नहीं करने वाला मुसलमान, सच्चा मुसलमान नहीं होता?
बहरहाल ऐसे सैकड़ों Multidimensional प्रश्न एवं तत्व हैं जिनके स्थायी एवं निर्णायक समाधान की तलाश इस वैश्विक समस्या के निवारण के दृष्टिकोण से ज़रूरी है। एक गवेषक के रूप में मेरा मानना है कि कथित जिहाद का यह भूत किसी और से पूर्व वर्ग विशेष के मन-मस्तिष्क पर सवार है तथा उनकी धार्मिक संवेदनशीलता से जुड़े होने के कारण वे इस पर तन-मन-धन से न्योछावर होने पर तैयार हैं। दुनिया बेशक इसे आतंकवाद के नाम से जानती है लेकिन जिन की निगाहों में इस से बड़ा कोई पुण्य नहीं, इस बड़ा कोई धर्म नहीं तथा इस से बड़ा कोई करम नहीं, उन्हें हथियारों से किसी भी हालत में रोका नहीं जा सकता। उन्हें तो बस यह समझाने की ज़रूरत है कि जिस रास्ते के तुम राहगीर हो वह अंतहीन व अर्थहीन है। यह तो बस दिमाग का खेल और हेरफेर है और जो तुम समझते हो वास्तव में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन एक अर्थहीन-ख़याली वस्तु के पीछे तुम मरे ही जा रहे हो। तुम्हें आज तक जो कुछ कहा गया तुम बिना सोचे-समझे उसके पीछे लग गए। लेकिन कभी अपना दिमाग भी तो लगाओ—सारी बात ख़ुद-बखूद समझ में आ जाएगी कि जिहाद आख़िर किस चिड़िया का नाम है, खिलाफ़त आख़िर क्या चीज़ है इत्यादि......इत्यादि......। यह जान लोगे तो तुम अपने हाथों अपना नुकसान नहीं करोगे बल्के ख़ुद भी जियोगे और दूसरों को भी जीने दोगे।
प्रिय पाठकों, इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने उग्र-जिहादी मानसिकता का अंतिम व निर्णायक समाधान तलाश करने का हर संभव प्रयास किया है। लेकिन हो सकता है कि शायद ऐसी कोई सामग्री छूट गयी हो जिसका पुस्तक में होना ज़रूरी था। अतः इसे देखते हुए इस के संपादन को आगे के Improvement के लिए अभी भी Open रखा गया है तथा पाठकों से सुझावों की प्रतीक्षा किया जा रहा है। आप अपना सुझाव पुस्तक के प्रथम पृष्ठ में उल्लेख Mail Id भेज सकते हैं। आपका सुझाव एवं मार्गदर्शन हमारे लिए, आपके लिए, देश तथा मानवता के हित के लिए अत्यंत ज़रूरी है। तो आइए, एक आतंक-मुक्त संसार की परिकल्पना को साकार करने की दिशा में मिल कर क़दम बढ़ाते हैं। हो सकता है आपका एक छोटा सा सहयोग एक बेहतर कल की नींव ड़ालने में मददगार बने।
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यह जिहाद नहीं - A Khan
यह जिहाद नहीं
कथित इस्लामी आतंकवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि निदान और समाधान
ए ख़ान
DISCLAIMER:
यह पुस्तक किसी भी रूप से अहमदिया जमात का केंद्रीय दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं करती न ही लेखक यह कार्य हेतु संस्थान के द्वारा प्राधिकृत है। लेखक इस पुस्तक के माध्यम से किसी भी धर्म, सस्थान या समुदाय के आधिकारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का दावा भी नहीं करता। यह पुस्तक Public Domain में पहले ही से मौजूद मुक्तस्रोत से प्राप्त तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत की गयी है। यह पुस्तक अभी भी संपादन प्रक्रिया में है अतः फिलहाल इस के किसी भी हिस्से का पुनः प्रकाशन नहीं किया जा सकता।
# पाठक पुस्तक को अधिक से अधिक लाभदायक बनाने हेतु निम्न लिखित Mail ID पर अपना सुझाव या शिकायत प्रेषित कर सकते हैं।
yjn.publications@gmail.com
© सर्वाधिकार लेखक/प्रकाशक के अधिकार में है
संयुक्त राष्ट्रसंघ (UN) दिशानिर्देश:
Invitation to Counter Radical Extremist Narrative
C:\Users\ss\OneDrive\Desktop\un.png Efforts to counter terrorist narratives can benefit through engagement with a wide range of actors, including youth, families, women, religious, cultural, and education leaders, and other concerned groups of civil society; States should consider supporting the efforts aimed at raising public awareness regarding counter terrorist narratives through education and media, including through dedicated educational programs to pre-empt youth acceptance of terrorist narratives; States should consider engaging, where appropriate, with religious authorities and community leaders, that have relevant expertise in crafting and delivering effective counter-narratives, in countering narratives used by terrorists and their supporters; Counter-narratives should aim not only to rebut terrorists’ messages, but also to amplify positive narratives, to provide credible alternatives and address issues of concern to vulnerable audiences who are subject to terrorist narratives.[1]
Urges all Member States to unite against violent extremism in all its forms and manifestations as well as sectarian violence, encourages the efforts of leaders to discuss within their communities the causes of violent extremism and discrimination and to evolve strategies to address these causes, and underlines that States, regional organizations, non-governmental organizations, religious bodies and the media have an important role to play in promoting tolerance and respect for religious and cultural diversity;[2]
Inviting Religious Societies in refuting terror supportive narratives
Stressing the importance of the role of the media, civil and religious society, the business community and educational institutions in those efforts to enhance dialogue and broaden understanding, and in promoting tolerance and coexistence, and in fostering an environment which is not conducive to incitement of terrorism, as well as in countering terrorist narratives.[3]
संपादकीय
मनुष्य शांति और प्रगति की खोज में है जबकि कथित इस्लामी चरमपंथ या अन्य शब्दों में कहें तो कथित इस्लामी आतंकवाद इस राह में सबसे बड़ी रुकावट बन कर खड़ा है। मूल रूप से विचारों की बुनियाद पर खड़ी इस वैश्विक समस्या पर कारगर विचारों की सहायता से नियंत्रण प्राप्त करने की आवश्यकता थी। लेकिन जागरूकता की कमी के कारण हम आज भी सामरिक व राजनीतिक साधनों से उसे रोकने के असफल प्रयासों में जूटे हैं। विस्तार से कहा जाए तो कथित इस्लामी आतंकवाद की पृष्ठभूमि में इस्लाम धर्म संबंधित ढ़ेरों गलत फहमियां पायी जाती हैं। जिन का उपयोग करते हुए प्रारंभिक रूप से आतंकी सोच व मानसिकताओं को वैश्विक स्तर पर प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसे में इन भ्रांत विचारों एवं सिद्धांतों का निराकरण कथित इस्लामी आतंकवाद [i] के स्वाभाविक समाधान की पहली आवश्यकता है और इस दिशा में यदि किसी ने वास्तव में सफलता का उदाहरण प्रस्तुत किया है तो वह निर्विवाद रूप से हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद जी हैं। इस में दोराय नहीं कि कथित इस्लामी आतंकवाद के निवारण की दिशा में राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयासों का दौर जारी है। लेकिन मुख्यतः सामरिक एवं राजनीतिक रूप से किए जाने वाले इन प्रयासों से समाधान निकलने के बजाय आतंकवाद आगे से आगे भयावह रूप लेता गया। जहां तक इसकी पृष्ठभूमि में कार्यरत विचारों को चुनौती देने का प्रश्न है तो इस दिशा में ठोस प्रयास करने के बजाय आतंकवाद के लिए सीधे तौर पर इस्लाम को ज़िम्मेदार बताते हुए इसे बदनाम करने का प्रयास किया गया। जबकि कोरी वास्तविकता यह है कि भिन्न भिन्न दौर में धर्मरक्षा के नाम पर इस्लामी जिहाद से जुड़े सिद्धांतों को गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया जिस से वर्ग विशेष में इसे लेकर भ्रांत धारनाएँ फैलती रही। इन दुष्प्रचारों के कारण इस्लाम के संबंध में भ्रांत धारनाओं का बाज़ार गरम हुआ जबकि इस्लाम को इस से किंचित लाभ भी नहीं हुआ। यहाँ तक कि परिणाम के दृष्टिकोण से यह उद्यम इस्लाम एवं मुसलमानों के साथ साथ विश्वशांति के दृष्टिकोण से समूचे मानव समाज के लिए भी घातक सिद्ध हुआ। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या (1) कथित जिहादी संगठनों एवं उलेमाओं के द्वारा लिया जाने वाला जिहाद का निर्णय सही था? (2) क्या उनके द्वारा इस्लाम की नव जागृति एवं धर्मरक्षा के नाम पर लिया गया निर्णय उचित था? अगर नहीं—तो फिर उचित क्या है? (3) तथा यह कि इस्लाम के सामूहिक मामलों में निर्णय लेने का वास्तविक अधिकार किस के पास है? यही वह तीन प्रश्न हैं जिनके समाधान में इस वैश्विक समस्या का स्थायी समाधान निहित है। जहां तक आतंकवाद का एक प्रमुख कारण अर्थात चरमपंथी संगठनों के द्वारा इस्लामी खिलाफ़त की स्थापना को लेकर किए जाने वाले हिंसक जद्दोजेहद का प्रश्न है तो ज्ञात रहे कि इसकी स्थापना सैद्धांतिक रूप से पहले ही से हो चुकी है। इस दृष्टिकोण से इसकी स्थापना के नाम पर किए जाने वाले दावे न केवल समझ से परे अपितु इस्लामी दृष्टिकोण से भारी गलती तथा अर्थहीन भी है।
पाठकों, जिस दौर में कथित उलेमाओं के द्वारा जिहाद के नाम पर मुसलमानों को मार-काट की तालीम दी जा रही थी पंजाब के कादियान क़स्बे में जन्मग्रहण करने वाले हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद जी ने स्वयं को ईश्वर-प्रेषित धर्म संस्कारक के रूप में प्रस्तुत करते हुए मुसलमानों को इस से दूर रहने की चेतावनी दी। अपनी पुस्तक की एक पंक्ति में उन्हों ने कहा कि,
अब छोड़ दो जिहाद का ऐ दोस्तो ख़याल
दीन के लिए हराम है अब जंग व क़िताल।
यह हुक्म सुन के भी जो लड़ाई को जाएगा
वह काफ़िरों से सख़्त हज़ीमत उठाएगा।
पुस्तक तोहफ़ा गोल्डोइय्या में उल्लेख इस पंक्ति के अनुसार "इस्लाम के लिए तथा इस्लाम के नाम पर अब जंग निषिद्ध है अतः मुसलमानों को इसका ख़याल भी छोड़ देना चाहिए। जो भी इस आदेश के विरुद्ध जा कर जिहाद में उतरेगा उसे गैर मुस्लिमों के हाथों कष्ट उठानी पड़ेगी"। इसका यह नतीजा हुआ कि जिस किसी ने इस मार्गदर्शन की अनदेखी करते हुए कथित जिहाद के मैदान में कूदा उसे विरोधियों के हाथों कष्ट उठाने के साथ साथ नाकामी का मूंह देखना पड़ा और यह सिलसिला आज भी जारी है। कहने का तात्पर्य यह है कि उस दौर के उलेमा जिस पथ पर मुसलमानों को चला कर इस्लाम की प्रगति के बड़े बड़े दावे करते थे मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद जी ने पहले से ही उसकी खामियों को भाँप लिया था।
पाठकों, पवित्र कुरान में मुसलमानों से अल्लाह का वचन है कि इस्लामी दृष्टिकोण से जिहाद के सही होने की दशा में ही मुसलमानों को विजय प्राप्त होगी चाहे संख्या व शक्ति में वे अपने शत्रु से कितना भी कम एवं कमज़ोर क्यों न हों। इस भविष्यवाणी का दूसरा पहलू यह है कि जिहाद का इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप सही न होने की दशा में मुसलमानों को हार एवं मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा चाहे संख्या व शक्ति में अपने शत्रु से वे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हों। पवित्र क़ुरान की वाणी तथा हालिया प्रकरणों के प्रकाश में समझ सकते हैं कि जिहाद के दावेदार अपने दावे में पूर्णतया गलत हैं जिसके चलते हजारों प्रयत्नों के बावजूद भी उन्हें जिहाद के मैदान में सफलता नहीं मिल रही है और ख़मियाज़ा बेकसूर मुसलमानों को भुगतना पड़ रहा है। इसे देखते हुए मुस्लिम समाज को जागरूक होने की ज़रूरत है। दूसरा यह कि जिहादी उग्रवाद की रोकथाम के लिए अंतर्राष्ट्रीय विरादरी की ओर से चलाये जाने वाले Counter Terrorism Operations के कारण भी हज़ारों बेकसूर मुसलमान मारे जा रहे हैं, उनके बसे-बसाए घर उजड़ रहे हैं और आबादियाँ वीरान हो रही हैं। इस प्रकार से इस द्विपक्षीय लड़ाई से विश्वशांति व सुरक्षा आहत हुआ है। हालिया दौर में यह मामला इतना भयंकर रूप धारण कर चुका है कि इस से कई राष्ट्रों का आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक ढांचा पूरी तरह से तबाह हो चुका है। तथा जिहादी उग्रवाद एवं इसकी रोकथाम में मानव समाज को दोहरी क्षति का सामना करना पड़ रहा है। इन सब के मध्य एक वर्ग आतंकवाद को इस्लाम के साथ जोड़ कर प्रस्तुत करते हुए एक शांतिपूर्ण मज़हब के विरुद्ध अनर्गल प्रपंच करने में व्यस्त है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में इसके पीछे इस्लाम या इसके किसी दृष्टिकोण का हाथ है? या यह एक मनगढ़ंत दुष्प्रचार है? बहरहाल लोगों की सोच जो भी हो—हक़ीक़त यह है कि इस्लाम ने सदैव शांति एवं अहिंसा की शिक्षा दी है। जिस पर समुचित रूप से ध्यान न देने के नतीजे में यह परिणाम सामने आ रहे हैं।
पाठकों! ध्यान रहे कि धार्मिक समूहों की कार्यप्रणाली में विश्वास तंत्र की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जो इन समूहों के आचार व विचार से लेकर सामूहिक एवं व्ययक्तिक चरित्र व मानसिकता के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाता है। ऐसे में इस तंत्र में पैदा होने वाला एक छोटा सा विकार इन समूहों की मानसिकताओं पर बड़े स्तर पर नकारात्मक प्रभाव ड़ाल सकता है। इसे देखते हुए इस्लाम को विकारों से पवित्र रखने हेतु केंद्रीय मार्गदर्शकों के रूप में इमामों
के पदार्पण का प्रावधान रखा गया जो समय समय पर आकर धर्म संस्कार का दायित्व निभाते रहे। इस कड़ी में वर्तमान युग में यह दायित्व निभाने के लिए हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमदआ.स. का आगमन हुआ। जो इस्लाम में आवश्यक धर्म संस्कार करते हुए मुसलमानों को सतमार्ग पर परिचालित करने का प्रयास किया तथा इस्लाम के सर्वांगीन विकास की राह प्रशस्त की। जिसके परिणाम स्वरूप उनके अनुयायी हिंसक जिहाद जैसे दिशाहीन कार्यों से पूर्णतया दूरी बनाने में सफल रहे, जिसका अध्ययन आप इस पुस्तक में करेंगे।
जहां तक इस मामले में इस्लाम की भूमिका पर सवाल उठाया जाता है इस की वास्तविकता यह है कि है इस हिंसक अभियान को सफल बनाने हेतु आवश्यक जन समर्थन प्राप्त करने के लिए इसे इस्लामी रंग दिया गया। तथा चरमपंथी साहित्य, कला व दर्शन का ऐसा चौतरफा जाल बुना गया कि अनपढ़ तो अनपढ़ पढ़ा-लिखा वर्ग भी इस्लामी जिहाद व आतंकवाद में अंतर कर पाने में नाकाम रहा एवं एक महान धार्मिक कर्तव्य समझते हुए हिंसा के मैदान कूद पड़ा। जबकि हक़ीक़त में इस्लाम का इस से दूर दूर तक कोई नाता नहीं। बहरहाल 2006 में संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा (UN General Aassembly) में पूर्ण समर्थन से पारित एक प्रस्तावना के बाद स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट हो गयी कि इस्लाम के सही प्रस्तुतीकरण तथा सही समझ-बूझ ही इस समस्या से निजात का एकलौता रास्ता है। जिसका सटीक विश्लेषण करने हेतु यह पुस्तक लाभदायक है।
संपादक
विषय सूची
UN Resolutions
संपादकीय
प्राक्कथन: इस्लाम का केंद्रीय दृष्टिकोण—समाधान का मूलमंत्र
प्रस्तावना: अहमदिया मतवाद—इस्लाम का केंद्रीय दृष्टिकोण
अध्याय-1
GWOT की नाकामी एवं वास्तविक समाधान की खोज: तथ्यागत विश्लेषण
अहमदिया जमात की पहल
अध्याय-2
जिहादी चरमपंथ का इतिहास: आतंकवाद का इस्लाम से संबंध नहीं
मानव स्वभाव: आस्थक चरमपंथ का मूलस्रोत
अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद: तथ्यों के प्रकाश में
आतंकवाद की परिभाषा
शब्द व्युत्पत्ति
प्रारंभिक चरमपंथी संगठन
मुसलमानों का प्रारंभिक चरमपंथी संगठन
आधुनिक आतंकवाद
जिहादी आतंकवाद की राजनीतिक पृष्ठभूमि
मुसलमानों में चरमपंथ का विकासक्रम
खारजी उपद्रव: जिहादी चरमपंथ की आधारशीला
तीसरे खलीफ़ा का शासन काल
चतुर्थ खलीफ़ा का शासन काल
अमीर मुआविया का शासन काल
नव खारजी आंदोलन (Neo-Kharijite Movement)
खारजी मतवाद का खंडन
वहाबी-सलाफ़ी आंदोलन
वहाबी विचारधारा की समीक्षा
वहाबी विचारधारा का खंडन-समाधान
आस्था के आधार पर युद्ध
मुस्लिम शासित प्रांतों पर दारुल हर्ब (रणभूमि ) का फ़त्वा
कालिमा पढ़ने वालों से युद्ध
इस्लाम पर व्यंगात्मक टिप्पणी पर हत्या का फ़त्वा
गैर मुस्लिमों से शत्रुता न रखने वाला मुसलमान नहीं
मुहम्मद बिन सऊद-इब्ने वहाब को अस्वीकार करने वाला नर्कगामी
इब्ने तिमीया की भूमिकाओं का विश्लेषण
मार्दिन फ़त्वे की समीक्षा
मूल फ़त्वे से छेड़-छाड़
जमालुद्दीन अफ़गानी: मुसलमानों में राजनैतिक जागरण का सूत्रधार
अबुल आला मौदूदी: आधुनिक चरमपंथ का पितामह
मौदूदी के सिद्धांत
स्थापित व्यवस्थाओं को उखाड़ फेंकने का आह्वान
जिहाद का आह्वान
गैर इस्लामी सरकारों को उखाड़ फेंकने का आह्वान
आस्था में सच्चा होने का मापदंड
राष्ट्रवाद के विरुद्ध आह्वान व वैश्विक जिहाद का फलसफ़ा
गैर इस्लामी रियासतों में मुसलमानों का निवास
गैर-इस्लामी क़ानून निर्माताओं से लड़ने की प्रेरणा
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लड़ाई में पहल करने का आह्वान
जिहाद एवं नमाज़ बराबर
जिहाद, मुसलमानों का व्यक्तिगत दायित्व
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प्रतिश्रुत मसीह
मुजद्दिद तंत्र
इमाम मेहदी (मार्गदर्शित अधिनायक)
हकम-अद्ल
खिलाफ़त तंत्र
प्रतिश्रुत सुधारक की पहचान
प्रतिश्रुत मसीह मुस्लिम समुदाय से
मसीहा-मेहदी एक ही अस्तित्व
प्रतिश्रुत सुधारक ईरानी (फ़ारसी) मूल का
प्रतिश्रुत संस्कारक का प्रादुर्भाव हिंदुस्तान में
भविष्यवाणियों का निष्कर्ष
हज़रत मुहम्मदस. की वसीयत
भविष्यवाणियाँ सत्यसिद्ध हो चुकीं
भ्रांत धारणाएँ
मेहदी सूडानी-मेहदी अल क़हतानी
मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद: संक्षिप्त जीवन वृतांत
मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद जी के दावे
मुजद्दिद (प्रतिश्रुत संस्कारक) का दावा
मसीहा व मेहदी का दावा
अहिंसक मसीह-मेहदी की अवधारणा
सेवक-नबी होने का दावा
हकम-अद्ल की अवधारणा
खगोलीय संकेत
अहमदिया जमात की स्थापना
चरमपंथ के विरुद्ध अभियान
अफ़गानी शासकों को दिशानिर्देश
ब्रिटिश इंडिया प्रशासकों को परामर्श
स्वतंत्र क़ानून का परामर्श
अहमदिया समुदाय का दृष्टांत
उलेमा मार्गदर्शन के क़ाबिल नहीं!
अध्याय-4
चरमपंथी विचारधारा का खंडन-समाधान: अहमदिया दर्शन के प्रकाश में
चरमपंथी विचारों के तीन प्रारूप: उद्देश्य मूलक-साधन मूलक-सहायक
इस्लाम के वैज्ञानिक ज्ञानबोध का उसूल
क़ुरान-सुन्नत-हदीस का महत्व निर्धारण
पवित्र क़ुरान की व्याख्या का सूत्र
हदीसों से तर्क प्राप्त करने की वैज्ञानिक विधि
खूनी मेहदी वाली हदीसों का खंडन
कथित Sword Verse एवं नासिख़-मंसूख अवधारणा का खंडन
उद्देश्य-मूलक अवधारणाओं का खंडन-समाधान
इस्लामी खिलाफ़त
अहमदिया खिलाफ़त: विश्वशांति की आधारशीला
ईमान लाने के नतीजे में खिलाफ़त
नुबुव्वत-प्रणाली पर खिलाफ़त
ISIS-खिलाफ़त अवैध ह
‘शरिया’ हुकूमत की स्थापना
शरीयत की स्थापना आध्यात्मिक सत्ता के हाथों
साधन-मूलक अवधारणाओं का खंडन-समाधान
जिहाद
पवित्र क़ुरान में जिहाद
गलत फ़हमी का कारण
मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद जी का दृष्टिकोण
सांप्रतिक दौर में सशस्त्र जिहाद की आवश्यकता नहीं
आत्मा को पावित्र करने का जिहाद जारी
हिंदुस्तान में सशस्त्र जिहाद निषिद्ध
इस्लाम को तलवार की आवश्यकता नहीं
क़लम के जिहाद से जीत
दिव्य चमत्कारों से जिहाद
सशस्त्र जिहाद
एक भी निरपराध की हत्या-समूचे मानवजाति की हत्या
इस्लामी युद्धों की पृष्ठभूमि: मिर्ज़ा साहब का दृष्टिकोण
हज़रत मुहम्मदस. का मिशन
इस्लामी जंगों का उद्देश्य
लड़ना मजबूरी थी
गलत फ़हमियों का समाधान
बद्र की जंग
इस्लाम में जंग (सशस्त्र जिहाद) के नियम
फ़िदायीन दृष्टिकोण का खंडन
सरकार से बगावत हराम
तक्फ़ीरी सिद्धांत का खंडन
सच्चा मुसलमान कौन?
‘कुफ़्र’ का फ़त्वा हराम
मुर्तद की सज़ा मौत नही
मन की भावनाओं पर सज़ा
भावनाओं की सज़ा मृत्यु पश्चात
सज़ा का प्रार्थी कौन?
सहायक अवधारणाओं का खंडन-समाधान
जन्नत-दोज़ख के नाम पर आतंकवाद
शहीद व शहादत के नाम पर आतंकवाद
गैर मुस्लिम मातृभूमि से युद्ध
निष्कर्ष
प्राक्कथन
इस्लाम का केंद्रीय दृष्टिकोण
समाधान का मूलमंत्र
आतंकवाद एक प्रकार की प्राचीन युद्धनीति है जिसे बगैर भेदभाव जाति, धर्म व वर्ण भिन्न भिन्न वर्गों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता रहा है जिस में मुसलमानों का एक वर्ग भी शामिल है। ऐसे में इसे किसी धर्म या वर्ग के साथ विशेष रूप से जोड़ कर प्रस्तुत करना वस्तुत्व अनुचित है। लेकिन हाल के दिनों में पथभ्रष्ट मुस्लिम समूहों के द्वारा ‘ जिहाद ’ के नाम पर सरंजाम दिये जाने वाले आतंकवाद के लिए न केवल इस्लाम को ज़िम्मेदार माना गया अपितु इसे इस्लाम के महापुरुषों के साथ जोड़ कर प्रस्तुत करते हुए एक शांतिप्रिय मज़हब की छवि बिगाड़ने का हर संभव प्रयास भी किया गया। इस दौरान ‘ इस्लामी आतंकवाद’ के नाम से पश्चिमी मीडिया के द्वारा ऐसा साहित्यिक सामान भी परोषा जाने लगा जिस से आतंकवाद कहीं भी और किसी के भी द्वारा क्यों न सरंजाम दिया जाए सभी को यह लगे कि इस में मुसलमानों ही का हाथ है। इस भ्रांतधारणा को दुरुस्त करने के अलावा इसे दूसरे समुदायों के द्वारा सरंजाम दिये जाने वाले आतंकवाद से पृथक दर्शाने हेतु पुस्तक में इस का नामकरण इस्लामी आतंकवाद के बजाय ‘ जिहादी आतंकवाद’ किया गया है।
इस से पहले कि मैं मुख्य प्रसंग पर आऊँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जिस प्रकार से सरकार तथा इस के सहायक तंत्र अर्थात कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं विधायिका (Executive, Judiciary, Legislative) के बगैर देश के संबिधान एवं क़ानून व्यवस्था को लागू नहीं किया जा सकता। ठीक उसी प्रकार से इस्लामी शासन तंत्र अर्थात ‘खिलाफ़त’ की अनुपस्थिति में इस्लामी शिक्षा तथा इस के व्यवस्थाओं को भी लागू नहीं किया जा सकता। क्योंकि खिलाफ़त ही वह संस्थान है जिसके कंधे पर इस्लामी मामलों में समयानुरूप मार्गदर्शन प्रदान करने के अलावा इस की शिक्षा व नियामकों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने का दायित्वभार ड़ाला गया है। ऐसे में कह सकते हैं कि जैसे स्वस्थ शासन तंत्र के बगैर System उलट-पुलट हो जाता है, देश का संबिधान असहाय हो जाता है तथा इस का महत्व नहीं रह जाता। यहाँ तक कि अराजकतावाद (Anarchism) के हावी होने के साथ नागरिक अपनी मर्ज़ी से देश के मामले तय करते हैं। आज इस्लाम की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। अर्थात खिलाफ़त तंत्र की अवहेलना के कारण इस्लामी विधानों का सही अनुपालन नहीं हो रहा है। जिसके चलते हर कोई अपनी मर्ज़ी से इस्लाम का व्याख्यान करता फिरता है। इस क्रम में कुछ अराजक तत्व धर्म व आस्था के नाम पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के प्रयासों में लीन हो गए जिसका नतीजा आतंकवाद के रूप में प्रकट हुआ। ऐसे में हिंसा व आतंकवाद के लिए इस्लाम को कठघरे में खड़ा करना कहाँ तक उचित है?
जहां तक खिलाफ़त प्रणाली का प्रश्न है तो विदित रहे कि आज की तारीख़ में सैद्धांतिक रूप से स्थापित खिलाफ़त प्रणाली से अलग हटकर चरमपंथी तत्व अलग प्रारूप की खिलाफ़त प्रणाली स्थापित करने में प्रयासरत हैं। जिसके लिए इस्लामी जिहाद (कथित धर्मयुद्ध) को मुख्य औज़ार के रूप में चित्रित किया जाता है और आतंकवाद इसी का बिगड़ा हुआ रूप है। ऐसे में कथित जिहाद तथा संबंधित भ्रांत धारणाओं का तात्विक समाधान ही समस्याओं से छुटकारा पाने का मूलमंत्र है। कहना भले ही आसान हो लेकिन अनगिनत संख्या में मौजूद इन वहु-दृष्टिकोणीय चरमपंथी सिद्धांतों एवं धारणाओं के पेचीदा नेटवर्क का तोड़ निकाल पाना इतना आसान भी नहीं। ऐसे में उस विभूति; हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमदआ.स. की ओर ध्यान का जाना स्वाभाविक है। जिन्हों ने न सिर्फ़ मुसलमानों के वर्गविशेष में पनपने वाली कट्टर मानसिकता की पहचान की अपितु इसके सभी पहलुओं को उजागर करते हुए इसके समाधान का व्यावहारिक मॉड़ेल (Practical Model) प्रस्तुत किया। यदि यह सही है तो निस्संदेह मिर्ज़ा साहब के द्वारा प्रस्तुत कार्यों व विचारों का अध्ययन इस वैश्विक समस्या के समाधान की कुंजी है।
वस्तुस्थिति यह थी कि उन्नीसवीं सदी की अंतिम दहाइयों में जब संयुक्त हिंद-पाक तथा अफ़गानिस्तान के सीमांत प्रदेशों में जिहादी मानसिकता पर परवान चढ़ रही थी उस समय हिंदुस्तान के पंजाब प्रांत से संबंध रखने वाले हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमदआ.स. पूरी शक्ति से मोर्चा संभालते हुए जिहादी तत्वों के सामने चट्टान की भांति खड़े रहे। तथा अपने दमदार साहित्य-दर्शन के दम पर उन्हे नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया। जिस से भयभीत होकर धार्मिक अतिवादियों ने हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमदआ.स. तथा उन के हस्त-स्थापित जमात को मुसलमानों की निगाहों से गिराने का कभी न ख़त्म होने वाले घिनौने खेल का आगाज़ किया।
पाठकों! आज आतंकवाद के समाधान की दिशा में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किए जाने वाले सभी प्रयास एक-एक कर नाकाम सिद्ध हो रहे हैं। क्योंकि इसकी रोकथाम हेतु या तो सामरिक संसाधनों का इस्तेमाल किया जा रहा है या फिर इसके लिए इस्लाम को ज़िम्मेदार मानते हुए इस्लामी साहित्य, दर्शन तथा इसके महापुरुषों को टार्गेट में लेने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके चलते एक शांतिप्रिय धर्म के बारे में पैदा होने वाली शंका व आशंका की एक ऐसी स्थिति पर पहुँच चुकी है जहां मानव समाज इस्लाम के नाम से दूर भागता नज़र आता है। प्रिय पाठकों! यह इस्लाम को लेकर बहुत बड़ा विरोधाभाष है। क्योंकि हज़रत मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमदआ.स. ने जिस दृष्टिकोण के आधार पर आतंकी मानसिकताओं का स्थायी समाधान प्रस्तुत किया है वह इस्लाम ही पर आधारित है। ऐसे में हमें स्वीकार करना होगा कि विकार इस्लाम में नहीं अपितु इसकी शिक्षाओं का गलत हवाला देकर उपद्रव मचाने वाले स्वार्थी व उन्मादी तत्व हैं। जो मुख्यतः इस्लामी जिहाद व इस्लामी खिलाफ़त के नाम से धरती पर अपना सिक्का चलाने के दिवास्वप्न से ग्रसित हैं। जिहादी उन्माद के इस विश्वव्यापी अभियान के कारण जहां एशिया से लेकर यूरोप तक तथा अफ़्रीका से लेकर अमेरिका तक अशांति का माहौल बना हुआ है वहीं करोड़ों लोग इसके चलते खौफ़ की शाया में जीवन बिताने पर विवश हैं। यहाँ तक कि ऐसी कोई सुबह नहीं होती जब TV या इंटरनेट पर इस से जुड़ी कोई न कोई ख़बर सुनने में न आती हो तथा ऐसी कोई रात नहीं गुज़रती जब इसकी गूंज कानों में न पड़ती हो। जहां तक इसके निवारण का प्रश्न है, विगत दो-तीन दहाइयों से इस दिशा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद भी वैश्विक स्तर पर आतंकी मानसिकता में बढ़ोतरी चिंता का विषय बना हुआ है। जहां तक मैं समझता हूँ मुस्लिम चिंतकों को इस दिशा में पहल करते हुए अच्छे उदाहरणों के साथ विश्व को इस्लाम के बारे में सकारात्मक संदेश देने की आवश्यकता थी। लेकिन नीरा फ़त्वेबाज़ी के अलावा उनकी ओर से कुछ भी नहीं किया गया जिसके चलते जिहादी मानसिकता आज एक वैश्विक चुनौती बन चुकी है।
प्रिय पाठकों! इस्लाम वहु-आयामी तथा वहु-दृष्टिकोणीय ज्ञानतत्वों का एक ऐसा समाहार है जिस में साहित्य भी है, दर्शन भी है आध्यात्मिकता भी है, विज्ञान भी है, सियासत भी है, गणित भी है तथा खगोलविद्या, अध्यात्मवाद एवं अर्थशास्त्र इत्यादि ज्ञान का एक अनंत भण्डार मौजूद है। जिस के अंतर्निहित ज्ञान-तत्वों को उजागर कर पाना हर किसी के वश की बात नहीं और न ही इस जैसे एक शुद्ध ईश्वरीय तत्व को परिभाषित कर पाना साधारण मनुष्य के लिए संभव है। अतः इसके सूक्ष्म ज्ञानबोध को उजागर करने हेतु इस्लाम में प्रत्येक युग में दिव्य सुधारकों का प्रादुर्भाव पूर्वनिश्चित किया गया है। इस कड़ी में अंतिम युग की चुनौतियों से निपटने के लिए इस्लाम के महान पैगंबर हज़रत मुहम्मदस. ने ‘मसीह’ व ‘मेहदी’ उपाधि-धारी एक दिव्य मार्गदर्शक की पूर्वसूचना दी है, जो अपने निर्धारित समय पर प्रकट भी हो चुका है। लेकिन इसे स्वीकार करने के बजाय आस्था की ज्वाला भड़का कर स्वार्थ की रोटियाँ सेंकने वाले कुछ तत्व उस के सबसे बड़े शत्रु के रूप में उभर कर अपने ब्रांड का इस्लाम स्थापित करने के प्रयासों में लग गए। जिसके तहत धार्मिक कट्टरवाद व आतंकवाद जैसी गतिविधियों को प्रमुख साधनों के रूप में प्रयोग में लाया गया। इस सिलसिले में उन्हों ने उलेमा व धर्मगुरुओं के वर्गविशेष को मुट्ठी में लेकर इस्लाम को अपने विचारों के अनुरूप परिभाषित करने का ऐसा अभियान चलाया कि अनपढ़ तो अनपढ़ मुसलमानों का शिक्षित वर्ग भी इस्लाम व आतंकवाद के मध्य अंतर स्पष्ट कर पाने में असमर्थ रहा।
जहां तक इस्लाम का प्रश्न है इस में मानव समाज के सामने प्रकट होने वाली आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं के समाधान के अलावा विश्वशांति की स्थापना हेतु पर्याप्त दृष्टिकोण मौजूद हैं। लेकिन जैसा कि मैं ने कहा इस ने अपनी अवधारणाओं को समुचित रूप से लागू करने का दायित्वभार एक पूर्व निर्धारित तंत्र को सौंपा है। जिसके अलावा कोई भी इसका भरोषेमंद दृष्टिकोण न तो प्रस्तुत कर सकता और न ही यह किसी के अधिकार क्षेत्र में है—चाहे वह कोई संस्थान हो, विद्वान हो या राष्ट्राधक्ष। ऐसे में सबसे बड़ा प्रश्न उभर कर आता है कि आखिर कौन है यह तंत्र और क्या है उसकी पहचान? लेकिन ऐसे दौर में जब इस्लाम के सभी के सभी संप्रदाय ख़ुद को सच्चा सिद्ध करने के अलावा दूसरों को इसके दायरे से बाहर करने में उतारू हों। जहां अनगिनत संस्थान इस्लाम का प्रतिनिधित्व करने का दावा ठोकते हों तो ऐसे में उस तंत्र की तथा इस्लाम के वास्तविक दृष्टिकोण की पहचान कितना कठिन है, बताने की आवश्यकता नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि इस्लाम के नाम पर खुद का दृष्टिकोण थोपने वाले उपद्रवी तत्वों तथा उनके हथकंडों को दरकिनार करते हुए इस्लाम के आधिकारिक तंत्र तथा आधिकारिक मार्गदर्शन की पहचान ही वस्तुनिष्ठ समस्या के समाधान तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता है। अतः पुस्तक में इसकी विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत करने के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ विषयों पर इस्लाम के आधिकारिक दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न किया गया है।
पाठकों! कथित इस्लामी आतंकवाद की पृष्ठभूमि की बात करें तो उन्नीसवीं सदी के अंत तक बहुत से मुस्लिम मुल्क या तो यूरोपीय उपनिवेशकों की मुट्ठी में जा चुके थे या फिर जाने के कगार पर थे। इस क्रम में मध्य-आफ्रिका के अधिकतर मुस्लिम देशों पर फ़्रांस का, मिस्र एवं कुछ एशियाई मुल्कों पर ब्रिटेन का, इंडोनेशिया पर ड़ेनमार्क का तथा फिलीपींस पर स्पेन का नियंत्रण स्थापित हो चुका था। इस क्रम में पश्चिमी षडयंत्र से तुर्की में स्थापित इस्लामी खिलाफ़त (खिलाफ़त-ए-उस्मानिया) की समाप्ती, पूर्वी कश्मीर पर हिंदुस्तानी नियंत्रण, फ़िलिस्तीन के बड़े भूभाग पर यहूदियों के कब्ज़ा तथा अफ़गानिस्तान में रूसी सैनिकों के प्रवेश के कारण मुसलमानों में भय और बेचैनी की स्थिति चरम पर पहुँच गयी। जो कि आगे चल कर हालिया जिहादी अभियान की आग को ईंधन उपलब्ध कराने वाली सिद्ध हुई। यह वह क्षण था जब मुस्लिम विद्वानों एवं लीडरों ने अपने अपने मुल्कों को विदेशी आक्रमणकारियों से आज़ाद कराने हेतु उपनिवेशवादी विरोधी (Anti Colonialism) आंदोलनों की नींव रखी। जिसके चलते विश्वभर में ऐसे आंदोलनों की भरमार हो गयी जो हालिया आतंकवाद का ईंधन सिद्ध हुए। इस क्रम में जिन व्यक्ति विशेषों तथा आंदोलनों का नाम प्रमुखता के साथ लिया जाता है उन में हिंदुस्तान के सय्येद अहमद शहीद , ईरान के मिर्ज़ा हसन सीराजी, शेख़ फ़ज़्लुल्लाह नूरी, कोहेस्तान (Caucasus) के इमाम शामिल, अल्जेरिया के अमीर अब्दुल क़ादिर, सोमाली के मुहम्मद बिन अब्दुल हसन, सुडान के महदी, ईरान के जमालुद्दीन अफ़गानी इत्यादि लीडर, पश्चिम अफ़्रीका के तिजानी जिहाद (1780-1880), अल-हज उमर ताल बगावत, वहाबी-सलाफ़ी-जमाते इस्लामी धर्म आंदोलन तथा इख्वानुल मुस्लेमीन जैसे संगठनों ने प्रारंभिक भूमिका निभाई।
इस प्रकार से जब मज़हब और ईमान की दुहाई देकर हर दिशा से अल-जिहाद अल-जिहाद का नारा बुलंद किया गया तो धर्मरक्षा के नाम पर हिंसा का प्रयोग भी आम होता गया। मज़हबी जंगों की इस दावत-ए-आम के नतीजे में जगह-जगह काफ़िरों का शिरछेदन करने तथा काफ़िर हुकूमतों को उखाड़ फेंकने के लिए तलवारें भी मियान से बाहर निकल आयीं। जिस के नतीजे में मुसलमानों में उग्र जिहादिवाद का ऐसा रंग चढ़ा कि अशिक्षित वर्ग के साथ साथ मुसलमानों का पढ़ालिखा तबक़ा भी जिहाद जैसी पवित्र अवधारणा तथा आतंकवाद के मध्य अंतर कर पाने में नाकाम रह।। आज स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि इस विचारधारा का समर्थन नहीं करने वाले मुसलमानों को इस्लाम के दुश्मन के रूप में चित्रित कर बली का बकरा बनाया जाता है।
धर्मसंकट की इस विचित्र स्थिति से मानवता का उद्धार करने के लिए इस्लामी ग्रंथों में वर्णित पूर्व-सूचनाओं के आधार पर मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमदआ.स. को इस दौर के आधिकारिक मार्गदर्शक के रूप में भेजा गया। चरमपंथियों की यलगार के बीच यह योद्धा न सिर्फ़ मैदान-ए-जंग में अंत तक ड़टा रहा अपितु उनके एक-एक वार का ऐसा मूंहतोड़ जवाब दिया कि उनका दाँत खट्टा हो गया। ऐतिहासिक दस्तावेजों से सिद्ध होता है कि उन्नीसवीं सदी की अंतिम तथा बीसवीं सदी की प्रारंभिक दहाइयों में मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद जी ऐसे एकमात्र इस्लामी लीड़र थे जिन्हों ने वन मैन आर्मी की भांति तीस सालों तक अतिवादी तत्वों के विरुद्ध मोर्चा संभाल रखा। तथा अपनी क़लम की चोट एवं प्रतिबद्धता से उग्र जिहादीवाद के मज़बूत सिद्धांतो को तास के पत्तों की भांति ढ़हा कर रख दिया। यहाँ तक कि अपने दौर में ही उन्हों ने इस कथित जिहाद की पूर्ण नाकामी की भविष्यवाणी भी कर दी[4] जो आज अक्षरशः सच साबित हो रही है।
जहां तक जिहादी आंदोलन के समर्थक उलेमाओं (मुस्लिम विद्वानों) का प्रश्न है, मिर्ज़ा साहब के साहित्य व दर्शन के सामने उनकी एक भी न चली तथा तर्क-वितर्क की जंग में ख़ुद को हारते हुआ देख उन्होंने मिर्ज़ा साहब को इस्लाम के दायरे से ख़ारिज करने की चाल चली ताकि फ़त्वे के ड़र से आम मुसलमान