Biography of Anoop Singh Adhuri Kahani 'Death is better than a meaningless life'
By Amit Tiwari
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About this ebook
The book delves into the life of Anoop Singh, a resident of Mehrauli, Delhi, who carved a significant path amidst his trials and tribulations. Presented in an autobiographical style, it offers a multifaceted glimpse into Anoop's journey, showcasing the myriad experie
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Biography of Anoop Singh Adhuri Kahani 'Death is better than a meaningless life' - Amit Tiwari
कुछ यूं बनी कहानी
रिकॉर्ड ने दी बड़ी पहचान
समाज में किसी असहाय को सहारा देना सबसे बड़ा पुण्य है। जिन लोगों ने अपना पूरा जीवन परिवार और समाज को दे दिया है, उन्हें वृद्धावस्था में इधर-उधर की ठोकर खानी पड़े, इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता है। इसी विचार के साथ मेहरौली, दिल्ली के रहने वाले अनूप सिंह ने 27 नवंबर, 2019 को पहले एक ट्रस्ट स्थापित किया और फिर उसके तहत एक वृद्धाश्रम पंजीकृत कराया था। 15 सितंबर, 1996 को जन्मे अनूप ने उस समय मात्र जीवन के 24वें वर्ष में कदम रखा था। इस उम्र तक युवा बमुश्किल अपने जीवन को कोई आकार देने का प्रयास कर रहे होते हैं। वहीं एक बड़ी लकीर खींचते हुए अनूप ने न केवल अपने जीवन को दिशा देने का काम किया, बल्कि अनगिनत लोगों के जीवन को भी संबल देने की दिशा में कदम बढ़ा दिया।
इस उम्र में ट्रस्ट पंजीकृत कराने के उनके प्रयास को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान भी मिली है। वर्ल्ड्स ग्रेटेस्ट रिकॉर्ड ने उनका नाम सबसे कम उम्र में वृद्धाश्रम संचालित करने वाले व्यक्ति के रूप में दर्ज किया है। वैसे तो और भी युवा हैं समाज में जो कम उम्र में ट्रस्ट और वृद्धाश्रम का संचालन कर रहे हैं, परंतु वे पीढ़ियों से विरासत में मिले किसी ट्रस्ट का संचालन कर रहे हैं। अनूप सिंह इसी मामले में बाकी सबसे अलग हैं। उन्होंने स्वयं के प्रयासों से अकेले दम पर ट्रस्ट पंजीकृत कराया है और अब वृद्धाश्रम के संचालन की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।
यहीं से नींव पड़ती है हमारी इस कहानी की। एक युवा को अपने निजी प्रयासों के दम पर ऐसे अंतरराष्ट्रीय सम्मान तक पहुंचते देखना नि:संदेह प्रेरणा का कारक है। बचपन से ही पिता से विशेष लगाव रखने वाले अनूप ने बीमारी के कारण पिता के असमय निधन के बाद समाज के लिए कुछ करने की ठान ली थी। उन्होंने 27 नवंबर, 2019 को 'रतन राज सेवा ट्रस्ट' की स्थापना की। ट्रस्ट का यह नाम रतन यानी उनके पिता और राज यानी उनकी माता (राजकुमारी) के नाम को मिलाकर रखा गया। ट्रस्ट की स्थापना के साथ ही मानों उन्हें जीवन का उद्देश्य मिल गया। जिस उम्र में युवा दिशाहीन होकर भटक रहे होते हैं, उस उम्र में अनूप ने अपने लिए बड़ी जिम्मेदारी तैयार कर ली थी।
अपने प्रयास को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिलने के बाद भी अनूप के व्यवहार में कहीं कोई दंभ नहीं दिखता है। न ही उनके मन में किसी तरह का कर्ता भाव है। वह खुले मन से अपनी हर उपलब्धि के श्रेय को साझा करते हैं। वह कहते हैं, 'जीवन में कुछ भी प्राप्त करने के लिए सभी के सहयोग की आवश्यकता होती है। माता और पिता की प्रेरणा के साथ दोस्तों के सहयोग और उनसे मिले समर्थन ने मुझे सदैव शक्ति दी है। आज उनकी बदौलत ही मेरे लिए यह सब कर पाना संभव हुआ है। मैं यह सम्मान अपने उन सहयोगियों को समर्पित करना चाहता हूं, जिनके साथ ने मुझे यहां पहुंचाया है।' दोस्तों की बात हो तो अनूप अपने मित्र भूपेंद्र सिंह और हनी (बदला हुआ नाम) को कभी नहीं भूलते हैं, जिन्होंने हर उतार-चढ़ाव में उनका सदैव साथ दिया है।
इन्हीं बातों के साथ हमारी कहानी के नायक का जीवन किसी किताब की तरह धीरे-धीरे खुलता जाता है। हर बात अपने साथ जीवन का कोई न कोई फलसफा लिए चलती है। वह कहते हैं, 'वास्तव में जीवन में विफलता जैसा कुछ नहीं है। जो साहस करता है और चल पड़ता है, वह लक्ष्य तक अवश्य पहुंचता है। विफल होना मात्र ज्यादा बेहतर करने की चुनौती है। हम विफलता को स्वीकार करके और उसका स्वागत करते हुए जब फिर कदम बढ़ाते हैं, तब हमें अनुभव होता है कि वस्तुत: हमने जिसे विफलता समझा था, वह तो सफलता की ओर बढ़ने की एक नई दिशा थी। इसीलिए तो कहा जाता है कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती है।'
इस तरह की मिलती-जुलती सी बातें संभवत: आपने पहले भी कहीं पढ़ी होंगी। मैंने भी कुछ इन्फ्लूएंसर्स को ऐसी बातें कहते सुना है। जीवन जीने का सबक सिखाने वाले कुछ लेखकों को पढ़ते समय भी ऐसी बातों से सामना हुआ है।
लेकिन, उस दिन इस बात में कुछ अलग था। इसे कहने वाला कोई महान लेखक नहीं था। यह कहने वाला कोई ऐसा नहीं था, जिसकी बातें बस क्षणिक उत्साह से भर देती हैं और फिर कुछ समय बाद जैसे ही हम अपने जीवन के संघर्षों में उलझते हैं, तो सब बातें धरी की धरी रह जाती हैं। चरम पर पहुंचा उत्साह कुछ क्षणों में स्खलित हो जाता है और हम परिस्थितियों में खोकर रह जाते हैं।
लेकिन, इस बार ऐसा नहीं हुआ। पता नहीं इस बात को कहने वाले में ऐसी कोई बात थी या उसके संघर्षों से अपने जीवन का साम्य कुछ ऐसा था कि ये पंक्तियां मन में कहीं गहरे तक समाती चली गईं।
अनूप सिंह ने पहली बार हुई बातचीत में अपनी इन्हीं पंक्तियों से मस्तिष्क के तार झंकृत कर दिए थे। दरअसल इन बातों के अर्थ से ज्यादा उस युवक के भाव ने मन को छुआ था। एकदम सहज और सरल चित्त। न किसी प्रकार का दंभ, न ही इस उम्र के युवाओं की तरह छिछलापन। सब कुछ सधा हुआ।
अनूप कहते हैं, 'जीवन में कभी किसी से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। असल में आप अपने जीवन के नियंता स्वयं होते हैं। आपके सबसे बुरे क्षणों में कोई साथ नहीं होना चाहता है। वहीं, जैसे ही आप सफल होने की राह पर बढ़ते हैं, वही लोग आपसे परिचय जोड़ने का प्रयास करते हैं, जिन्होंने कभी आंखें चुरा ली थीं। जिंदगी में सिर्फ 12 दिन लोग आपके पिता बनकर संबल बनने का दंभ भरते हैं, लेकिन तेरहवें दिन कोई नहीं होता है। उस दिन सिर्फ लकड़ी वाले और कुछ अन्य लोगों के बिल आपके सामने होते हैं और उन सभी बिल को आप ही चुकाते हैं। मेरे घर में एक निधन हुआ था, हमारा राज छीना जा रहा था और बदले में रिश्तों-नातों की तरफ से मिल रहे थे तो बस कुछ झूठे वादे।'
अनूप ने दो मिनट में जीवन की उस कड़वी सच्चाई को इतनी साफगोई से सामने रख दिया कि कुछ पल के लिए निशब्द हो जाना पड़ा।
'आज मेरे नाम यह रिकॉर्ड दर्ज हुआ है। असल में यह मेरे नाम नहीं है। यह मेरे पिता के नाम है। मेरी पहचान मेरे पिता और मेरी माता से है। मैंने अपने पिता रतन सिंह और मां राजकुमारी के नाम पर ही अपने ट्रस्ट का नाम 'रतन राज सेवा ट्रस्ट' रखा है। और मुझे खुशी होती है, जब कहीं इस नाम को लिखा जाता है। कई लोग इसे मेरा ही नाम समझते हैं। कभी जब कोई मुझे रतन के नाम से बुलाता है, तो मन आह्लादित हो जाता है। लगता है कि अपने पिता के लिए इससे ज्यादा मैं शायद ही कुछ कर सकूंगा। जिन्होंने मुझे गढ़ा है, अगर मैं उनके नाम को थोड़ा सा भी गढ़ पाऊं तो यह मेरा सौभाग्य ही होगा।'
एक ओर संबंधों से शून्य होती पीढ़ी और दूसरी ओर पूरी तरह से माता-पिता के लिए समर्पित पुत्र। समय और समाज के वर्तमान को देखते हुए यह अकल्पनीय सा लगने वाला सच है। साथ ही यह प्रेरणा भी है। यह हर माता-पिता के लिए उम्मीद की किरण है, जिन्हें लगता है कि अब बच्चे ऐसे नहीं रहे, जो माता-पिता के लिए स्वयं को समर्पित कर सकें। यह उम्मीद की किरण है इस समाज के लिए कि इस धरती ने अभी श्रवण कुमार को जन्म देना बंद नहीं किया है। सधे से शब्दों में किसी से भी उम्मीद न रखने की बात कहने वाले अनूप सिंह की बातों में स्वयं न जाने कितने लोगों के लिए उम्मीद की किरण दिख रही थी।
'बात यदि जीवन की हो, तो उसकी कहानी किसी ऐसे साथी के बिना पूरी नहीं होती है, जो स्वयं ही जीवन बन जाता है। मेरा जीवन भी ऐसे ही एक साथी के प्रेम एवं सहयोग का परिणाम है। यूं तो हनी (बदला हुआ नाम) मेरे जीवन में बहुत पहले ही आ गई थी। लेकिन तब शायद सोचा नहीं था कि ये जो दो चोटी बनाए मासूम सी आंखों वाली लड़की दिख रही है, कभी उसकी आंखों में ही मेरा पूरा संसार सिमट जाएगा। सोचा नहीं था कि वो नाजुक से हाथ ही कभी मेरे जीवन का सबसे मजबूत संबल बनकर सामने आएंगे। सोचा नहीं था कि वो खनकती सी आवाज मेरे जीवन के लिए किसी मंदिर की घंटी से भी ज्यादा पवित्र और मधुर आवाज बन जाएगी।'
'और हां, यह सब होने के बाद कभी सोचा नहीं था कि मेरे हृदय की वह देवी अचानक एक दिन मुझसे कह देगी कि बस, मेरा-तुम्हारा साथ यहीं तक था अनूप। अब तुम्हें अपने जीवन में आगे बढ़ना होगा। तबसे मैं बस आगे बढ़ने की कोशिश ही कर रहा हूं। सोचा नहीं था कि वही आवाज मुझे एक दिन दुख देकर जाएगी। लेकिन यह भी सच है कि उसके बिना आज भी अधूरा ही अनुभव करता हूं।'
'मेरे जीवन की कहानी में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो सबसे अलग है। मेरे जीवन की कहानी भी सामान्य युवाओं की तरह ही बढ़ती है। मैं भी अपनी जिद के लिए कुछ भी कर जाने को तत्पर रहने वाला बच्चा था। मैंने भी छोटी-छोटी बातों पर दोस्तों को बुलाकर लड़ने की तैयारी की है। मैंने भी किसी को देखा, माना और चाहा है। मैंने भी अपनी शर्तों पर जीने के नाम पर बहुत कुछ ऐसा किया, जिसे सामान्य पैमाने पर सही नहीं कहा जा सकता है। लेकिन एक दिन यूं ही सड़क से गुजरते हुए सामने आए एक अनुभव ने जीवन की दिशा बदल दी। मैंने कुछ ऐसा करने की ठानी, जिसने आज मुझे यहां खड़ा कर दिया है। आज पलटकर देखता हूं तो लगता है कि माता-पिता से मिले संस्कारों ने ही मुझे यहां तक पहुंचने की हिम्मत दी है।'
इन्हीं बातों के साथ हमारी इस कहानी ने अपने नायक को खोज लिया था।
असल में दुनिया में कुछ लोग नायक होते हैं। फिर उन नायकों के इर्द-गिर्द कहानियां बुनी जाती हैं।
कहानी बस हमारे चारों तरफ बिखरी रहती है और उस कहानी को व्यक्त करने वाले शब्द किसी कलम में स्याही बनकर ठहरे रहते हैं।
उस स्याही को उम्मीद रहती है कि कोई नायक होगा, जिसके लिए शब्दों को रूप देने का अवसर उसे मिलेगा।
हमारी कहानी को भी नायक मिल गया।
यह कहानी कई टुकड़ों में लिखी जाएगी।
क्योंकि हमारा नायक भी कई टुकड़ों में बिखरकर जुड़ा