मेरी आगरा यात्रा : ताजमहल, आगरा किला और पेठा
By अंकित
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हमें ताजमहल देखने जाना था। हम कुछ देर और रेल्वे स्टेशन पर रुके, ताकि शहर जाग सके और चहल पहल शुरू हो जाए। और ताजमहल खुल जाए। ऑटो मिलने लगे। मैंने अनुमान किया था कि वह आठ बजे तक खुल जाएगा। साढ़े सात बजे, हम रेलवे स्टेशन से बाहर निकले। रेलवे स्टेशन के बाहर बड़े-बड़े अक्षरों में आई लव आगरा लिखा हुआ था। हमने वहाँ फोटो खींचे और तुरंत स्टेटस पर लगा दिए ताकि घर पर तो पता लग ही जाए कि हम आगरा पहुँच गए हैं। हाँलाकि घर वाले भूरा से फोन पर बात करते रहते थे। फिर भी फोटो देख लेने पर उन्हें तसल्ली हो जाती थी, कि हमारा बेटा ठीक है।
रात को उजाला नहीं था इसलिए यह नहीं दिखा था। सुबह इसे देखकर मैं चौंक गया कि यह अचानक कहाँ से प्रकट हो गया। फोटो खींचकर हम ऑटो स्टैंड की तरफ बड़े। ताजमहल पाँच कि.मी. दूर था, पैदल जाते तो थक जाते और दोपहर तक पहुँच पाते। हम एक इलेक्ट्रिक टुक टुव में बैठ गए। वह 20-20 रुपये में तैयार हो गया था।
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मेरी आगरा यात्रा - अंकित
श्री गणेशाय नमः
अध्याय-1
आज 01 फरवरी 2024 है, आज से आगरा यात्रा लिखना शुरू कर रहा हूँ। मैं और भूरा दिल्ली यात्रा समाप्त करके तिलक ब्रिज रेल्वे स्टेशन पर पहुँच गए। तारीख 20 फरवरी 2023 थी।
पूरा स्टेशन खाली पड़ा था, एक दो लोगों के अलावा वहाँ कोई नहीं था, हम ब्रिज पर चड़े और प्लेट फार्म नम्बर तीन की तरफ चल पड़े उसी पर हमारी ट्रेन आने वाली थी। दिल्ली में घूमकर अच्छा लगा था। दिल्ली में बहुत आनंद लिया था, आगरा के लिए रोमांचित तो था पर बहुत ज्यादा नहीं। उस समय शांत मन था। इंडिया गेट से स्टेशन तक डेढ़ कि.मी. हम पैदल आये थे , बैग के बजन से कंधे दर्द करने लगे थे, टाइट पेंट के कारण पैर भी दर्द कर रहे थे। थकावट बड़ रही थी।
शाम के सवा पाँच बज गए थे। सूरज डूबने वाला था। शाम 5:51 पर हमारी ट्रेन आने वाली थी। अभी समय था हम आराम कर सकते थे। हम ब्रिज से उतरे और एक बेंच पर जाकर बैठ गए, बैग निकाल कर दोनों के बीच में रख लिया। इसके बाद ही भूरा के चेहरे पर चमक आई। उसने चैन की साँस छोड़ी और टिक कर बैठ गया, और मोबाइल निकाल लिया, ट्रेन को देख रहा था कि कितने समय में आएगी। ट्रेन का समय देखकर उसने वाट्स अप खोला और जो उसने स्ट्रेट्स डाले थे उन्हें देखने लगा कि किस- किसने उन्हें देख लिया।
मैं भी पैर फैला कर और बैग के बल बैठ गया। कुर्सी सीमेंट की थी, वह नरम नहीं थी, पर आरामदायक थी। हम पिछले चार घंटे से बैठे नहीं थे तो आराम मिला।
हर दिन की तरह नहीं था आज का दिन, यह इतिहास मुझे भविष्य में कहेगा।
मैंने मन में कहा।
बैग उतराने के बाद ऊर्जा बढ़ने लगी, हमने एक दो फोटो खींचे। फिर एक फोटो जो उनमें सबसे अच्छा लग रहा था को स्ट्रेटस पर लगा दिया। तब तक कुछ लोग आने लगे थे वह शायद हमारी ही ट्रेन से जाने वाले थे। पहले तीन लड़कियाँ आईं वह हमारे दाई और खड़ी हो गई। उनकी शादी नहीं हुई थी। उम्र में वह मेरे से बड़ी हीं थीं। शायद आगरा जा रहीं थीं। उसके बाद एक आँटी और अंकल आए वह हमारी पीछे वाची बेंच पर बैठ गए। उसके बाद भीड़ बड़ने लगी। अच्छा लगने लगा।
हमारे सामने से लगातार ट्रेन आ जा रहीं थीं। रुकती बहुत कम थी, ज्यादातर धड़-धड़ाते हुए चली जाती थीं। जो रुकती थी उनमें से भी दो चार लोग ही उतरते थे।
हमारी ट्रेन जरूर रुकने वाली थी, उसका नाम था इन्टरसिटी एक्सप्रेस , हाँ जो दिल्ली से आगरा के बीच चलती है, मथुरा से दिल्ली भी इसी से आए थे और दिल्ली से आगरा भी इसी से जा रहे थे। बस ट्रेन नम्बर अलग था। ट्रेन का नम्बर था 14212 जबकि जिससे दिल्ली आए थे उसका नम्बर 14211 था। यही ट्रेन दिल्ली आती है तो 14211 हो जाती है और आगरा जाती है तो 14212 हो जाती है।
दिल्ली से आगरा के लिए मेरा टिकिट 128.05 रुपये लगा। जबकि भूरा का 129 रुपये, उसका दूसरी एप से टिकिट बुक किया था।
हमने अलग-अलग समय पर टिकिट बुक की थी तो हमें सीट भी अलग अलग मिली थी मैं डी1 डिब्बे में था और भूरा D-3 में। मेरी सीट नम्बर 43 था। भूरा की सीट D-3 में 66 नम्बर थी।
मैंने स्टेशन पर कई ट्रेन देखीं, एक ट्रेन मिलिट्री वाली लग रही थी, उसमें कम लोग ही बैठ थे, वैसी ट्रेन नहीं देखी थी तो अचंभा सा हुआ। भारतीय रेल में बहुत तरह की ट्रेन हैं, उनकी बनाबट , बैठने की व्यवस्था अलग अलग ही है। एक जैसा है ट्रेनो में भीड, अति से ज्यादा भीड़ होती है। उतने पर ही गंदगी भी बहुत ज्यादा होती है।
ट्रेनों में भी वही ग्रेट इग्नोरेंस दिखती है। यात्रीगण की ध्यान नहीं देते हैं, वह कहते हैं कौन मेरे बाप का कुछ बिगड़ रहा है, ट्रेन में सफाई कर्मचारी तो दिखते ही नहीं है , टीटी को इनसे मतलब नहीं है। नेता लोग ट्रेन में आते नहीं है। रेल मंत्रालय ते लोग भी ट्रेन में नहीं आते है तो गंदगी बनी हुई है। अवव्यस्था बनी हुई, यदि ट्रेन के टायलेट में घुस गए तो ऐसा लगता है जैसे नर्क में घुस गए। ऐसा सिर्फ जनरल या स्लीपर में नहीं है। बल्कि एसी कोच जो महेंगे है उनमें भी गंदगी मिल ही जाती है। उतनी नहीं मिलती है पर मिल जाती है।
ट्रेनों और लोगो को देखते-देखते हमारी ट्रेन का समय हो गया, बैचेनी बढ़ने लगी। सब लोग नई दिल्ली स्टेशन की ओर देखने लगे। लोग कम ही थे, या तो लोग नई दिल्ली स्टेशन से बैठते है या निजामउद्दीन से और जगह कम लोग चड़ते है। तिलक ब्रिज के आसपास तो घर भी कम ही थे। ट्रेन नई दिल्ली स्टेशन से ही बनने वाली थी।
ट्रेन आने में जब एक मिनिट की देरी हो गई तो मैने कहा,
इतने पास से भी नहीं आ पा रही है,
मैंने कहा, शायद आगे पीछे कोई ट्रेन होगी।
समय से पाँच मिनिट लेट हमारी ट्रेन आ गई। वह धीरे-धीरे आ रही थी, हार्न बजाते हुए। वह स्टेशन पर रुकी हम उसमें चड़ गए। डिब्बे में दो चार लोग ही बैठे थे देखकर अंचभा हुआ,
नई दिल्ली स्टेशन से ही नहीं चड़े, लग तो रहा था कि वहीं से भर जाएगी, सीट तक पहुँचने में बहुत दिक्कत होगी पर यह तो खाली है।
सीट तक पहुंचने में दिक्कत नहीं हुई। हम दोनों 43 नम्बर सीट के पास पहुँचे। मेरी सीट के सामने बड़ी टेबल थी, जल्दी टिकिट बुक करने का फायदा था। मैंने टेबल पर बैग रख दिया और सीट पर बैठ गया। भूरा ने भी टेबल पर बैग रख दिया और खुद खड़ा रहा , मैंने कहा ,
बैठ जा
मैं तो अपने ‘ही डिब्बे में जा रहा हूँ, नहीं तो टीटी आकर परेशान करेगा।
जब तक कोई नहीं है तब तक तो बैठ जा।
जा रहा हूं मै तो यदि देर की तो कोई मेरी सीट पर बैठ जाएगा,
तो तू जाएगा तो वह हट भी जाएगा।
इतना रिस्क कौन ले।
ठीक है तो ध्यान से जाना और वहाँ ध्यान से बैठना।
तेरे से बड़ा हूँ मैं।
पर आया तो मेरे साथ है, मौसी को जबाब तो मैं ही दूंगा।
हो ओ भाई साहब ,
हाँ तो मजाक थोड़ी कर रहा हूँ तुझे कुछ हो गया तो मौसी किससे कहेंगी।
मैंने हँस कर कहा।
तेरी मम्मी ने भी तो मुझे जिम्मेदारी दी है।
तो क्या तुझे लग रहा है, मुझे कुछ होगा।
हो गया तो जबाब कौन देगा।
मेरी बात मुझी पर पटक दी,
तो और क्या, ठीक है, अब जा रहा हूँ।
अच्छे से जाना और पहुँचकर फोन कर देना।
हाओ। और तू भी ध्यान से रहना।
मैं तो यहाँ बैठा ही हूँ, तू ही ध्यान से जाना। मेरी फिक्र मत कर, 155 साल उम्र है मेरी।
अच्छी तेरी 155 साल उम्र है, किसने कह दिया तुझे।
मैं बहुत छोटा था, दो-ढाई साल का, रीना दीदी और सोनू दीदी, खर्रा घाट ले गई थीं, खर्रा घाट गाँव के पास ही है। तूने देखा होगा।
नहीं देखा,
तू साँची से हमारे गाँव आता है तो नीमखेड़ा के बाद जो नदी आती है।
हाँ आती है।
तो वहीं तो खर्रा घाट है, वहाँ भैरा बाबा का स्थान है।
हाँ ध्यान आया।
" वहाँ छठ के समय पूजन होती है, वहाँ दूर दूर से लोग आते हैं। एक दिन दोनों दीदी वहाँ जा रहीं भी तो मम्मी के पास आकर बोलीं,
मौसी हम खर्रा जा रहे हैं। अंकित को ले जाएं।
मम्मी ने हाँ कर दिया। तो मैं दोनो के साथ खर्रा चला गया। हम खर्रा पहुंचे तो वहाँ एक बाबा जी ने मुझे देखकर दीदी से कहा,
इस लड़के की उम्र 155 साल है।
दोनों दीदी अंचभित हुईं। जब हम वापिस घर आए तो दीदी ने मम्मी से कहा। मुझे तो बात याद थी नहीं, मैं तो गोद में रखने वाला बच्चा था। मम्मी ने मुझे बाद में बताया। मुझे याद नहीं था।"
बाबा-आबा पर विश्वास मत किया कर, वह तो हर कुछ कहते रहते हैं।
हमने उनसे पूछा नहीं था, उन्होंने खुद ने ही कहा था और यदि वह झूठ बोल भी रहे थे तो मेरी कुंडली झूठ नहीं बोल सकती है। उसमें भी बताया गया है कि मेरी उम्र ज्यादा ही है। देख मेरी लग्न कुंडली में, गुरु और शनि आठवे घर में हैं। आठवा घर मृत्यु का घर होता है। अब गुरु का स्वभाव सुन , गुरु जिस घर में बैठते है उसको कमजोर कर देते हैं। मतलब मेरी मृत्यु कमजोर हो गई और मेरी उम्र बड़ गई। शनि की क्वालिटी सुन , शनि जिस घर में बैठते हैं, उसे अपनी तरह ही बहुत धीमा कर लेते है। इससे मृत्यु की मृत्यु की गति धीमी हो गई। दोनों का प्रभाव आठवें घर में मेरी उम्र 120 साल से ज्यादा कर रहा है। उतने पर ही शुक्र स्वयं लग्न में है। इससे भी उम्र ज्यादा ही दिखाई देती है।
हाँ ठीक है, तू तेरी लम्बी उम्र का आनंद ले, मैं जा रहा हूँ।
वह कहकर डी-3 की तरफ चला गया और मैं अपनी अधिक उम्र का अंहकार करता रहा।
ट्रेन चल पड़ी। मैं खिड़की से चिपक कर बैठ गया और बाहर देखने लगा। दिल्ली छूट रही थी। उसके छोटे- बड़े मकान छूट रहे थे , मै उन्हें देखकर उदास था, वह मुझे देखकर । कौन ज्यादा दुखी था, मैं नहीं कह सकता था। मुझे अपना दुख और उनका दुख बराबर लग रहा था। ट्रेन बड़ती जा रही थी।
कोई तो रोक लो इन्हे,
अब न जाने यह कब आयेंगे।
अभी तो ब्याह कर घर लाए थे,
और अभी छोड़ कर जा रहे है।
इनके बिना मैं रहूँगी कैसे,
कैसे दिन निकलेंगे, कैसे रात कटेंगी,
साथ का बादा किया था और अग्नि की सपथ ली थी।
और धर्म को साक्षी करके कहा था कि सदा साथ रहेंगे,
पर देखो वह जा रहे हैं,
हे सखी कोई तो रोक लो उन्हें
न जाने वह अब कब आयेंगे।
रुक जाओ, थोड़ा तो रुक जाओ,
दो पल और देख लूँ तुम्हे,
इन आँखो में अच्छे से कैद कर लूँ,
कुछ देर और खुश हो लूँ हे प्रियतम रुक जाओ, इतनी जल्दी मत जाओ ,
जरा फिर एक बार तुम्हें हाथो से छू लूं।
नही रुकते हो तो मुझे भी साथ ले चलो,
तुम्हारे बिन दिन नहीं कटेंगे।
––––––––
हर गलि हर घर ऐसे ही गीत गाता सा लग रहा था, आँसू झर- झर झरते जाते थे। मैं हारा सा देखता रहता था। न जाने किस बात का दुख था। मैंने अपने फोन को निकाला और वीडियो बनाने लगा ताकि यह आखिरी पल और अच्छे से याद रख सकूँ।
लूट ले गई रे दिल्ली नगरिया।
लूट ले गई रे दिल्ली नगरिया।
साथ साथ की थी बात भाँत भाँत लगी थी आँच
सिर पे रही न पगड़िया। लूट ले गई रे दिल्ली नगरिया।
शनै शनै चल रहा था, समय निकल रहा था,
जब पहुँचा तो नहीं मिली कहीं मेरी टपरिया।
लूट ले गई रे दिल्ली नगरिया।
पनघट पानी भरन गई, पकड़ के पीछे से
झको झोर दई मेरी गगरिया। लूट ले गई रे दिल्ली नगरिया।
बहमों को नहीं तुम पाला करो,
गाड़ी से न हाथ निकाला करो,
खिंच गई कहाँ मेरी चदरिया, लूट ले गई रे दिल्ली नगरिया।
ढूढ़ ढूढ़ थके नैन, मिलता कहीं न चैन,
भरे बाजार में चोरी गई, फिर नई मिली कहीं मेरी घंघरिया, लूट ले गई रे दिल्ली नगरिया।
खुद को भूल जा पहले, न शब्दो पे ध्यान दे,
कानों पर हाथ रख गले से तान दे ,
बन जाएगा गीत अच्छा, फिर न कसर रहेगी,
बुरी है दुनिया इमला नहीं लिखेगी।
इसलिए लिखनी होगी तुझे खुद ही अपनी कहानी,
तब ही मिलेगी तुझे तेरी जगह, नहीं तो बहुत है चिल्लाने वाले तेरी तरह,
डाल ले अपनी एक नई टपरिया। है तुम्हारी ही दिल्ली नगरिया।
इस तरह गाता चिल्लाता दिल्ली से जा रहा था। मोबाइल जेब में रख लिया। वापिस बाहर ध्यान दिया, ट्रेन चलती रही। तभी मुझे ध्यान आया कि मेरे बैग में घर से लाई गई पूरियाँ और अचार रखें हैं। दीपक भाई के यहाँ रुका था, तो उन्हें खाया नहीं था, और उन पर ध्यान भी नहीं दिया था। पाँच दिनों में वह बहुत खराब हो गई थी। फंफूद तो नहीं चड़ी थी, पर वह मानवों के खाने लायक नहीं बची थी। पहले तो सोच रहा था कि घर ही वापिस ले चलता हूँ वहाँ जाकर गायें खा लेंगी। पर फिर समझ आया कि घर तक वह और बेकार हो जाएगी हो सकता है कि फंफूद ही चड़ जाए और बदबू आने लगे। बैग अब उन्हें रखना उचित नहीं है। पर यहाँ ट्रेन कि पटरी पर भी कचड़ा करना तो ठीक नहीं है। पर पूरियाँ कचड़ा थोड़ी हैं। उन्हें पटरियां के किनारे पटक दूँ तो कोई कुत्ता या और पशु खा सकता है। यह सोचकर मैंने बैग से पूरियों की पनी निकाली , गठान खोली, और पटरी के किनारे पटक दिया, कोई तो उन्हें खा ही लेगा, अन्न कभी बिना पोषित किए नष्ट नहीं होता है। पूरियाँ पटरी पर पटकने के बाद बैग की चैन बंद कर ली और उसे टेबल पर दीवार से चिपकाकर रख दिया।
मैंने भूरा को फोन लगाया।
हलो।
हलो।
उसने जबाब दिया
हाँ पहुँच गया।
हाँ
सीट मिल गई?
हाँ मिल गई , पूरा डिब्बा खाली पड़ा।
पूरा डिब्बा?
हाँ, बस मेरे अलावा एक दो और बैठ हैं।
कोई दिक्कत तो नहीं हैं।
क्या दिक्कत होगी। कोई दिक्कत नहीं है, यहाँ मजा आ रहा है, मुझे बिंडो सीट मिली है।
मुझे भी, अच्छा ठीक और कोई दिक्कत हो तो तुरंत फोन कर देना।
हाँ कर दूँगा।
इसके बाद कॉल काट दी और चार्जर निकाल कर ट्रेन के स्विच में लगाकर फोन चार्ज होने के लिए लगा दिया और टेबल पर अच्छे से रख दिया और वापिस ट्रेन के बाहर देखने लगा। अच्छा लग रहा था। पटरियाँ पीछे को भागती हुई लग रहीं थीं। मैं उन पर नजरे गड़ाएं हुए था।
चला मैं चला,
न रोकना मुझे,
मैं न रुकने वाला हूँ।
मैं इक बंजारा हूँ।
मैं इक बंजारा हूँ।
मैं चलता रहूँगा ,
घर निकलते रहेंगे,
चलते थे साथ जो कभी मेरे,
उनके कहे पर भी नहीं रुकूँगा।
मैं ठुकराने वाला हूँ।
मैं इक बंजारा हूँ।
यह वृक्ष ठहरे हैं,
पर मुझे पाँव हैं
मैं उनसे दिल नहीं लगाऊँगा
चलता जाऊँगा,
क्योंकि यही मेरा काम है,
यही मेरा स्वभाव है,
मैं नहीं अटकने वाला हूँ।
चलता रहूँगा जब तक अंतिम छोर न पा लूँ
क्योंकि मैं इक बंजारा हूँ।
मैं इक बंजारा हूँ।
एक यात्रा खत्म होती है
तो दूसरी शुरू हो जाती है।
नये रास्ते मिलते हैं,
पुराने छूट जाते हैं,
कुछ देर दिल टिक जाता है,
फिर छोड़ते समय दुख होता है।
पर मैं दुख को धक्के मारकर
हवा हो जाता हूँ किसी की फिक्र नहीं करता हूं।
मैं एक आवारा हूँ।
मेरे तो काम ही है चलना
मैं इक बंजारा हूं।
मुझे रोकना चाहते हैं कई लोग
कुछ प्रेम बस मेरे साथ रहने के लिए
कुछ मेरी प्रगति से जलकर
मेरी सफलता को मिटाने के लिए,
कुछ आने वाले दुख की ओर संकेत करके
मुझे उसी जगह सुखी देखने के लिए,
पर मै किसी के लिए बैठ नहीं जाऊँगा,
एक बार चलने का निर्णय ले लिया है तो
तो जरूर चलता जाऊँगा,
मेरे कहने पर भले ही हँस लो
पर मैं बहुत हिम्मत वाला हूँ।
यह रास्ता नया है तो क्या
मैं नहीं डरूँगा,
मैं इक बंजारा हूँ।
मैंने नहीं देखी ठहरने में खुशी,
नये रास्तों पर जो नया पन है मुझे रोमांचित करता है
एक सुंदर जगह बहुत देर तक सुंदर नही लगती है,
मैं हर दिन नवम्-नवम् रटने वाला हूँ।
मुझे न पकड़ो मित्रों,
मैं नहीं रुक पाऊँगा,
मैं चलने के लिए बाध्य हूँ,
मेरा प्यार तुम्हें, शायद लौट कर नहीं आऊँगा।
मुझे न रोको मेरे शत्रुओं
मैं नर्म हूँ पर
पर संग्राम में हाहाकार मचाने वाला हूँ।
मुझे जाने दो,
नहीं तो तुम्हें समूल नष्ट कर जाऊँगा।
मैं किसी मरणधर्मा से नहीं रुकने वाला हूँ।
मैं इक बंजारा हूँ।
देखो चला मैं चला,
न रोकना मुझे,
मैं न रुकने वाला हूँ।
मैं इक बंजारा हूँ।
मैं जा रह था, गा रहा था, लोग देखकर कह रहे थे, इसे क्या हो गया यह क्यों चिल्ला रहा है, यह क्या गा रहा है, क्या चुप नहीं रह सकता तो मैं बोला
गाने दो मुझे,
यह मौका शायद मिले या न मिले
आगे न जाने कैसा समय हो
मैं अपनी बात कह पाऊँ या नहीं
मैं गीत बना पाऊँ या नहीं
इसलिए जी खोल कर चिल्लाने दो।
गाने दो गाने दो।
मैं यह कहकर वापिस पटरियों को देखने लगा।
मैं आ रहा हूँ।
इंतजार में है दुनिया, मैं राह बना रहा हूँ।
बता दो सबको न दुखी हों मैं आ रहा हूँ।
स्वागत में खड़े हो जाओ, दीप मालाएं सजाओ,
हँसो नाचो गाओ और तालिया बजाओ।
मैं सबके लिए खुशी ला रहा हूँ। मैं आ रहा हूँ।
पटरियों में तो लोहा ही था, उनमें जान नहीं थी, पर उन्हें देखकर मैं खुश हो रहा था कभी दुखी हो रहा था। ट्रेन यात्रा, लम्बी यात्रा में इतना ही आनंद आता है।
मोर नाचा रे मोर नाचा,
देख के बादल काले-काले, जो हैं अब बरसने वाले
खुश होके मोर नाचा रे मोर नाचा।
बारिश होने वाली है, गर्मी मिटने वाली है,
आने वाली है हरियाली सोच के मोर नाचा रे मोर नाचा।
मेरे प्रियतम आयेंगे, उनके संग जश्न मनायेंगे,
घूमेंगे उनके संग फुहार में गीत बनायेंगे
कल्पना करके मोर नाचा रे मोर नाचा।
सीने की आग कम होगी, मैं कब से था प्रेम रोगी,
बारिश की पहली जो बूंद गिरेगी वह कितनी ठंडी होगी,
सोच खुशी से काँप उठा और फिर नाचा रे मोर नाचा।
अब न करूंगा शर्म किसी की, आज प्रियतम आने वाले हैं,
उसकी खुशी नहीं बनती हृदय में,
बाहर फेंकने मोर नाचा रे मोर नाचा।
आजा जल्दी आजा, रे विरही घर आजा,
छोड़ गया था कबका मुझको, मैं कहता रह गया ना जा,
आजा जल्दी आजा आजा जल्दी आजा,
रो रोकर मोर नाचा रे मोर नाचा।
सात संमदर पार गया था, सुख को मेरे मार गया था,
अब बादलों के संग आ गया है, मन में वो समा गया है,
अब उधर उसकी छबी दिखती है , मुझे सब्र नहीं होती है।
इसलिए उड़ उड़ के मोर नाचा रे मोर नाचा।
आने वाले हैं सरकार मुझको हो गया उनसे प्यार
देख देखकर उनका चेहरा मैं तो नाचूँ बार-बार
हरी हरी उनकी आँखे, काले काले उनके बाल,
गाल गुलाबी, होंठ बने रसीले लाल , मुझको हो गया उनसे प्यार,
चल अब कूंदे संग में यार
चिल्ला कर मोर नाचा रे मोर नाचा।
अब न सह सकूँगा, जल्दी आ जाओ,
छोड़ गए थे तुम जिस हाल में वैसा ही मैं बना हुआ हूँ,
इस दुख को मिटाओ, कह कह कर मोर नाचा रे मोर नाचा।
तड़क तड़क जब बादल करते, प्रिय के वह बोल लगते,
सुनकर उनको कहता रे बच गया आज मरते मरते,
अब न मानूँगा, मैं तो नाचूँगा कहकर उड़ चला
और देखकर धने बादल रुक गया और फिर,
और फिर नाचा रे मोर नाचाl
मन नहीं माने, दुख कोई न जाने,
मेरे आँसूओं को झूठा जाने, तुम आए हो तो समझोगे,
मेरे दिल की खूब कहोगे, कोई नही है, बिना तुम्हारे,
आके तुम मेरे बन जाओ, जो जलन हो रही हदय में,
उसको जल्दी मिटाओ अब न रुलाओ।
हँसते-कहते-रोते-गाते मोर नाचा रे मोर नाचा।
कौन है जो मुझे प्यार करेगा, कौन है जो अपना समझेगा,
तुम्हारे बिन कोई साथ न देगा, इसलिए मैं इंतजार में तुम्हारे रोता हूँ,
तुम आ रहे हो आज तो खुश होता हूँ।
बोल दो फिर से मीठे बोल।
धन करने लगा किलोल और गरजते हुए रोने लगा,
यह प्यार देख मोर नाचा रे मोर नाचाl
इसी मोर की तरह मेरी हालत थी, जैसे ट्रेन चलती जाती थी मैं कहना जाता था कि खुशी में मोर नाचा रे मोर नाचा। ऐसे ही हँसी खुशी में हजरत निजामुद्दीन स्टेशन आ गया।
आज खुसरो गीत नहीं गायेगा।
बैठेगा निजाम के आँचल, खुशी के दीप जलायेगा।
हँसेगा उनके संग में, होली से पहले ही रंग उड़ायेगा।
दुख को मिटाने वाली आभा में खुद को भूल जाएगा।
कोई बुलाने आए तब भी निजाम से दूर नहीं जाएगा।
जब तक निजाम नहीं कहेंगे, वह खाना नहीं खायेगा।
अंकित कर देगा नाम, वह इतिहास में जाना जायेगा।
क्या सच में आज खुसरो निजाम का गीत नहीं गाएगा।
नहीं गाएगा तो फिर क्यों रुकूँ अब मजा नहीं आएगा।
हे राम! आज खुसरो गीत नहीं गायेगा।
हजरत निजामुद्दीन का नाम सुनकर खुसरो की याद आती है, वह हिन्दी के पहले कवियों में थे, उन्होंने हिन्दी को हिन्दवी कहा था। हिन्दी भाषा के नामकरण का श्रेय उनको ही है। दिल्ली आकर उनको प्रणाम किए बिना जाना ठीक नहीं था। हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर आकर उन्हें प्रणाम कर लेना चाहिए। वहीं पास में ही खुसरो और उनके निजाम की समाधी है। निजामुददीन वही महापुरुष है जिन्होंने हिंदी का एक फेमस मुहावरा पैदा किया कि दिल्ली अभी दूर है जिसे खुसरो ने अपने काव्य में कई जगह उपयोग किया है। इस मुहावरे की कहानी बहुत मुझे अच्छी लगती है।
यह चौदहवीं शताब्दी की बात है। तब मोहम्मद बिन तुगलक दिल्ली का राजा था। खुसरो दिल्ली सल्तनत के कई राजाओं के बाद उसके भी दरबारी कवि थे। मोहम्मद बिन तुगलक खुसरो को तो पसंद करता था पर हजरत निजाम को नहीं , वह निजाम के धन को भी हड़पना चाहता था जो भक्तो ने उन्हें दान में दिया था। लोग कहते थे कि निजाम के पास बहुत धन है, एक बार अलाउद्दीन खिलजी ने भी धन का कर न देने के जुर्म में निजाम के घर छापा डाला था, तब निजाम ने उससे कहा था, कि शाह मेरे घर में बहुत दरवाजे हैं , यह भी एक मुहाबरा है। अलाउद्दीन को धन नहीं मिला। मोहम्मद बिन तुगलक भी वही गल्ती कर बैठा। वह एक युद्ध के बाद दिल्ली वापिस आ रहा था कहते हैं कि उसे धन की जरूरत थी, तो उसने संदेश वाहक को निजाम के पास भेज दिया, कहकर कि वह सारा धन उन्हें दे दें और दिल्ली छोड़कर चलें जायें नहीं तो आकर सब लूट लिया जाएगा। यह संदेस लेकर वह निजाम के पास पहुँचा तब जवाब में निजाम ने संदेश वाहक को कहकर भेज दिया,
हुनुज दिल्ली दूरस्त
आगरा के पास ही एक जगह मोहम्मद बिन तुगलक अपने लकड़ी के महल में रुका और वह महल गिर गया और बह मर गया। उसके लिए दिल्ली बहुत दूर रही। तभी से मुहाबरा चल निकला हुजुर दिल्ली अभी दूर है, हुनुज दिल्ली दूरस्त।
ट्रेन स्टेशन पर रुक गई। डिब्बे में यात्रीगण प्रवेश करने लगे। डिस्बा भरने लगा। शोर बड़ गया। लोग अपनी सीटों पर बैठने लगे, यदि उनकी सीट पर कोई बैठा होता तो उससे लड़ने लगते। कुछ लोग कन्फ्यूज थे, उन्हें अपनी सीट न मिलती थी। कुछ हड़बड़ी में चड़े थे। फिर एक फैमिली, घुसी, मैं जहाँ बैठा था, वहीं उसकी सीट थीं। टेबल के पास। वह आए और बैठ गए। उनकी एक सीट मेरी सीट के पीछे थी। वह साथ में बैठना चाहते थे। उनमें से एक ने मुझसे कहा,
भैया आप अकेले ही आए हैं?
वह भूमिका बना रहा था, मैं समझ गया कि वह मुझसे अपनी पीछे वाली सीट पर बैठने के लिए कहेगा। उन सबकी आँखो में उनके मन की बात दिख रही थी, वह सभी चाहते थे कि मैं हट जाऊँ और वह साथ बैठ सके। पर मैं पीछे नहीं बैठना चाहता था, वह जगह उतनी आराम दायक और खुली हुई नहीं थी।
हाँ, अकेला ही हूँ।
मैंने कहा।
क्या आप पीछे बैठ जायेंगे, वहाँ हमारी सीट है।
उसने वैसा ही कहा जैसा मैंने सोचा था। मेरी सीट आराम दायक थी, वहाँ बैग को संभालने की दिक्कत नहीं थी, फोन भी अच्छे से रखा जा सकता था। मैं मना करना चाहता था कि नहीं, मैं नहीं हटूँगा, पर उसने माँगा था, मुझे मना करना ठीक नही लगा।
रहीम दास ने एक दोहा लिखा है,
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं॥
मैं मना करना चाहता था पर