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Bhishma Krit Krishna Stuti with Hindi Meaning | भीष्म कृत कृष्ण स्तुति हिन्दी अर्थ सहित

Bhishma Krit Krishna Stuti with Hindi Meaning | भीष्म कृत कृष्ण स्तुति हिन्दी अर्थ सहित

FromRajat Jain ? #Chanting and #Recitation of #Jain & #Hindu #Mantras and #Prayers


Bhishma Krit Krishna Stuti with Hindi Meaning | भीष्म कृत कृष्ण स्तुति हिन्दी अर्थ सहित

FromRajat Jain ? #Chanting and #Recitation of #Jain & #Hindu #Mantras and #Prayers

ratings:
Length:
16 minutes
Released:
Nov 21, 2021
Format:
Podcast episode

Description

Bhishma Krit Krishna Stuti भीष्म कृत कृष्ण स्तुति ★ भीष्म पितामह जी की स्तुति में ४ (चार) चीजें प्रमुख हैं।

१) इति

२) मति (बुद्धि)

३) रति (प्रेम)

४) गति।

भीष्म पितामह का तात्पर्य है

इति अर्थात यह मेरी अंतिम स्तुति है।

मति अर्थात मेरी सीमित बुद्धि के अनुसार है।

रति अर्थात मुझे अपने ही प्रेम है। तथा मेरी गति भी आप में ही हो।

ऐसी मेरी प्रार्थना स्वीकार करें।

इति

यह स्तुति 'इति' से शुरू होती है। जिसका अर्थ होता हैं अंत। मानो भीष्म पितामह जी कहते हैं कि हे प्रभु ! अब तक मेरी स्तुतियां पूरी थीं या नही थी वो आप जान लेकिन यह मेरी अंतिम स्तुति हैं। इसके बाद मैं आपकी स्तुति नहीं कर पाऊँगा। मेरी बेटी मति (बुद्धि) है, जिसका विवाह आपसे करना

चाहता हूं।

भीष्म पितामह जी ने कहा कि मेरी एक बेटी है। मैं चाहता हूँ कि उसका विवाह आपके साथ हो। श्री कृष्ण कहते हैं- बाबा! मैंने तो सुना था आप आजीवन ब्रह्मचारी रहे हैं। फिर आपकी बेटी कहाँ से आ गई? भीष्म जी कहते हैं कि कान्हा! मेरी बेटी ओर कोई नहीं बल्कि मेरी बुद्धि है। आप उससे विवाह कर लो। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरी ये बेटी और किसी के साथ ब्याही जाये। आपके चरणों में मेरी मति (बुद्धि) समर्पित है।

रति

भीष्म जी कहते हैं- “प्रभु मेरी अगर कहीं रति (प्रेम) हो तो केवल और केवल आप में हो। क्योंकि केवल आपसे ही प्रेम सार्थक हैं। इसे सादर स्वीकारें प्रभु !” गति

अंत में भीष्म पितामह जी कहते हैं- “प्रभु! मेरी गति भी आप में ही होनी चाहिए। मेरा अंत समय हैं। इसलिए मैं चाहता हूँ की आपके श्री चरणों में मेरी गति हो जाये। आप ही एकमात्र मेरे आश्रय हैं।

और जो इन तीनों (इति, मति और रति) आपको सौंप देगा । मैं जानता हूँ कि हे प्रभु! आप उसकी सद्गति ही

करेंगे।" • इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वत पुङ्गवे विभूम्नि । स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ॥१॥
त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।
वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥२ ॥
युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्कचलुलितश्रमवार्यलंकृतास्ये मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥३॥
सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य । स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थ सखे रतिर्ममास्तु ॥४॥
व्यवहित पृथनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या।
कुमतिमहरदात्मविद्यया यश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥५॥
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः । धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलत्गुः हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥६॥
शितविशिखहतोविशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥७॥ विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोः यमिह निरीक्ष्य हताः गताः सरूपम् ॥८॥ ललित गति विलास वल्गुहास प्रणय निरीक्षण कल्पितोरुमानाः । कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥९॥ मुनिगणनृपवर्यसंकुलेऽन्तः सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम् ।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशि गोचर एष आविरात्मा ॥१०॥ तमिममहमजं शरीरभाजां हृदिहृदि धिष्टितमात्मकल्पितानाम् ।
प्रतिदृशमिव नैकधाऽर्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः ॥११॥ ★
Released:
Nov 21, 2021
Format:
Podcast episode

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